Wednesday, March 1, 2023

द्रष्टा में जो रहना सीखे

 परमात्मा ही वास्तव में ज्ञाता-द्रष्टा है, मन में उसका प्रतिबिम्ब पड़ने से जीवात्मा की उत्पत्ति होती है। जैसे चंद्रमा पर सूर्य की रोशनी पड़ती है तो ज्योत्सना का जन्म होता है। वह अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व मानक प्रकृति  पर अपना अधिकार जताना चाहता है, पर सदा से विफल होता आया है।  परमात्मा स्वयं को विभिन्न रुपों में प्रकट करना चाहता है। उसके अनंत गुण हैं, जिनका प्रकटीकरण एक से नहीं हो सकता, वह हज़ार रुपों में अपनी विभूतियों  और शक्तियों को प्रकट करना चाहता है; जीवात्मा उन्हें निज सम्पत्ति मान लेता है, वह उनका सुख लेना चाहता है, अहंकार का पोषण करना चाहता है पर उससे दुःख ही पाता है। यदि कलाकार अपनी कला का अभिमान करे तो दुखी होने ही वाला है।यदि वरदान समझकर जगत में अन्य लोगों को उससे सुख पहुँचाए तो वह परमात्मा का सहयोगी बन जाता है। जब कोई इंद्रियों के द्वारा जगत का सुख लेना चाहता है तो उसकी क़ीमत शक्ति का व्यय करके चुकानी पड़ती है। देह दुर्बल होती है, इंद्रियाँ कमजोर होती हैं और एक दिन जीवन का अंत आ जाता है। यदि जीते जी ही इनके प्रति आकर्षण से मुक्त होना सीख लें तो सचेत होकर मृत्यु का वरण किया जा सकता है तथा जब तक जग में हैं आनंद का अनुभव सहज ही होता है। 

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