संत व शास्त्र कहते हैं कि व्यायाम व भोजन की तरह दैनिक जीवन में ध्यान के जुड़ने से हमारे भीतर चैतन्य की एक ऐसी अवस्था का भान होता है जिसे ब्रह्मांडीय चेतना कहा जाता है। इस अवस्था में साधक सम्पूर्ण ब्रह्मांड को स्वयं के भाग के रूप में मानता है। जब हम जगत को अपने अंश के रूप में देखते हैं, तो जगत और हमारे मध्य कोई भेद नहीं रह जाता, हवा, सूरज, जल, आदि पंच तत्व हमें अपने अंश की रूप में सहायक प्रतीत होते हैं। अंतर का प्रेम जगत के प्रति दृढ़ता से बहता हुआ प्रतीत होता है। यह प्रेम हमें विरोधी ताकतों और हमारे जीवन की परेशानियों को सहन करने की शक्ति प्रदान करता है। क्रोध, चिंता और निराशा क्षणिक व विलीन हो जाने वाली क्षणभंगुर भावनाएँ बन जाती हैं और हीन अपने भीतर मुक्ति की पहली झलक मिलती है।
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