Monday, March 13, 2023

सर्वम कृष्णाअर्पणम अस्तु

हम इस जगत को अपना मानकर रहेंगे तो इससे सुख-दुःख लेने-देने का व्यापार ख़त्म हो जाएगा; वरना यह लेन-देन अनंत काल तक चल सकता है। हर बार चाहे हमें कोई दुःख दे या हम किसी को कुछ कहें, पीड़ा एक ही चेतना को होती है। जैसे सारी पूजाएँ एक को ही समर्पित हो जाती हैं, वैसे ही सारी निंदाएँ भी अंतत:एक को ही पीड़ित करती हैं। वह एक हम स्वयं हैं। जगत जैसा है उसके लिए हम ज़िम्मेदार हैं, क्योंकि वह हमारा ही विस्तार है , उसमें सुधार लाना, उसे सही करना उतना ही सहज होना चाहिए जैसे कोई अपने शरीर का कोई रोग दूर करने का प्रयास करता है या घर की मरम्मत करवाता है। यह जग हमारा बड़ा घर है और यहाँ के प्राणी हमारा बड़ा शरीर, जिसमें पशु-पक्षी, पौधे सभी आते हैं। यह सारा जगत हमारे भीतर ही है, आँखों व मन द्वारा हम सब कुछ अपने भीतर ही देखते हैं। कृष्ण के विश्वरूप का संभवतः यही अर्थ है। 


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