विकारों से मुक्त हुए बिना हम अपने मन को मुक्त नहीं कर सकते. मन
को बंधन में डालने वाली माया है माया यानि दृश्य में आकर्षण, दृश्य जो द्रष्टा से
ही उत्पन्न हुआ है. शक्ति को शक्तिमान से अलग नहीं कर सकते, जैसे अग्नि से उसकी
दाहिका शक्ति को. धीरे धीरे साधना के द्वारा दृश्य से पृथक हुआ मन द्रष्टा में
स्थित होता है, इन्द्रियों के माध्यम से सुख पाने की इच्छा जब घटती जाती है
द्रष्टा स्वयं में ही पूर्णता का अनुभव करता है तब एक घड़ी ऐसे आती है जब दृश्य के
साथ-साथ द्रष्टा का भी विलोप हो जाता है. सम्भवतः वही समाधि है.
waah Anita ji....bahut sundar ...yahi samadhi hai ...!!
ReplyDeleteअनुपमा जी, स्वागत व आभार !
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