Monday, March 20, 2023

नवरात्रि का हुआ आगमन

वर्ष में चार बार नवरात्रों का आगमन होता है लेकिन इनमें से चैत्र शुक्ल पक्ष एवं आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक आने वाले नवरात्रों का विशेष महत्व है। वासंतिक नवरात्र से ही भारतीय नववर्ष शुरू होता है। भारत में प्रचलित सभी काल गणनाओं के अनुसार सभी संवतों का प्रथम दिन भी चैत्र शुक्ल प्रथमा ही है।नवरात्रि में देवी के नौ रूपों की पूजा का विशेष महत्व है। यह पर्व शक्ति साधना का पर्व कहलाता है। देवी माँ के नौ रूप इस प्रकार हैं- शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्मांडा, स्कन्द माता, कात्यायनी, कालरात्री, महागौरी एवं सिद्ध दात्री। नवरात्रों में किये गये देवी पूजन, हवन, धूप-दीप आदि से घर का वातावरण पावन होता है और मन एक अपूर्व शक्ति एवं शुद्धि का अनुभव करता है।वैज्ञानिक दृष्टि से जिस समय नवरात्र आते हैं वह काल संक्रमण काल कहलाता है। शारदीय नवरात्र के अवसर पर जहाँ शीत ऋतु का आरम्भ होता है वहीं वासंतिक नवरात्र पर ग्रीष्म ऋतु शुरू होती है। दोनों ही समय वातावरण में विशेष परिवर्तन होता है। जिसमें अनेक प्रकार की बीमारियां होने की संभावना रहती है। ऐसे में हल्का भोजन लेने अथवा उपवास करने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।


Sunday, March 19, 2023

हर अभाव से मुक्त हुआ जो

हम अपने ज्ञान का अनादर न करें तो ज़रूरत से ज़्यादा ज्ञान हमारे पास है; जो एक जन्म नहीं कई जन्मों में हमें राह दिखा सकता है। हम जानते हैं कि सीधे सरल जीवन के लिए ज़्यादा ताम-झम की आवश्यकता नहीं है। साफ़-सुथरा वातावरण, हृदय में शांति, पौष्टिक आहार, हमारी क्षमता के अनुसार काम और ईश्वर का भजन एक सुखमय जीवन के लिए पर्याप्त हैं। हमारी ख़ुशी इन्हीं में है पर हमने आकाश के तारे तोड़ लाने ज़िद ही यदि ठान रखी है तो जीवन को संघर्ष बनने से भला कौन रोक सकता है। अपने अहंकार को पोषित करने में हम अपनी आत्मा को भूल जाते हैं, जो भीतर हमारी राह देख रही है। जिसके पास ही वह अनंत प्रेम व आनंद है जो वास्तव में हम तलाश रहे हैं पर उसे ढूँढ नहीं पाते। यह जीवन किसी भी दिन समाप्त हो जाएगा और उससे पूर्व ही हमें पूर्णता की अनुभूति कर लेनी है ताकि देह छोड़ते समय कोई अभाव न खले।

Friday, March 17, 2023

जीवन जब उत्सव बन जाए

पल भर की चूक से सड़क पर दुर्घटना घट जाती है। थोड़ी सी असावधानी हमें भारी पड़ सकती है।। हम जीवन को अपने लिए उपहार भी बना सकते हैं और बोझ भी। दो तरह के गीत सुनने को मिलते हैं, पहली तरह हैं, दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर ज़हर तो पीना ही पड़ेगा ! और दूसरी तरफ़ उत्साह से भरा यह गीत, ज़िंदगी इक सफ़र है सुहाना ! या ज़िंदगी प्यार का गीत है, इसे हर दिल को गाना पड़ेगा ! हम जीवन के सफ़र को हल्का बना लें या बोझिल, यह चुनाव हमें ही करना है। योग इसी कला का नाम है। परमात्मा से हमारी पहचान हो जाए तो जैसे बड़े आदमी से पहचान होते ही आदमी निश्चिंत हो जाता है, हमें कोई भय नहीं रहता। हम संसार की दलदल में नहीं फँसते, सदा कमल की तरह जल के ऊपर तिरते रहते हैं। 


Monday, March 13, 2023

सर्वम कृष्णाअर्पणम अस्तु

हम इस जगत को अपना मानकर रहेंगे तो इससे सुख-दुःख लेने-देने का व्यापार ख़त्म हो जाएगा; वरना यह लेन-देन अनंत काल तक चल सकता है। हर बार चाहे हमें कोई दुःख दे या हम किसी को कुछ कहें, पीड़ा एक ही चेतना को होती है। जैसे सारी पूजाएँ एक को ही समर्पित हो जाती हैं, वैसे ही सारी निंदाएँ भी अंतत:एक को ही पीड़ित करती हैं। वह एक हम स्वयं हैं। जगत जैसा है उसके लिए हम ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि वह हमारा ही विस्तार है , उसमें सुधार लाना, उसे सही करना उतना ही सहज होना चाहिए जैसे कोई अपने शरीर का कोई रोग दूर करने का प्रयास करता है या घर की मरम्मत करवाता है। यह जग हमारा बड़ा घर है और यहाँ के प्राणी हमारा बड़ा शरीर, जिसमें पशु-पक्षी, पौधे सभी आते हैं। यह सारा जगत हमारे भीतर ही है, आँखों व मन द्वारा हम सब कुछ अपने भीतर ही देखते हैं। कृष्ण के विश्वरूप का संभवतः यही अर्थ है। 


Wednesday, March 8, 2023

द्वंद्वों के जो पार हो गया

जीवन में सत्य के प्रति निष्ठा जगे तभी हमारा जीवन स्फटिक की भाँति निर्मल होगा। हमारे वचनों, कृत्यों और भावों में समानता है तभी हम सत्य के अधिकारी बन सकते हैं। यदि कथनी व करनी में अंतर होगा तो हम अपनी ही दृष्टि में खड़े नहीं रह पाएँगे। यदि मन में प्रेम हो और वचनों में कठोरता तो जीवन एक संघर्ष बन जाता है। यदि मन में उदारता हो और व्यवहार में कृपणता हो तो भी हम सच्चे साधक नहीं कहला सकते। मन, बुद्धि व संस्कार जब एक ही तत्व से जुड़कर एक ही का आश्रय लेते हैं, तब जीवन में निष्ठा का जन्म होता है। श्रद्धा का अर्थ भी यही है कि भीतर द्वंद्व न रहे, हम जो सोचें वही कहें , जो कहें वही करें। जब भीतर एकत्व सध जाता है, तब बाहर भी व्यवहार अपने आप सहज होने लगता है। हम सत्य के पुजारी बनें, अद्वैत को अपने जीवन में उतारें, इसके लिए भीतर एकनिष्ठ होना बहुत ज़रूरी है। 


Monday, March 6, 2023

होली के दिन दिल मिल जाते हैं

होली का उत्सव यानि प्रेम का उत्सव !  होली रंगों में भीग कर सबके साथ एक हो जाने का उत्सव है, छोटे-बड़े का भेद भुलाकर समानता का अनुभव करने का उत्सव है. हर पुरानी कड़वाहट को मिटाकर गुझिया की मिठास बांटने का उत्सव है. होली जैसा अनोखा उत्सव और कोई नहीं, जिसमें एक दिन के लिए मन अतीव उल्लास से भर जाता है. जान-पहचान हो या न हो सभी को रंग लगाने का अपने आनंद में शामिल करने का जिसमें सहज ही प्रयास होता है. मन विशाल हो जाता है, किन्तु इसे भी कुछ लोग अहंकार के कारण चूक जाते हैं. हमारे आपसी मतभेद और टकराहटें जब समष्टि के इतने बड़े आयोजन को देखकर भी दूर नहीं होते तब उनके मिटने का और कोई उपाय नजर नहीं आता.

Wednesday, March 1, 2023

द्रष्टा में जो रहना सीखे

 परमात्मा ही वास्तव में ज्ञाता-द्रष्टा है, मन में उसका प्रतिबिम्ब पड़ने से जीवात्मा की उत्पत्ति होती है। जैसे चंद्रमा पर सूर्य की रोशनी पड़ती है तो ज्योत्सना का जन्म होता है। वह अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व मानक प्रकृति  पर अपना अधिकार जताना चाहता है, पर सदा से विफल होता आया है।  परमात्मा स्वयं को विभिन्न रुपों में प्रकट करना चाहता है। उसके अनंत गुण हैं, जिनका प्रकटीकरण एक से नहीं हो सकता, वह हज़ार रुपों में अपनी विभूतियों  और शक्तियों को प्रकट करना चाहता है; जीवात्मा उन्हें निज सम्पत्ति मान लेता है, वह उनका सुख लेना चाहता है, अहंकार का पोषण करना चाहता है पर उससे दुःख ही पाता है। यदि कलाकार अपनी कला का अभिमान करे तो दुखी होने ही वाला है।यदि वरदान समझकर जगत में अन्य लोगों को उससे सुख पहुँचाए तो वह परमात्मा का सहयोगी बन जाता है। जब कोई इंद्रियों के द्वारा जगत का सुख लेना चाहता है तो उसकी क़ीमत शक्ति का व्यय करके चुकानी पड़ती है। देह दुर्बल होती है, इंद्रियाँ कमजोर होती हैं और एक दिन जीवन का अंत आ जाता है। यदि जीते जी ही इनके प्रति आकर्षण से मुक्त होना सीख लें तो सचेत होकर मृत्यु का वरण किया जा सकता है तथा जब तक जग में हैं आनंद का अनुभव सहज ही होता है। 

Saturday, February 25, 2023

ध्यान को जिसने साध लिया है

 संत व शास्त्र कहते हैं कि व्यायाम व भोजन की तरह दैनिक जीवन में ध्यान के जुड़ने से हमारे भीतर चैतन्य की एक ऐसी अवस्था का भान होता है जिसे  ब्रह्मांडीय चेतना कहा जाता है। इस अवस्था में साधक  सम्पूर्ण ब्रह्मांड को स्वयं के भाग के रूप में मानता है। जब हम जगत को अपने अंश के रूप में देखते हैं, तो जगत और हमारे मध्य कोई भेद नहीं रह जाता, हवा, सूरज, जल, आदि पंच तत्व हमें अपने अंश की रूप में सहायक प्रतीत होते हैं। अंतर का प्रेम जगत के प्रति दृढ़ता से बहता हुआ प्रतीत होता है। यह प्रेम हमें विरोधी ताकतों और हमारे जीवन की परेशानियों को सहन करने की शक्ति प्रदान करता है। क्रोध, चिंता और निराशा क्षणिक व विलीन हो जाने वाली क्षणभंगुर भावनाएँ बन जाती हैं और हीन अपने भीतर मुक्ति की पहली झलक मिलती है। 

Tuesday, February 21, 2023

जीना यहाँ मरना यहाँ

उपनिषद कहते हैं सृष्टि पूर्ण है, पूर्ण ब्रह्म से उपजी है और उसके उपजने के बाद भी ब्रह्म पूर्ण ही शेष रहता है, सृष्टि ब्रह्म के लिए ही है. इस बात को यदि हम जीवन में देखें तो समझ सकते हैं मन पूर्ण है, पूर्ण आत्मा से उपजा है अर्थात विचार जहाँ  से आते हैं वह स्रोत सदा पूर्ण ही रहता है, मन आत्मा के लिए है. विचार ही कर्म में परिणित होते हैं और कर्म का फल ही आत्मा के सुख-दुःख का कारण है. यदि आत्मा स्वयं में ही पूर्ण है तो उसे कर्मों से क्या लेना-देना, वह उसके लिए क्रीड़ा मात्र है. हम इस सत्य को जानते नहीं इसीलिए मात्र 'होने' से सन्तुष्ट न होकर दिन-रात कुछ न कुछ करने की फ़िक्र में रहते हैं. जहाँ  हमें जाना है वहाँ  हम पहुँचे  ही हुए हैं. जैसे मछली सागर में है, पंछी हवा में है आत्मा परमात्मा में है. मछली को पता नहीं वह सागर में है, पंछी को ज्ञात नहीं वह पवन के बिना नहीं हो सकता, वैसे ही आत्मा को पता नहीं वह शांति के सागर में है. मीन और पंछी को इसे जानने की न जरूरत है न ही साधन हैं उनके पास पर मानव क्योंकि स्वयं को परमात्मा से दूर मान लेता है और उसके पास ज्ञान के साधन हैं, वह इस सत्य को जान सकता है. यही आध्यात्मिकता है, यही धार्मिकता है, यही साधना का लक्ष्य है.   प्रतिपल जीवन यह याद  दिलाता है, अनन्त ऊर्जा का एक स्रोत चारों और विद्यमान है. कितने ही लोग सूर्य ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं और कितने ही पवन ऊर्जा का. युगों से ये स्रोत मानव के पास थे पर उसे वह उपाय नहीं ज्ञात था जिसके द्वारा मानव इनका लाभ ले सकता था. इसी तरह  ज्ञान, प्रेम, शांति, सुख की अनन्त ऊर्जा भी परमात्मा के रूप में हर स्थान पर विद्यमान है पर कोई जानकार  ही उसका अनुभव कर पाता है. 


Wednesday, February 15, 2023

शिव-पार्वती पुरातन प्रेमी

प्रेम एक वरदान की तरह जीवन में घटता है। वह अनमोल हीरे की तरह है, पर वक्त के साथ हर हीरे की चमक फीकी पड़ जाती है। दुनियादारी की धूल उस पर जमती जाती है। युवा धीरे-धीरे उस प्रेम को भुला ही बैठते हैं और कर्त्तव्य, ज़िम्मेदारी, जीविकोपार्जन, स्वार्थ, ज़रूरतें, संदेह और न जाने कौन से परत दर परत उस हीरे पर जमने लगती है। वे भूल ही जाते हैं कि प्रेम का दीपक कभी भीतर जगमगाता था, जब उनके दिल सदा रोशन रहते थे और वे ऊर्जा से भरे रहते थे। मीलों दूर रहकर भी वे एक-दूसरे की उपस्थिति को महसूस करते थे। जैसे भक्त भगवान को नहीं भूलता चाहे वे वैकुंठ में हों या कैलाश में ! प्रेम की वह आग धीरे-धीरे राख में बदल जाती है, पर कोई न कोई चिंगारी भीतर तब भी सुलगती है। अंतत: वह भी आग ही है, ज़रा सी हवा देने की देर है। हीरा, हीरा ही है, ज़रा चमकाने की देर है। हर पर्व इसी को याद दिलाने आता है। शिव-पार्वती का प्रेम अमर है। पार्वती बार-बार शिव के  लिए जन्म लेती है। वैसे ही प्रेम बार-बार खोकर फिर सजीव होता है। कोई अपनों से कितना भी रुष्ट हो जाए, पुनः-पुनः प्रेम भीतर जागता है। वह अमर है। शिवरात्रि इसी प्रेम को भीतर जगाने की याद दिलाने आती है।प्रेम हमारा अस्तित्व है, इसलिए वह कभी मृत नहीं होता। यदि वह विलीन होता हुआ सा लगे तो कोई पहले दर्पण में अपनी आँखों में झांके फिर अपने प्रियजन की आँखों में, केवल एक वही नज़र आएगा,  क्योंकि उसके सिवा कुछ है ही नहीं। सद्गुरू उसी प्रेम को सारे विश्व में बाँटने के लिए सारा आयोजन कर रहे हैं; क्योंकि प्रेम ही जग को चलाता है। 


Wednesday, February 8, 2023

जिसने उसको देखा भीतर

संतजन कहते हैं, परमात्मा का मिलना कठिन नहीं है, जो वस्तु हमारे निकट है उसको देखने के लिए कहीं जाना नहीं है, बल्कि उसके प्रति सजग होने की आवश्यकता है. हम अनुष्ठान, जप, तप आदि के द्वारा उसे पाना चाहते हैं, जो हमें मिला ही हुआ है।इनके द्वारा  सद्गुरु हमें अहंकार तजने की कला सिखाते हैं, शरणागत होना सिखाते हैं और भीतर ही वह प्रकट हो जाता है जो सदा से ही वहाँ था. वह आत्मा के प्रदेश में हमारा प्रवेश करा देते हैं. आत्मा के रूप में परमात्मा सदा मन को सम्भाले रहता है, उसे रोकता है, टोकता है और परमात्मा के आनंद को पाने योग्य बनाता है, उसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता. वह सुह्रद है, हितैषी है, वह नितांत गोपनीय है उसे गूंगे का गुड़ इसीलिए कहा गया है. वह आनंद जो साधक को मिलता है सभी को मिले ऐसे प्रेरणा भी तब भीतर वही जगाता है.भक्ति का आरम्भ वहाँ है जहाँ हमें ईश्वर में जगत दिखता है और चरम वह है जहाँ जगत में ईश्वर दिखता है. पहले पहल ईश्वर के दर्शन हमें अपने भीतर होते हैं, फिर सबके भीतर उसी के दर्शन होते हैं. ईश्वर कण-कण में है पर प्रेम से उसका प्राकट्य होता है. सद्गुरु हमें वह दृष्टि प्रदान करते हैं जिससे हम परम सत्ता में विश्वास करने लगते हैं. ईश्वर का हम पर कितना उपकार है यह तो कोई सद्गुरु ही जानता है और बखान करता है. शब्दों की फिर भी कमी पड़ जाये ऐसा वह परमात्मा आनंद का सागर है. 


Thursday, February 2, 2023

कौन देश के वासी हैं हम

धर्म के मूल में तीन बाते हैं, हम कहाँ से आये हैं, हम कहाँ हैं और कहाँ जाने वाले हैं? इनकी खोज ही हमें धर्म की ओर ले जाती है. संतों की वाणी सुनकर हमारे भीतर अपनी वास्तविक स्थिति का बोध जगता है. जिस क्षण कोई अपने सामने पहली दफा खड़ा हो जाता है, आमने-सामने..उसी क्षण वह सत्य को जान जाता है. उस क्षण उसके भीतर संसार से ऊपर उठने, जगने और व्यर्थ कामनाओं से मुक्त होने की चाह जगती है. वास्तव में हम उसी एक तत्व से आये हैं, उसी में हैं और उसी में लौट जाने वाले हैं. लेकिन लौटने से पूर्व हमें देखना है कि भीतर सुई की नोक के बराबर भी द्वंद्व  न बचे, उसका मार्ग बहुत संकरा है, उसमें से एक गुजर सकता है। दुई मिटते ही सारा अस्तित्व हमारी सहायता को आ जाता है, आया ही हुआ है. बाहर से संत, शास्त्र व भीतर से दैवीय प्रेरणा मिलने लगती है और हम उसकी ओर बढ़ते चले जाते हैं. जहां वह है वहाँ सभी ऐश्वर्य हैं। वह हितैषी है, अकारण दयालु है, वह ही तो है जिसने यह खेल रचा है. अंतत: वह स्वयं ही तो इस सीमित जगत के रूप में दिखायी दे रहा है। जबकि वास्तव में वह अलिप्त है और अनंत है। 


Sunday, January 29, 2023

डरना जिसने छोड़ दिया है

भय से मुक्ति मिले बिना मानव को विश्रांति प्राप्त नहीं हो सकती। जो कुछ उसके पास है, वह छिन जाने का भय, रिश्तों के टूट जाने का भय अथवा उनके सदा एक सा न बने रहने  का भय। दूसरों के मन में अपने प्रति स्नेह व सम्मान  को खो देने का भय। समाज में अकेले रह जाने का भय और दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं, इसका भय। असुंदर, अयश, निर्धन, अपकीर्ति, असफल  होने का भय; और भी न जाने कितने भय हैं जिनसे मन घिरा रहता है। सबसे बड़ा भय रोग अथवा मृत्यु का है, यह भी मानव मन को जकड़े रहता है। जहाँ भय है वहाँ प्रेम खो जाता है। संत जब ईश्वर से प्रेम करने की बात कहते हैं तो भयभीत व्यक्ति उसका अनुभव नहीं कर पाता, अथवा तो उन क्षणों में नहीं कर पाता जब इनमें से कोई भय मन की ऊपरी सतह पर आ गया है।अधिकतर समय तो ये भय अवचेतन में दबे रहते हैं और इनका भास नहीं होता। कोई परिस्थिति आने पर यदि मन डावाँडोल हो रहा है तो कोई न कोई भय सिर उठा रहा है। ऐसे में एक ही उपाय है इनसे मुक्ति का, साक्षी हो जाना। ये भय हमारे सत्य स्वरूप को छू भी नहीं पाते। जब कोई स्वयं की अनंतता को अनुभव कर लेता है तो सारे भय खो जाते हैं। साधना के द्वारा बार-बार अपने आप में स्थित होना सीखना है, एक दिन जब सारे भय अवचेतन से निकल कर सामने आ जाएँगे और मन में हलचल नहीं होगी उस क्षण हम इनसे सदा के लिए मुक्त हो जाएँगे।   


Monday, January 23, 2023

जीवन इक उपहार सरीखा

हम चिंता तो करते हैं पर चिंतन  से घबराते हैं, ऐसे चिंतन से जो हमें हमारे भीतर की कमियों को दिखाए. हम उस दर्पण में देखना नहीं चाहते जो हमें वैसा ही दिखलाये जैसे हम वास्तव में हैं। जो हम जानते हैं वह सरल है पर उसी को पढ़ते-गुनते रहना ही तो हमें आगे बढने से रोकता है. जब कोई हमें अपमानित करता है तब वह हमारा दर्पण होता है, हमरी प्रतिक्रिया से ज़ाहिर होता है कि हमारे भीतर कितनी समता आयी है। प्रभु से प्रार्थना है कि वह उसे हमारे निकट रखे ताकि हम वही न रहते रहें जो हैं बल्कि बेहतर बनें. स्वयं की प्रगति ही जगत की प्रगति का आधार है, हम भी तो इस जगत का ही भाग हैं. हम यानि, देह, मन, बुद्धि, आत्मा तो पूर्ण है उसी को लक्ष्य करके आगे बढ़ना है.  उसी की ओर चलना है चलने की शक्ति भी उसी से लेनी है. आत्मा हमारी निकटतम है हमारी बुद्धि यदि उसका आश्रय ले तो वह उसे सक्षम बनाती है अन्यथा उद्दंड हो जाती है. आत्मा का आश्रित होने से मन भी फलता फूलता है, प्रफ्फुलित मन जब जगत के साथ व्यवहार करता है तो कृपणता नहीं दिखाता समृद्धि फैलाता है. जीवन तब एक शांत जलधारा की तरह आगे बढ़ता जाता है. तटों को हर-भरा करता हुआ, प्यासों की प्यास बुझाता हुआ, शीतलता प्रदान करता हुआ, जीवन स्वयं में एक बेशकीमती उपहार है, उपहार को सहेजना भी तो है.  

Friday, January 20, 2023

माया के जो पार हुआ है

जब भीतर हलचल हो मानना होगा कि कोई चाह सिर उठा रही है। चाह कुछ पाने की, कुछ बनने की या कुछ पकड़ने की; अर्थात; ‘मैं’ अहंकार से जुड़ गया है। आत्मा को न कुछ पाना है, न कुछ बनना है, न कुछ पकड़ना है, वह पूर्ण है।देह कुदरत से उपहार में मिली है।उसे अपना कर्त्तव्य निभाना है, देखने, सुनने आदि का कार्य, भोजन पचाने, श्वास लेने और चलने-फिरने का हर कार्य देह में प्रकृति द्वारा किया जा रहा है। मन समाज ने दिया है, बचपन से जो भी देखा, सुना, पढ़ा, सीखा, उसी का जोड़ मन है। मन, बुद्धि को अपने अपना नियत कर्म करना है; अर्थात  अपने समय व ऊर्जा का सही उपयोग हो सके इसका चिंतन व मनन करके निर्णय लेना है। बुद्धि में आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वही स्वयं को ‘मैं’ मानकर एक स्वतंत्र सत्ता का निर्माण कर लेता है।वास्तव में ‘मैं’ जैसा कुछ नहीं है।इस तरह यदि सभी अपना-अपना कार्य ठीक से करें अहंकार का कोई स्थान ही नहीं है। अहंकार सदा अभाव का अनुभव करता है, जो है, उसे न देखकर जो नहीं है। उसकी कल्पना में मन को लगाता है। किंतु यदि उसे सारे संसार का वैभव भी प्राप्त हो जाए तो भी वह अभाव का अनुभव ही करेगा, क्यंकि वह कुछ है ही नहीं। आत्मा के साथ जुड़ने से मैं पूर्णता का अनुभव करता है। हर अभाव एक माया है और हर पूर्णता एक सत्य !  

Thursday, January 19, 2023

पूर्णमद: पूर्णमिदं

परमात्मा सर्वत्र है, हर काल में है;  इस तरह वह हमारे भीतर भी है और बाहर भी, इस समय भी है। वह सर्वशक्तिमान है। अनंत प्रेम का सागर है। हमारा मन यदि उसमें से कुछ ग्रहण कर भी ले तो भी उसका कुछ घटेगा नहीं, यदि हम उसे अपना सारा प्रेम दे भी दें  तो उसमें कुछ बढ़ेगा नहीं।अनादि काल से इस सृष्टि में हज़ारों जीव आए और उसके प्रेम के भागी बने पर वह ज्यों का त्यों है। हमारा मन यदि संकुचित है, लघु है, संकीर्ण है तो उसमें कम ही समाएगा। छोटा मन अहंकार का प्रतीक है और विशाल मन आत्मा का। संतों का मन विशाल होता है, वे मन को अनंत कर लेते हैं और सारा का सारा अनंत उसमें समा जाता है, फिर भी अनंत में कुछ घटता नहीं। वेदों में कहा गया है, संकीर्णता में दुःख है, विशालता में सच्चा विश्राम है। ऐसा ही शान्ति, शक्ति, सुख, ज्ञान, पवित्रता व आनंद के साथ है। वह इन सबका अजस्र स्रोत है और मानव को देने को तत्पर है। मन में यदि उन्हें पाने की चाह हो तो आत्मा के ये गुण अपने आप प्रकट होने लगते हैं।  


Sunday, January 15, 2023

चेतन, अमल, अजर अविनाशी

संत कहते हैं “मैं कौन हूँ” इस सवाल का जवाब खोजने जाएँ तो भीतर एक गहन शांति के अतिरिक्त कुछ जान नहीं पड़ता। एक ऐसा भान होता है, जो अनंत है, विस्तीर्ण है, जो होना मात्र है, केवल शुद्ध चिन्मय तत्व है। वहाँ भौतिकता का लेश मात्र भी नहीं।जो मात्र जानने वाला है। न कर्ता है न भोक्ता , न उसे कुछ चाहिए, न उसे निज सुख के लिए कुछ करना है। जो स्वयं पूर्ण है, आनंद स्वरूप है, जो परमात्मा का अंश है। जो हर जगह है, हर काल में है। जिसका कभी नाश नहीं होता। जो सहज ही उपलब्ध है पर जिसके प्रति हम आँख मूँदे हैं। जो मन का आधार है। जो मन को विश्राम देता है। जो प्रेम, शांति, शक्ति व ज्ञान का स्रोत है। वही आत्मा, परमात्मा और गुरू है।  


Friday, January 13, 2023

हर उत्सव यह याद दिलाता

सत्संग, सेवा, साधना और स्वाध्याय इन चार स्तम्भों पर जब जीवन की इमारत खड़ी हो तो वह सुदृढ़ होने के साथ-साथ सहज सौन्दर्य से सुशोभित होती है. उत्सव बार-बार इसी बात को याद दिलाने आते हैं. हर उत्सव का एक सामाजिक पक्ष होता है और धार्मिक भी, यदि उसमें आध्यात्मिक पक्ष भी जोड़ दिया जाये तो उसमें चार चाँद लग जाते हैं. मकर संक्रांति ऐसा ही एक उत्सव है. इस समय प्रकृति में आया परिवर्तन हमें जीवन के इस अकाट्य सत्य की याद दिलाता है कि यहाँ सब कुछ बदल रहा है, भीषण सर्दी के बाद वसंत का आगमन होने ही वाला है. छोटे-बड़े, धनी-निर्धन आदि सब भेदभाव भुलाकर जब एक साथ लोग अग्नि की परिक्रमा करते हैं तो सामाजिक समरसता का विकास होता है. तिल, अन्न आदि के दान द्वारा भी सेवा का महत कार्य इस समय किया जाता है. जीवन की पूर्णता का अनुभव उत्सव के माहौल में ही हो सकता है. कृषकों द्वारा नई फसल को प्रकृति की भेंट मानकर उसका कुछ अंश अग्नि को समर्पित करने की प्रथा हमें निर्लोभी होना सिखाती है. मकर संक्रांति का त्यौहार पूरे देश में भिन्न-भिन्न नामों से मनाया जाता है, हर उत्सव पर हम ईश्वर से प्रार्थना  करते हैं, उसके करीब जाते हैं, मन के उल्लास को जगाते हैं, उत्सव हमें मन को इतर  कार्यों से खाली करने का प्रयास है, अथवा तो जो भी अच्छा-बुरा जीवन में हो उसे समर्पण करके पुनः नए हो जाने का संदेश देता है. उत्सव में एक साथ मिलकर जब आनंद मनाते हैं, तो ऊर्जा का संचार होता है, भीतर एक नया जोश भर जाता है. क्षण भर के लिए ही भौतिक देह का भाव मिटने लगता है, सारे भेद गिर जाते हैं और उस अव्यक्त की झलक मिल जाती है.     


Tuesday, January 10, 2023

तीन गुणों के पार हुआ जो

यह सृष्टि तीन गुणों से संचालित होती है। जब तीनों गुण  साम्यावस्था में आ जाते हैं तब सृष्टि अव्यक्त हो जाती है। हमारे भीतर भी ये तीन गुण हर क्षण अपना कार्य करते रहते हैं। जब सत गुण की प्रधानता होती है, मन के भीतर हल्कापन, स्पष्टता व सहज आनंद की अनुभूति होती है। रजोगुण हमें क्रियाशील बनाता है, इसकी अधिकता मन के चंचल व अस्थिर  होने का कारण है। तमोगुण प्रमाद, आलस्य, निद्रा को लाता है।  तीनों गुणों के सामंजस्य से जीवन भली भाँति चलता है। यदि प्रातः काल सतो गुण प्रधान हो, दिन में रजो तथा रात्रि के आगमन के साथ तमो गुण बढ़ जाये तो साधना, कर्म व विश्राम तीनों होते रहेंगे और स्वास्थ्य बना रहेगा। दिन में तमो गुण बढ़ने से कार्य नहीं होगा, रात्रि में रजो बढ़ जाए तो नींद नहीं आएगी। इन गुणों का आपसी ताल-मेल सधना योग का फल है। योग साधना क्रियाशील होने के साथ-साथ हमें पूर्ण विश्राम करना भी सिखाती है। साक्षी की अवस्था में आत्मा इन तीनों गुणों के पार चला जाता है, वह इनसे प्रभावित नहीं होता। वह परम विश्राम की अवस्था है जिससे लौटकर बुद्धि प्रज्ञावान हो जाती है, जिसे कृष्ण स्थितप्रज्ञ कहते हैं। 


Wednesday, January 4, 2023

मन जो अमन हुआ टिक जाए

संत कहते हैं, मन को विकारों का ही तो बंधन है, हम जो मुक्ति की बात करते हैं, वह मुक्ति विकारों से ही तो चाहिए. यदि धर्म धारण किया है तो विकार धीरे-धीरे ही सही पर निकलने शुरू हो जाते हैं. यदि नहीं होते अथवा बढ़ते हैं तो ऐसा धर्म किस काम का ? केवल पाठ करने या धार्मिक चर्चा करने मात्र से हम धार्मिक नहीं हो जाते. राग-द्वेष सब विकारों की जड़ हैं। वीतरागी तथा वीतद्वेषी होने के लिये मन पर संस्कारों की गहरी लकीर नहीं पड़नी चाहिए. हृदय से मैत्री व करुणा की धारा बहने लगे तो शीघ्र ही मन निर्द्वन्द्व हो जाता है. ऐसा तब होता है जब मन ध्यानस्थ होने लगता है। मन की गहराई में मैत्री व करुणा का साम्राज्य है, पर मन उसके प्रवाह में रोड़े अटकाता है, जब मन न रहे तभी अमन अर्थात शांति का अनुभव होता है। 

Tuesday, January 3, 2023

मुक्ति की जो करे कामना

सुख यानि शुभ आकाश, अपने आसपास का वातावरण जब सकारात्मक तरंगे लिए हुए हो, उसमें कोई विकार न हो। किंतु जहाँ शुभ है, वहाँ अशुभ भी हो सकता है, चाहे उस समय प्रकट नहीं हो रहा। जहाँ सकरात्मकता है, वहीं नकारात्मकता भी छिपी है। इसलिए सुख की कामना का त्याग ही मुक्ति है। इस वर्ष हमारा मूलमंत्र सुख के स्थान पर मुक्ति होना चाहिए। मुक्ति का अर्थ है, पूर्ण स्वतंत्रता, दो के द्वन्द्व  से पूरी आज़ादी ! अब न सुख की तलाश है न शुभ-अशुभ का भय ! मुक्ति का अर्थ है मन के पूर्वाग्रहों, धारणाओं, कल्पनाओं, आशंकाओं से मुक्ति ! एक ऐसे स्थान में रहने की कला जहाँ पूर्ण रिक्तता है। जहाँ इस जगत का स्रोत है। जहाँ से आवश्यक ज्ञान सभी जीवों को प्राप्त होता है, क्योंकि वह ज्ञान का भी स्रोत है। आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी पाँच तत्व भी वहीं से उपजे हैं। मुक्ति की कामना हमारे शास्त्रों का मूल मंत्र है। मोक्ष की अवधारणा केवल भारत में ऋषियों द्वारा की गयी है, यह परम कामना है। इसका अर्थ है छोटे संकीर्ण मन की दासता से मुक्ति और विशाल मन के साथ एक होने की कला या विज्ञान; यह व्यक्ति को पूर्ण बनाती है।