Thursday, November 7, 2019

गहरे पानी पैठिये


जगत में जिस किसी को भी जिस शै की तलाश है, उसे पाने के लिए खुद ही वह बन जाना होता है. इस जगत का अनोखा नियम है यह, यहाँ स्वयं होकर स्वयं को पाना होता है. तपता हुआ सूरज बन कर ही प्रकाश फैलाना सम्भव है, हिम शिखर हुए बिना शीतलता क्योंकर बिखरेगी, प्रेम यदि पाना है तो स्वयं प्रेम बने बिना कहाँ मिलेगा इसी तरह शांति का अनुभव भी शांत हुए बिना नहीं खिलेगा. आनन्दित हुए बिना ख़ुशी की कामना व्यर्थ है. हम कर्म के द्वारा ख़ुशी पाना चाहते हैं, यह हिसाब ही गलत है. कर्म जब आनंदित होकर किया जायेगा तभी वह निष्काम होगा। सन्त कहते हैं, वास्तव में इस जगत में हमें कुछ पाने जैसा क्या है, जो भी कीमती है, वह परमात्मा ने मन की गहराई में छिपा दिया है, अब कीमती वस्तु इधर-उधर तो रखी नहीं जा सकती न, हम बाहर से जब मुक्त हों तब मन में उतरें और उसे खोज लें, यही काम करने योग्य है.

Wednesday, November 6, 2019

तोरा मन दर्पण कहलाये



मन दर्पण है, परमात्मा  बिम्ब है, जीव प्रतिबिम्ब है. यदि मन का दर्पण स्वच्छ नहीं है तो प्रतिबिम्ब स्पष्ट नहीं पड़ेगा. संसार भी तब तक निर्दोष नहीं दिखेगा जब तक मन निर्मल नहीं होगा. हम अपने मन के दुर्भाव को जगत पर आरोपित कर देते हैं और व्यर्थ ही अन्यों को दोषी मानते हैं. जब भी हमने किसी की निंदा की है, अपना मत ही थोपा है. जगत जैसा है वैसा है, हम निर्णायक बनते हैं अपनी समझ के अनुसार, हमारी समझ न तो पूर्ण है न ही निर्मल है. यदि भीतर क्रोध है तो वह बाहर आने का मार्ग खोजेगा, यदि भीतर ईर्ष्या है तो वह रास्ता निकल लेगी. हम अन्यों को इसका कारण मानेंगे और एक दुष्चक्र में फंस जायेंगे. हमारी दृष्टि जैसी होगी सृष्टि वैसा ही रूप धर लेगी. यदि मन खाली हो अर्थात उसका कोई मत न हो तो दुनिया जैसी है वैसी ही दिखेगी. इसीलिए सन्त कहते हैं, अहंकार को त्यागे बिना शांति का अनुभव हो नहीं सकता. जब मन किसी भी धारणा, विचार या मान्यता से बंधा न हो तो जल की तरह बहता रहता है और उसमें अंतर की शांति का अनुभव सहज ही होता है .

Thursday, October 3, 2019

मौन से ही वह द्वार खुलेगा



संत कहते हैं, शब्दों का इतना ही कार्य है कि भीतर मौन को उत्पन्न कर दे. मौन लक्ष्य है, शब्द साधन हैं. जैसे यदि कोई व्यक्ति एक प्रश्न पूछता है, फिर जवाब की प्रतीक्षा में रुक जाता है, उस क्षण भीतर मौन है. जवाब देने वाला व्यक्ति शब्दों के माध्यम से ही उत्तर देता है, पर सुनने वाला यदि उत्तर से संतुष्ट नहीं होता, तो भीतर एक अन्य प्रश्न का जन्म होता है, मौन खंडित हो जाता है. यदि उत्तर उसे स्वीकार्य है तो फिर एक क्षण के लिए मौन का अनुभव उसे हो सकता है. मौन का यह क्षण इतना छोटा होता है कि हम उसे चूक ही जाते हैं. उस मौन से ही अस्तित्त्व का द्वार खुलता है. शास्त्रों का प्रयोजन इतना ही है कि हमें भीतर के उस मौन से परिचित करा दे, विचार का जन्म किसी न किसी इच्छा के कारण होता है, इसीलिए मन से इच्छाओं के त्याग पर इतना जोर दिया गया है. भीतर जब मौन होता है, तब मन खो जाता है, चेतना केवल अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहती है.

Wednesday, October 2, 2019

शब्दों के वह पार मिलेगा



समय परिवर्तन का ही दूसरा नाम है. जब मन थम जाता है, भीतर एक शांति और स्थिरता का अनुभव होता है, लगता है समय ठहर गया है. सारी सृष्टि मन से ही उत्पन्न होती है. मन में विचार जब तेजी से चल रहे हों, लगता है समय भी भाग रहा है. मन द्वारा किया गया परमात्मा का चिंतन हमें परमात्मा से दूर ही करता है, उसके निकट जाना हो तो हर चिंतना का त्याग करना होगा. शब्दों से जिसे जाना ही नहीं जा सकता ऐसा वह परम अस्तित्त्व है. इसीलिए वह समयातीत भी है और शब्दातीत भी, और उसका होना या न होना शब्दों द्वारा सिद्ध भी नहीं किया जा सकता और खंडित भी नहीं किया जा सकता.

Tuesday, October 1, 2019

थम कर पल भर बैठा हो जो



हम साध्य और साधन का भेद नहीं कर पाते इसलिए सदा असंतुष्ट बने रहते हैं. हमारे लिए जगत साध्य है और परमात्मा उसे प्राप्त करने का साधन, जबकि संसार को साधन बनाकर हमें स्वयं और परमात्मा के पास पहुँचना है. इस जगत में हम जो कुछ भी करते हैं वह कुछ न कुछ बनने अथवा पाने के लिए करते हैं. जो हमारे पास है, जैसे हम हैं, वह पर्याप्त नहीं है. यह दौड़ कभी खत्म होती नजर नहीं आती, संत कहते हैं यदि कोई थम जाये और जैसा वह है, जो उसके पास है, उसका मूल्यांकन करे अथवा तो कुछ भी न करे बस तटस्थ होकर रहे तो धीरे-धीरे वह प्रकट होने लगता है जो उसका मूल स्वभाव है. अपने स्वभाव में विश्राम पाते ही लगता है वह तो पहले से ही मिला हुआ है, जिसकी उसे तलाश है. इस ठहरने में एक बात और घटती है जो आवश्यक बदलाव है वह अपनेआप ही होने लगता है.

Sunday, September 29, 2019

अमन हुआ जो मुक्त वही है



जब तक मन संकुचित है वह डोलेगा ही, ऐसा मन अशांति का ही दूसरा नाम है. जो मन दिखावा करता है, तुलना करता है, वह उद्ग्विन हुए बिना नहीं रहेगा. स्वार्थ से भरा हुआ मन भी अकुलाहट से भर जाता है. विशाल मन का अर्थ है अमनी भाव में आ जाना. संत कहते हैं अमन हुए बिना समाधान नहीं मिलता. क्योंकि मन होने का अर्थ ही है अहंता का होना, जो है वह अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिए अन्य का विरोध करेगा ही, इसीलिए सिर काटने और घर जलाने की बात कबीर कह गये हैं. मन के मिटे बिना आत्मिक शांति का अनुभव नहीं किया जा सकता. चेतना जब पूर्ण विश्राम में होती है, अर्थात समाधि में होती है, तब मन खो जाता है. जब हम विचारधारा में बह जाते हैं मन के प्रभाव में होते हैं, जब हम विचार के साक्षी होते हैं, अप्रभावित बने रह सकते हैं. किंतु समाधि का अनुभव शून्यता में ही किया जा सकता है.

Monday, September 23, 2019

जिस अंतर में प्रेम जगा हो


हम सबने सुना है परमात्मा प्रेम है, इसका अर्थ हुआ जो नास्तिक हैं उनके जीवन में प्रेम नहीं है, पर ऐसा तो जान नहीं पड़ता. प्रेम तो जीव-जन्तुओं में भी होता है, हर मानव का पोषण प्रेम से ही होता है. परमात्मा जिस प्रेम से बना है, वह खालिस है, शुद्ध है, ऐसा स्वर्ण है जिसमें कोई मिलावट नहीं है, और संसार में जिसे हम प्रेम कहते हैं वह मोह, क्रोध, ईर्ष्या जैसे अवगुणों से मिश्रित है. परमात्मा सबसे समान प्रेम करता है, हम केवल अपनों को ही करते हैं, अपनों की परिभाषा किसी के लिए सारा जगत होती है, किसी के लिए उसका देश होती है, किसी के लिए मात्र उसका परिवार होती है तो किसी के लिए केवल उसकी देह और मन ही होती है. परमात्मा जिस प्रेम का नाम है वह अनंत है, उसमें सरलता है, सहजता है. वह सदा है, प्रतिपल उसके बढ़ने का अनुभव होता है. संसार का प्रेम घटता-बढ़ता रहता है. जिसने अपने मन को इतना विशाल बना लिया है कि उसमें सब कुछ समा जाये वही कोई सुहृद उस परम प्रेम का अनुभव करता है.  

Sunday, September 22, 2019

भवचक्र से पार हुआ जो



यह दुनिया मानो एक रंगशाला है, जिसमें अलग-अलग देश अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं, छोटे देश, बड़े देश, बीच के देश. कुछ युद्ध के लिए लालायित देश, कुछ शांति प्रिय देश....सभी की अपनी-अपनी भूमिका है जिसे वह निभा रहे हैं. निर्देशक कहीं नजर तो नहीं आता पर वह है जरूर, सभी सोचते हैं जिसमें उनका लाभ हो ऐसे कदम उठायें, उसके लिए अन्य देशों की हानि भी उन्हें मंजूर है. इस खेल-तमाशे में इतना जोश जनता के भीतर भर दिया जाता है कि अक्सर वह अपना होश ही गंवा बैठती है. अनेक कष्टों का सामना भी वह कर लेती है जब उसे राष्ट्रहित और धर्म के नाम पर भावनात्मक रूप से उकसाया जाता है. आज सारी दुनिया में यह हो रहा है, न जाने कितनी बार मानव सभ्यता अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँची पर इसी उन्माद के कारण उसका विनाश हुआ. यहाँ भीड़ को प्रेरित करके कुछ भी कराया जा सकता है, व्यक्ति की बात कौन सुनता है. जब कोई एक देश, दूसरे के तेल संस्थानों पर बेवजह हमला कर देता है, और कोई इसकी जिम्मेदारी भी नहीं लेता, तो यही लगता है कि मानव की बुद्धिहीनता की कोई सीमा नहीं है. यहाँ ज्ञान भी अनंत है और अज्ञान भी, यहाँ एक ही सम्प्रदाय के लोग आपस में तो लड़ते रहते हैं पर दूसरे सम्प्रदाय  के खिलाफ बोलने से भी गुरेज नहीं करते. संत कहते हैं, सम्प्रदाय छिलका है धर्म भीतर का फल है, पर ये छिलके पर ही अटके हुए हैं, वास्तविक धर्म से तो इनका अभी वास्ता ही नहीं पड़ा शायद इसी को हमारे शास्त्रों में लीला कहा गया है.

Friday, September 20, 2019

तू ही जाननहार जगत में



जगत में दो ही तो हैं एक नाम-रूप का अनंत विस्तार और दूसरा उसे जानने वाला, एक दृश्य दूसरा दृष्टा. हम यदि दृश्य के साथ एक होकर स्वयं को देखते हैं तो सदा विचलित रहते हैं, क्योंकि दृश्य सदा ही बदल रहा है. साथ ही जानने वाले से हम विलग ही रह जाते हैं. यदि द्रष्टा के साथ एक होकर रहते हैं तो दृश्य हम पर प्रभाव नहीं डालता, पर दृश्य की असलियत को हम जान लेते हैं. जो सदा बदलने वाला है उसकी मैत्री हमें कठिनाई में डाल दे इसमें कैसा आश्चर्य?. जिसका स्वभाव ही अचल है उसका सान्निध्य पाना ही योग में स्थित रहना है.

Thursday, September 19, 2019

ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या



संत कहते हैं, जैसे सागर, लहरें, फेन, बुदबुदे सभी पानी से बने हैं, पानी ही हैं, वैसे ही प्रकृति, ईश्वर, जीव सभी ब्रह्म से बने हैं, ब्रह्म ही हैं. जीव प्रकृति के तीन गुणों के अधीन रहकर कर्म करता है. यदि वह चाहे तो गुणातीत होकर ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर सकता है अथवा प्रकृति के साथ एक होकर सुख-दुःख के झूले में डोलता रह सकता है. जीव जब स्वयं को देह मानता है तो वह जरा-मरण के भय से मुक्त नहीं हो सकता, जैसे सागर यदि स्वयं को लहर माने तो वे पल-पल में मिटने वाली है. जीव यदि स्वयं को प्राण मानता है तो बुदबुदों की तरह उसका अस्तित्त्व आज है कल नहीं रहेगा. यदि मन मानता है तो सुख-दुःख से बच नहीं सकता, जैसे सागर यदि स्वयं को फेन माने तो नष्ट होगा ही. जीव यदि स्वयं को ब्रह्म मानता है तो उसका विनाश नहीं हो सकता, वह सदा एकरस, मुक्त, आनंदित रह सकता है, जैसे सागर यदि स्वयं को पानी ही माने तो उसका न कभी कुछ बना न ही बिगड़ा. जो सदा रहता है वह सत्य है, जो आज है कल नहीं रहेगा वह मिथ्या है, ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या का यही तात्पर्य है.

खिला रहे जब मन का फूल



सृष्टि में हर शै एक-दूसरे से जुड़ी है. कोई यहाँ अकेला नहीं है. यदि कोई वास्तव में अपने भीतर एकांत का अनुभव कर लेता है तो उसी क्षण वह सारी सृष्टि से जुड़ जाता है. हम जो अकेलापन अनुभव करते हैं, वह खुद की बनाई हुई सीमाएं हैं जो हमें अपने वातावरण से तोडती हैं, एक सिकुड़े हुए मन को ही अकेलेपन का भय होता है एक खिला हुआ मन सहज ही सबसे अपनेपन का अनुभव करता है. दुःख मन को सीमित करता है और ख़ुशी उसे फैलाती है. पूजा में हम फूल चढ़ाते हैं इसका तात्पर्य है मन भी फूल की तरह खिला रहे. जीवन में प्रतिपल कुछ न कुछ ऐसा घटता है जो हमारे अन्य्कूल नहीं है, किंतु जो मन उसे भी ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकार कर लेता है, वह उस भीतरी एकांत से जुड़ने की कला सीख लेता है. ऐसा मन समता को प्राप्त होता है.

Sunday, September 8, 2019

सहज हुए से मिले अविनाशी




जीवन जितना सरल है उतना ही जटिल भी. जिसने यह राज समझ लिया वह सरलता और जटिलता दोनों से ऊपर उठ जाता है. जिस क्षण में जीवन जैसा मिलता है, उसे वह वैसा ही स्वीकार करता है. वन में जहरीले वृक्ष भी हैं और रसीले भी, गुलाब में कंटक भी हैं और फूल भी, यदि हम एक को स्वीकारते हैं और दूसरे को अस्वीकारते हैं तो मन सदा एक संघर्ष की स्थिति में ही बना रहता है. ध्यान में जाने का पहला मन्त्र है मन को सभी धारणाओं से मुक्त कर लेना. जो जैसा है वैसा ही स्वीकार कर लेना. सभी द्वन्द्वों के साक्षी बनकर ही पूर्ण विश्राम का अनुभव किया जा सकता है. जहाँ कोई अपेक्षा नहीं, वहीं पूर्ण स्वतन्त्रता है, स्वतन्त्रता हर आत्मा की आन्तरिक पुकार है. मन का सारा तनाव परतन्त्रता से ही उत्पन्न होता है. हम कुछ चाहते हैं पर कर नहीं सकते, यही संघर्ष भीतर चलता रहता है. हर इच्छा हमें गुलामी की ओर धकेलती है. जगत हमें कुछ देता है तो उसकी कीमत भी वसूलता है, यह चक्र न जाने कब से चल रहा है, संत और शास्त्र हमें एक नये जीवन की झलक दिखाते हैं, जिसमें सहजता है, सरलता है आनंद है पर उसके विपरीत कुछ भी नहीं, यहाँ पूर्ण स्वतन्त्रता है, यहाँ अनंत नीले नभ की निर्मलता का अनुभव भी सहज ही किया जा सकता है. यही ध्यान है, यही अपने स्वरूप में स्थित होना है.

Monday, September 2, 2019

सेवा का जो मर्म जान ले



परमात्मा की बनाई इस सुंदर सृष्टि में हममें से हरेक को अपनी भूमिका निभानी है. एक ही सत्ता जड़ और चेतन के अनंत-अनंत रूपों में प्रकट हो रही है. जहाँ सभी किसी न किसी तरह से एक-दूसरे पर निर्भर हैं. गणपति की लीला भी यही बताती है, उनका वाहन मूषक है, और सर्प को उन्होंने अपने उदर पर बाँधा हुआ है. मूषक सर्प का आहार है, सर्प मोर का आहार है, जो कार्तिकेय का वाहन है. वन में सभी जीव एक-दूसरे पर आश्रित हैं. एक समर्थ मानव पर अनेकों जन आश्रित होते हैं. जिस का हृदय सहज ही अन्यों की सहायता करने के लिए तत्पर हो जाता है, उसे वैसी सामर्थ्य भी अस्तित्त्व द्वारा मिलने लगती है. साधना में योग, स्वाध्याय, ईश्वर भक्ति के साथ-साथ सेवा का भी समान महत्व है, बल्कि साधना की सिद्धि के बाद तो सेवा के अतिरिक्त कुछ करने को भी साधक के पास नहीं रह जाता. गणपति उत्सव में भी अन्य सामाजिक उत्सवों व पर्वों की तरह समाज के अनगिनत जन किसी न किसी प्रकार की सेवा देते हैं. अंतर इतना ही है, एक सिद्ध व्यक्ति इस सत्य को जानकर सेवा करता है कि अपने हर सेवा कर्म में वह परमात्मा की ही सेवा कर रहा है. साधक अपने अहंकार को मिटाने के लिए सेवा करता है और अज्ञानी व्यक्ति अहंकार के पोषण के लिए सेवा करता है.

Tuesday, August 27, 2019

हे जन्मभूमि भारत



भारत में परिवर्तन की हवाएं चल रही हैं. ये हवाएं अपने साथ कितने ही संदेश लेकर आ रही हैं. दुनिया आज भारत की ओर आशा भरी नजर से देख रही है. आधुनिकता के नाम पर जब धरती के सारे स्रोतों को नष्ट किया जा रहा हो, तब वेदों में दिए गये संदेश जैसे उसके घावों पर मरहम रखते से लगते हैं, जिनमें कहा गया है धरती हमारी माँ है और हम उसके पुत्र हैं, माँ जो प्रेम की मूरत है, वह अपना सब कुछ संतानों पर लुटाने को तैयार ही है. नदियों की पूजा करने का वास्तविक अर्थ क्या है आज उसे समझने व समझाने का समय आ गया है. वृक्षों को आराध्य मानना और पंच तत्वों को परमात्मा का स्थूल शरीर मानना क्या हमें अपने पर्यावरण को सरंक्षित रखने का संदेश नहीं देता. अध्यात्म की सुगंध यहाँ की हवा में बसी हुई है, भौतिक उन्नति के शिखर पर पहुँचा हुआ व्यक्ति भी यहाँ संतों के चरणों में अपना सिर झुकाने में स्वयं को भाग्यशाली मानता है. जीवन के मर्म को समझने के लिए आदिकाल से हर देश के यात्री भारत आते रहे हैं, हम कितने भाग्यशाली हैं कि पृथ्वी के इस भूभाग में हमारा जन्म हुआ है, जिसका अर्थ ही है प्रकाश. जैसे प्रकाश के अभाव में जगत होते हुए भी दिखाई नहीं देता वैसे ही ज्ञान रूपी प्रकाश के न होने पर ही दुःख रूपी अंधकार ने हमें घेर लिया है, ऐसा भ्रम होने लगता है.

Monday, August 26, 2019

काहे री नलिनी तू कुम्हलानी



संत कबीर कहते हैं, 'काहे री नलिनी तू कुम्हलानी'. हमारा मन रूपी कमल भी अक्सर कुम्हला जाता है, हम अपने आपसे यह सवाल पूछें तो उत्तर मिल सकता है. दिक्कत यह है कि हमने स्वयं को मन ही समझ लिया है, इसलिए मन के उदास होते ही हम भी परेशान हो जाते हैं और सवाल पूछना तो दूर सामान्य व्यवहार भी भुला बैठते हैं. दुखी व्यक्ति न बोलने योग्य बोल देता है, न सोचने योग्य सोच लेता है और विषाद के कारण हुए तनाव से तन को भी रोगी बना लेता है. हम अन्यों को सलाह देने में कितने दक्ष हैं, किसी की भी, कैसी भी समस्या हो, हमारे पास उसका निदान सदा ही रहता है. कितना अच्छा हो यदि एक क्षण के लिए भी मन पर बादल छाये तो हम उससे पूछें और एक समझदार मित्र की तरह उसे इस दुःख से बाहर निकलने की सलाह दे सकें. ऐसा करने के लिए मन के साथ हुआ तादात्म्य तोड़ना होगा. नीले आकाश की तरह विस्तृत हमारा स्वरूप है और उस पर उड़ते हुए बादलों की तरह विचार हैं, दोनों में कोई तादात्म्य नहीं, दोनों पृथक हैं. विचारों के पार जाते ही मन के सुख-दुःख के हम साक्षी मात्र रहते हैं, वे हम पर अपना असर नहीं डाल सकते.  

Sunday, August 25, 2019

जो रहे कमलवत सदा जगत में



जगत में विविधता है, रूप, रंग, गंध, ध्वनि और स्वाद के न जाने कितने विषय हमारे चारों ओर बिखरे हैं. आँख को एक दृश्य दिखाएँ या हजार, उसे कोई भार नहीं लगता. नासिका ने हजारों गंध का ज्ञान ग्रहण किया है पर एक और गंध लेने के लिए उसे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता. इसी प्रकार मन जो इन्द्रियों के द्वारा दिखाए गये ज्ञान को ग्रहण करता है, न जाने कितने जन्मों से यह कार्य कर रहा है, उसे कभी असुविधा नहीं होती, हर दिन नये-नये विषयों का ज्ञान प्राप्त करने की उसकी आकांक्षा को कोई बाधा नहीं पड़ती. यहाँ तक की बात जो समझ लेता है वह मन के हजार चिन्तन करने पर भी स्वयं को सहज अवस्था में रख पाने में समर्थ हो जाता है. मन में एक विचार आये या हजार विचार आयें, यदि हम स्वयं को मन से परे एक सत्ता के रूप में अनुभव कर सकते हैं, उसी तरह जैसे रूप से परे आँख है और आँख से परे मन है, तो हम सदा अपने निर्विकार रूप में बने ही रहते हैं. जीवन में रहकर भी कमल की तरह अलिप्त.  

Thursday, August 22, 2019

कृष्ण, कन्हैया, माधव, केशव



कृष्ण का नाम याद आते ही मन में स्मृतियों का एक अनंत भंडार खुल जाता है. याद हो आती हैं गोपियाँ और ग्वाल-बाल, नंद-यशोदा, गोकुल और वृन्दावन. मथुरा की जेल में कैद देवकी और टोकरी में नन्हे कान्हा को उठाये यमुना पार करते वसुदेव भी याद आते हैं. कदम्ब का पेड़ और बांसुरी की तान भी देश के लोकमानस में इस तरह रची-बसी है कि कहीं भी, कोई भी बांसुरी बजाये, कृष्ण की स्मृति मन को तरंगित कर जाती है. ब्रजभूमि का तो हर रजकण कृष्ण के स्पर्श को भीतर धारण किये हुए है. पूतना और बकासुर के नाम भी कृष्ण से वैसे ही जुड़े हैं जैसे सुदामा और उद्धव के. कृष्ण अर्जुन के सखा हैं और भीष्म पितामह के आराध्य भी, द्रौपदी के तारणहार हैं तो रुक्मणी के प्रिय द्वारकाधीश. राधा का नाम तो कृष्ण के साथ एक हो गया है, उसे अलग से गिनाने की भी जरूरत नहीं है. भारत उसी तरह कृष्णमय है जैसे उपवन में सुगंध हो या दीपक में ज्योति. चित्रकला, संगीत, वास्तुशिल्प, साहित्य या अन्य कोई भी विधा हो कृष्ण के बिना कोई भी पूर्ण नहीं होती. महाभारत को गीता रूपी रत्न से सुशोभित करने वाले कृष्ण का आज जन्मदिन है. यही प्रार्थना है कि जन्माष्टमी का यह पर्व भारत के सुन्दर भविष्य की नींव रखने वाला सिद्ध हो.

पहला सुख निरोगी काया



'पहला सुख निरोगी काया', हम यह शब्द बचपन से सुनते आये हैं. मानव देह परमात्मा की बनाई सुंदर कृति है, जो सौ वर्ष तक जीव का साथ दे सकती है. आयुर्वेद के अनुसार प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए जीवन जीने से मानव सहजता पूर्वक स्वास्थ्य व दीर्घायु प्राप्त कर सकता है. स्वस्थ रहने के उपाय भी हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार करता है फिर भी कभी न कभी देह अस्वस्थ होती है. जिसका पहला कारण है हमारी जीवन प्रणाली. सुख-सुविधाओं के साधन बढ़ने के कारण ज्यादा शारीरिक श्रम नहीं होता, तथा जीवनस्तर बढ़ने के कारण वसायुक्त गरिष्ठ आहार हमारे भोजन का अंग बन गया है. चिकित्सक भी यह मानते हैं कि मधुमेह, रक्तचाप था हृदयरोग का मूल कारण आहार तथा दिनचर्या है. बाहर भोजन करने की आदत तथा टीवी के सामने घंटों बैठे रहने के कारण भी शरीर स्वयं को स्वस्थ नहीं रख पाता. कितना अच्छा हो यदि सुबह सूर्योदय से पहले उठकर आधा घंटा भ्रमण के लिए निकालें, फिर एक घंटा आसन तथा प्राणायाम आदि करके दिनचर्या का आरम्भ करें. हल्का पौष्टिक नाश्ता लेकर काम पर लगें तथा हर घंटे पर पांच दस मिनट के लिए शरीर की हिलाना-डुलाना न भूलें. दोपहर के भोजन के बाद दिन में आधे घंटे से अधिक विश्राम न करें. संध्या को भी नियमित रूप से कोई खेल खेलें, तैरें, साइकलिंग करें या टहलने जाएँ. नियमित ध्यान का अभ्यास भी शरीर व मन को स्थिरता प्रदान करता है. रात्रि भोजन के बाद भी कुछ देर चहलकदमी करनी आवश्यक है.

Tuesday, August 20, 2019

साधो, सहज समाधि भली



जीवन में हमें जो कुछ भी मिलता है वह हमारे विकास के लिए आवश्यक है, ऐसा जो जान लेता है अर्थात हृदय से मान लेता है और बुद्धि से स्वीकार कर लेता है, उसका जीवन सहज हो जाता है. हर सुख का क्षण यदि हमें अस्तित्त्व के प्रति कृतज्ञता से भर दे और हर दुःख का क्षण जीवन के प्रति जिज्ञासा से भर दे तभी हम सहजता की ओर बढ़ रहे हैं. सहजता का अर्थ है उस तरह होना जैसे कोई फूल उगा हो या कोई झरना बहता हो, जिसे अपने को श्रेष्ठ होने के लिए कुछ सिद्ध नहीं करना पड़ता. मानव सदा स्वयं को 'कुछ' होने की दौड़ में लगाये रखता है, वह अन्य की तुलना में विकसित होना चाहता है. एक जन्म के बाद दूसरा जन्म और जन्मों की एक लम्बी श्रृंखला चलती चली जाती है, हम विकास की उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाते जिसके बाद इस चक्र में दुबारा नहीं आना पड़ता. आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो मानव की बुद्धि चरम सीमा तक पहुँच चुकी है, किंतु अस्तित्त्वगत दृष्टि से मानव की चेतना उपनिषदों के ऋषि की चेतना तक भी नहीं बढ़ पायी है. आज ध्यान को भी हमने संसार में उन्नति के लिए साधन बना लिया है, किंतु जिस क्षण तक ध्यान में होना एक सहज अनुभव न हो जाये, जीवन के मर्म का ज्ञान नहीं हो पाता.

Sunday, August 18, 2019

भाव जगेंं जब अनुपम भीतर



हमने स्वतन्त्रता दिवस मनाया और रक्षा बंधन भी, हर भारतीय के मन में दोनों के लिए आदर और गौरव का भाव है. देश की रक्षा करने वाले वीरों की कलाई में बहनें जब राखी बांधती हैं तो उनके मनों में आजाद हवा में साँस लेने का सुकून भर जाता है. सृष्टि में प्रतिपल कोई न कोई किसी की रक्षा कर रहा है. वृक्ष के तने पर जब हम लाल धागा बांधते हैं तो हम उसके द्वारा स्वयं को रक्षित हुआ मानते हैं. एक तरह से सुरक्षित होना ही स्वतंत्र होना है, इस बार दोनों उत्सव एक ही दिन मनाए गये, इसके पीछे सृष्टि का कोई न कोई अदृश्य हाथ अवश्य है. बहनें अथवा कुल का पुरोहित जब परिवार के बच्चों और युवाओं के हाथ में डोरी बांधता है तो उसके पीछे कितनी ही अनाम भावनाएं छुपी  होती हैं. जीवन भावनाओं से गुंथा हो तभी उसकी शोभा होती है, वरना अंतर से रस विलीन हो जाता है. हृदय यदि श्रद्धा और प्रेम के भावों से भीगा न हो तो उसमें मरुथल की तरह कैक्टस ही उग सकते हैं. भावना के फ़ूल ही मानव को मानव बनाते हैं. देश के लिए कुर्बान होने का भाव किसी वीर के हृदय में जब जगता है तब वह सारी कठिनाइयों को सहने के लिए तैयार हो जाता है. हमने अपने पूर्वजों का ऋणी होना चाहिए जिन्होंने सुंदर उत्सवों की एक श्रंखला हमें सौंपी है, जिसकी मूल भावना को अक्षुण रखते हुए हमें उन्हें मनाना है.

Sunday, August 11, 2019

स्वयं का ही जो शासन माने



अपने सुख-दुःख के लिए जब हम स्वयं को जिम्मेदार समझने लगते हैं, तब अध्यात्म में प्रवेश होता है. जब तक हमारा सुख-दुःख व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति पर निर्भर है, तब तक हम संसार में रचे-बसे हैं. संसारी होने का अर्थ है पराधीन होना, अपनी ख़ुशी के लिए दूसरों की पराधीनता को स्वीकार करना ही अधार्मिकता है. 'दूसरे' में व्यक्ति, वस्तु और परिस्थति तीनों ही आ जाते हैं. तुलसीदास ने कहा है, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं...इसलिए स्वतंत्र प्रकृति का व्यक्ति जगत में अपनी राह खुद बनाता है, अपने भाग्य का निर्माता स्वयं बनता है. ऐसा व्यक्ति कर्मयोगी बन सकता है, ज्ञानी बन सकता है, भक्त बन सकता है, तीनों बन सकता है. निष्काम कर्मयोग के द्वारा परमात्मा को सब प्राणियों में देखा जा सकता है, ज्ञान के द्वारा परमात्मा को स्वयं में देखा जा सकता है और भक्ति के द्वारा कण-कण में देखा जा सकता है. सत्संग के द्वारा ही हम सभी अध्यात्म में प्रवेश के अधिकारी बनते हैं.

Friday, August 9, 2019

अलख निरंजन भव भय भंजन



प्रकृति और पुरुष दोनों उसी तरह भिन्न हैं जैसे वाहन और उसका चालक. गति वाहन में होती है, चालक में नहीं, इसी तरह सारी क्रिया प्रकृति में है, पुरुष में नहीं. वाहन यदि टूट जाये तो दूसरा लिया जा सकता है, इसी तरह पंचभूतों से बनी देह जो प्रकृति का ही अंश है, यदि नष्ट हो जाये तो पुरुष को कोई अंतर नहीं पड़ता, उसे दूसरी देह मिल जाती है. यदि किसी का वाहन क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो वह व्यक्ति दुखी होकर उसका शोक मनाये ही ऐसा जरूरी नहीं, सुखी या दुखी होना उसकी स्वाधीनता है, इसी तरह यदि देह रोगी हो जाये या वृद्ध हो जाये, अथवा नष्ट हो जाये तो सुख या दुखी होना पुरुष यानि आत्मा की स्वतन्त्रता है. कर्मों का फल सुख या दुःख के रूप में मिलता है पर सुखी या दुखी होना केवल हमारे बोध के ऊपर निर्भर करता है. हर मानव के मन की गहराई में एक स्थान ऐसा है जो निरंतर एकरस है, जो मुक्त है, यदि कोई उसे जुड़ जाये तो कभी अपनी इच्छा के विपरीत सुख-दुःख का अनुभव उसे नहीं होगा, वह सदा साक्षी ही बना रहेगा.  

Thursday, August 8, 2019

अति का भला न बरसना


"अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप" अति किसी भी वस्तु की हो हानिकारक होती है. आज देश में वर्षा की अति हुई लगती है, दक्षिण के सभी राज्य बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहे हैं. उससे पूर्व बिहार और असम भी इस विपदा का शिकार हुए. गुजरात व महाराष्ट्र के कितने ही जिले पानी में डूब गये, जब शहरों में इतनी बुरी हालत है तो गांवों की तो कल्पना ही की जा सकती है. जब घरों में पानी भर जाता है, लोगों की बरसों की जमापूंजी, सामान, घर-बिस्तर सब कुछ नष्ट हो जाते हैं. इस प्राकृतिक विपदा का सामना यूँ तो हर वर्ष ही करना पड़ता है, किंतु इस साल यह महामारी की तरह सब जगह फ़ैल गयी है. बरसात न हो तो सूखे की सी स्थिति हो जाती है, अब भूमि में जल का स्तर निश्चित रूप से बढ़ जायेगा. बाढ़ के साथ आई ताजी मिटटी खेतों को उपजाऊ कर देगी. उम्मीद है सरकार और देशवासियों के सहयोग से इस विपत्ति का सामना मानव की जुझारू प्रवृत्ति किसी न किसी तरह कर ही लेगी और बरसात का मौसम थमते ही थमते गाड़ी पटरी पर आ जाएगी. किंतु उस समय का उपयोग यदि जिला प्रशासन व्यवस्था पक्के नाले बनाने में करे, प्लास्टिक का उपयोग कम से कम हो, जिससे पानी का निकास न रुके. जल को संचित करने के लिए बड़े जलाशयों का निर्माण हो तब अगले वर्ष बाढ़ आने की नौबत शायद नहीं आये, यदि अधिक बरसात हुई भी तो उसका ज्यादा असर नहीं होगा.  

सर्वे भवन्तु सुखिनः



कश्मीर की वादियों में आज सन्नाटा है, लेकिन यह सन्नाटा तूफान से पहले का सन्नाटा नहीं है. यह शांति तो उस उत्सव की राह देख रही है जो आतंकवाद, गरीबी, अलगाव और अशिक्षा को दूर करके अमन और खुशहाली के माहौल में वहाँ मनाया जाने वाला है. पिछले चार दशकों से जो खून बहा है, उसकी कीमत तो कोई नहीं चुका सकता, किंतु जिस नफरत की आग को कुछ स्वार्थी तत्वों ने भड़काया है, उसके बुझने का प्रबंध धारा तीन सौ सत्तर को निष्प्रभावी बनाने के साथ किया जा चुका है. भारत की वीर सेना और देश को सर्वोपरि मानने वाली निर्भीक राजनीतिक इच्छा शक्ति ने जो कदम उठाया है, वह इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा. हर देशवासी के मन में यही आकांक्षा है कि एक बार पुनः काश्मीर में शिकारों पर गीत फिल्माए जाएँ, केसर की क्यारियां महकें. धरती का जन्नत कश्मीर संतों और सूफियों का एक सा स्वागत करे. हर घर में तिरंगा फहरे और हर कश्मीरी फख्र से कह सके, वह भी एक सच्चा भारतीय है.  


Friday, August 2, 2019

प्रेम और शांति



'युद्ध और शांति' इन शब्दों से हम सभी परिचित हैं, कोई राष्ट्र अथवा उसकी सेना के लिए काल को दो खंडों में परिभाषित किया जाता है, एक युद्ध काल तथा दूसरा शांति काल, दोनों एक साथ नहीं होते. एक के बाद एक आते हैं. किंतु हम यहाँ बात कर रहे हैं प्रेम और शांति की जो साथ-साथ होते हैं. प्रेम होता है तो वातावरण शांत हो जाता है अथवा जब शांति होती है तो प्रेम भीतर से फूटने लगता है. रात्रि की नीरवता में ओस की बूंदों के रूप में प्रेम ही बरसता है, तथा जब बादल बरस कर जल के रूप में प्रेम बरसा रहे हों तो बाद में वातावरण कितना शांत व शुभ्र प्रतीत होता है. धरा की गहराई में पूर्ण नीरवता में बीज प्रेम में ही मिटता है और नये अंकुर का जन्म होता है. परिवार के सदस्यों के मध्य यदि प्रेम सहज रूप से विद्यमान रहे तो घर में शांति रहती है. यदि प्रेम की उस धारा में कोई रुकावट आ जाये तो घर की शांति भंग हो जाती है. प्रेम और शांति हमारा मूल स्वभाव है, हमारा निर्माण इनसे ही हुआ है. हम मानवों ने तन तो ऊपर से ओढा हुआ है. मन व बुद्धि जहाँ से उपजे हैं, वह स्रोत प्रेम ही है और वहाँ गहन शांति है.

Wednesday, July 31, 2019

मन तू ज्योति स्वरूप



मानव मस्तिष्क में अद्भुत क्षमता है. आज वैज्ञानिक अंतरिक्ष के रहस्यों को जानने के लिए तत्पर हैं, संचार के साधनों में अत्यधिक वृद्धि हो चुकी है. भारत का पुरातन इतिहास उठाकर देखें तो ऐसे कई आश्चर्यजनक विवरण मिलते हैं उस काल में ऋषियों ने बिना अंतरिक्ष में गये धरती के गोल होने तथा सूर्य की परिक्रमा करने की बात ज्ञात कर ली थी. सौर मंडल के कितने ही रहस्य उन्हें पता थे. धरती तथा अन्य ग्रहों की सूर्य से दूरी का जो अनुमान उन्होंने लगाया था वह आधुनिक विज्ञान से मेल खाता है. इसी प्रकार जड़ी-बूटियों का ज्ञान उन्हें प्रयोगशाला में जाकर नहीं मन की शक्ति से ही हो जाता था. जब संसार का रचियता स्वयं मानव के इस मन में बैठा है तो भला यह सम्भव भी क्यों न होता. आज छोटी-छोटी बातों के कारण जो युवा आत्महत्या की बात सोचने लगते हैं, उन्हें अपने मन की इस अद्भुत क्षमता का कोई ज्ञान ही नहीं है. भारत में जन्म लेकर अध्यात्म का ज्ञान न होना आज के युवाओं के जीवन में सबसे बड़ी कमी है.

Monday, July 29, 2019

भीतर बाहर एक हुआ जो


एक जीवन बाहर है और एक जीवन भीतर है. साधना का लक्ष्य है दोनों में समरसता लाना. हम घर में रहते हैं और बाहर भी जाते हैं. साधना का लक्ष्य है दोनों जगह हमारे मन का भाव रसमय बना रहे. यदि भीतर अशांति है तो लाख न चाहने पर भी हमारे व्यवहार में वह झलक ही जाएगी. यदि भीतर शांति है तो बाहर के शोरगुल में भी हमारा व्यवहार सौम्य बना रह सकता है. साधक के जीवन में एक दिन ऐसा भी आता है जब भीतर और बाहर का सारा भेद खो जाता है, तब उसके व्यवहार में सहजता प्रकट होती है. उसी दिन वह अपनी दृष्टि में प्रामाणिक होता है, और जगत में उसके लिए कोई पराया नहीं रह जाता. संत व शास्त्र बताते हैं इसके लिए स्वयं को जानना पहला कदम है. ध्यानपूर्वक जब हम अपने मन को देखना आरंभ करते हैं तो वह सारी चतुराई छोड़ने को तैयार हो जाता है. पहले पहल विकार प्रबल होते हुए लगते हैं पर धैर्यपूर्वक उनका दर्शन करने से वे अपना असर खोने लगते हैं. मन की गहराई में छिपा रस प्रकट होने लगता है और सहज ही बाहर जीवन बदलने लगता है.  

Sunday, July 28, 2019

गुरू की महिमा कौन बखाने


शब्द अधूरे हैं, अल्प सामर्थ्य है शब्दों में. भाव गहरे हैं, अनंत ऊर्जा है भावों में, किंतु गुरू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी हो तो भाव भी कम पड़ जाते हैं. वहाँ तो मौन ही शेष रहता है. जब उसके हृदय से साधक का हृदय जुड़ जाता है तो मौन में ही संवाद घटता है. गुरू के शब्द और कर्म प्रेम से ही उपजे हैं. वह नित जागृत है, करुणा, प्रेम और जीवन के प्रति उत्साह के भाव उसके हृदय में लबालब भरे हैं. उसका ज्ञान एक पवित्र जल धारा की तरह साधकों के मनों को तरोताजा कर देता है. उसके हृदय का वृक्ष शांति, सुख और आनंद के फलों से लदा है, जो वह बेशर्त प्रदान करता है. उसकी आँखों में प्रेम की मस्ती है, आत्मा में बेशकीमती खजाना है, जो वह लुटा रहा है. वह साधकों के अंतर में साधना का बीज बोता है, जो भी व्यर्थ है उसे उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित करता है, जो भी अच्छा है, उसे बाड़ लगाकर सहेजने के लिए कहता है. उसके भीतर से जो स्वर्गिक संगीत निकलता है, उसे सुनकर साधक जीवन के सुन्दरतम रूप को देखते हैं. उसकी आत्मा के प्रकाश में भीग कर उनमें भी भीतर जाने की ललक जगती है, पावों में पंख लग जाते हैं, मन जीवन के प्रति तीव्र चाह से भर उठता है.

निज स्वरूप है सदा असंग



स्थूल देह हमारा घर है. प्राणमय कोष ऊर्जा है. मनोमय कोष संचार का साधन है, विज्ञान मय कोष  कर्ताभाव को उत्पन्न करता है. आनन्दमय कोष में स्थित रहने पर सहज ही सुख का अनुभव होता है, किंतु यह भी अज्ञान जनित सुख है. देह भाव से मुक्त हुए तो, जरा-रोग का भय नहीं रहता. प्राणमय कोष से मुक्त हुए तो भूख-प्यास का भय नहीं रहता. विज्ञानमय कोष से मुक्त हुआ साधक कर्त्ता भाव से मुक्त हो जाता है. हम इनके माध्यम से प्रकट हो रहे हैं, इन्हें प्रकाशित कर रहे हैं, न कि हम ये हैं. मन, बुद्धि आदि को 'स्वयं' मानना ही माया है. जैसे पानी समुद्र या लहरों का साक्षी नहीं है, समुद्र व लहरें उसकी उपाधियाँ हैं, वह अपने आप में निसंग है, वैसे ही आत्मा अपने आप में पूर्ण है. जैसे कोई पक्षी दर्पण के सामने खड़े होकर प्रतिबिम्ब से प्रभावित हो जाता है, वैसे ही हम मन, बुद्धि आदि से प्रभावित हो जाते हैं. जितना-जितना हम विश्राम में रहते हैं, उतना-उतना अपने स्वरूप के निकट रहते हैं.

Friday, July 26, 2019

सत के पथ पर चलना होगा



मानव जीवन सत्य से मिलने का एक अवसर है. शास्त्रों में सत्य की परिभाषा दी गयी है, जो सदा से है, सदा रहेगा, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता पर जो सारे परिवर्तनों का आधार है. यदि हम अपने जीवन पर दृष्टि डालें तो शैशवावस्था नहीं रही, किशोरावस्था भी चली गयी, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था भी टिकने वाली नहीं हैं. एक दिन यह तन भी नहीं रहेगा, अर्थात देह की अवस्थाएं सत्य नहीं हैं. जो इन सभी अवस्थाओं को देखने वाला था, वह सदा रहेगा. इसी तरह उदासी आई और चली गयी, ख़ुशी के पल आये और चले गये. हम सबका अनुभव है कि सुख-दुःख ज्यादा देर टिकते नहीं हैं, इनका आधार मन भी सदा अपने रंग-ढंग बदलता रहता है. यदि कोई इस मन की मानकर चलेगा तो सत्य से दूर ही रहेगा. शास्त्र और गुरूजन जो मार्ग दिखाते हैं, उस साधना के मार्ग पर चलकर ही हम मन के पार जाकर उसके आधार की झलक पाते हैं. यह सत्य से हमारा प्रथम मिलन होता है. जब इस ज्ञान का जीवन में प्रयोग आरम्भ हो जाता है, तब इसमें हमारी स्थिति दृढ़ होने लगती है और जीवन से असत्य का लोप होने लगता है.

Saturday, July 20, 2019

बार-बार खुद को पाना है



जीवन एक अनवरत बहती धारा की तरह एक चक्र में प्रवाहित हो रहा है. सागर में मिलने की लालसा लिए नदी दौड़ती जाती है पर वायु उसे आकाश को लौटा देता है, बादलों के रूप में बरसती है तो फिर नदी बनकर एक यात्रा पर निकल जाती है. सागर में खुद को खोकर बादलों के द्वारा पुनः खुद को पाना क्या यही नदी का लक्ष्य नहीं है. मन रूपी धारा भी आत्मा के सागर में लौटना चाहती  है, सुख-दुःख के दो किनारों के मध्य से बहती हुई स्वयं तक लौटने की उसकी यात्रा ही तो जीवन है. कोई स्वयं तक पहुँच भी जाता है तो किसी न किसी कामना की वायु उसे पुनः एक नयी यात्रा पर ले जाती है. इस तरह न जाने कितने ही जन्मों में मानव ने संतों के चरणों में बैठकर आत्मअनुभव किया होगा, किंतु इस धरती का आकर्षण उसे हर बार मुक्ति के द्वार से यहीं लौटा लाया होगा. आत्मा में स्वयं को खोकर जगत में खुद को पाने की यात्रा क्या यही तो जीवन का रहस्य नहीं है ?


Tuesday, July 16, 2019

सदा वसंत रहे जब मन में



एक जीवन है हम सबका जीवन, यानि सामान्य जीवन, जिसमें कभी ख़ुशी है कभी गम हैं. इस जीवन में जिन खुशियों को फूल समझकर हमने ही चुना था वे ही अपने पीछे गम के कांटे छुपाये हैं यह बात देर से पता चलती है. इस जीवन में छले जाने के अवसर हर कदम पर हैं, क्योंकि यहाँ असलियत को छुपाया जाता है, जो नहीं है उसे ही दिखाया जाता है. एक और जीवन है ज्ञानीजन का जीवन, जिसमें सदा वसंत ही है, जिसमें खुशियों के फूलों को चुनने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि वे स्वयं ही फूल बन जाते हैं, ऐसे फूल जिनमें कोई कांटे नहीं होते. उस जीवन में कोई छल नहीं होता क्योंकि भीतर और बाहर वे एक से हैं. वे वास्तविकता को जान कर सहज रहना सीख जाते हैं, कोई दिखावा, दम्भ या पाखंड, बनावट उन्हें छू भी नहीं पाती. जीवन जैसा उन्हें मिलता है उसे वैसा ही स्वीकार करने की क्षमता वे अपने अंदर जगा लेते हैं. वे वर्तमान में रहते हैं और अतीत के भूत से पीछा छुड़ा लेते हैं. भविष्य के दिवास्वप्न भी उन्हें नहीं लुभाते क्योंकि जीवन की क्षण भंगुरता का उन्हें हर समय बोध रहता है, जिस कल के लिए हम संग्रह करते हैं, और वर्तमान में कष्ट उठाते हैं, उस कल को वे कल पर ही छोड़ देते हैं. वह कल भी उनके लिए इस वर्तमान की तरह सुंदर ही होगा ऐसा उन्हें यकीन रहता है. ऐसे ही जीवन से हमारा परिचय कराने के लिए परमात्मा ने गुरू और शास्त्र का निर्माण किया हैं.

गुरू मेरी पूजा गुरू भगवंता



आज गुरू पूर्णिमा है, अतीत में जितने भी गुरू हुए, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन. शिशु का जब जन्म होता है, माता उसकी पहली गुरू होती है. उसके बाद पिता उसे आचार्य के पास ले जाता है, शिक्षा प्राप्त करने तक सभी शिक्षक गण उसके गुरु होते हैं. जीविका अर्जन करने के लिए यह शिक्षा आवश्यक है लेकिन जगत में किस प्रकार दुखों से मुक्त हुआ जा सकता है, जीवन को उन्नत कैसे बनाया जा सकता है, इन प्रश्नों का हल कोई सद्गुरू ही दे सकता है. इस निरंतर बदलते हुए संसार में किसका आश्रय लेकर मनुष्य अपने भीतर स्थिरता का अनुभव कर सकता है, इसका ज्ञान भी गुरू ही देता है. जगत का आधार क्या है ? इस जगत में मानव की भूमिका क्या है ? उसे शोक और मोह से कैसे बचना है ? इन सब सवालों का जवाब भी यदि कहीं मिल सकता है तो वह गुरू का सत्संग ही है. जिनके जीवन में गुरू का ज्ञान फलीभूत हुआ है वे जिस संतोष और सुख का अनुभव सहज ही करते हैं वैसा संतोष जगत की किसी परिस्थिति या वस्तु से प्राप्त नहीं किया जा सकता. गुरू के प्रति श्रद्धा ही हमें वह पात्रता प्रदान करती है कि हम उसके ज्ञान के अधिकारी बनें.

Monday, July 15, 2019

अंतर्मन के द्वार खोल दें



इस वक्त जो कुछ भी हमारे पास है, वह जरूरत से ज्यादा है, यदि यह ख्याल मन में आता है तो भीतर संतोष जगता है. क्या यह सही नहीं है कि कभी जिन बातों की हमने कामना की थी, उनमें से ज्यादातर पूरी हो गयी हैं. मन में कृतज्ञता की भावना लाते ही जैसे कुछ पिघलने लगता है और सारा भारीपन यदि कोई रहा हो तो गल जाता है. जब हम अपने चारों ओर नजर दौड़ाते हैं तो जल धाराओं को बहाता हुआ विशाल आसमान जैसे यह संदेश देता नजर आता है कि भीतर कुछ भी बचाकर न रखें, सब यहीं से मिला है और सब यहीं छोड़कर जाना है, तो क्यों न सहज ही अंतर का वह द्वार खोल दें जिसके पीछे परम का अथाह खजाना छिपा है. हरीतिमा युक्त धरती भी अपने भीतर से जैसे सब कुछ उलीच देना चाहती है. जीवन प्रतिपल दे रहा है और हमें उसे अपने द्वारा बहने का मार्ग देना है.

Saturday, July 13, 2019

अंतर्मन जब कहीं न उलझे



प्रशांत चित्त ही ब्रह्म का अनुभव कर सकता है. जैसे लालटेन का शीशा प्रकाश को बढ़ा देता है, वैसे ही चित्त आत्मा को शक्ति को बढ़ाकर बाहर भेजता है. शीशा जितना स्वच्छ होगा, प्रकाश उतना ही बाहर आएगा. चित्त यदि पूर्ण रूप से संतुष्ट हो, उसे कोई कामना ही न हो चित सुलझा हुआ हो, उसमें कोई द्वंद्व न हो, तो वह शांत रह सकता है. मन यदि कहीं भी उलझा हुआ है तो वह साधना में आगे नहीं बढ़ सकता. शांत मन में चिति शक्ति आत्म शक्ति को विस्तृत करके बाहर प्रकाशित कर देती है. छोटी-छोटी बातों पर जब मन प्रतिक्रिया करना छोड़ देता है तो वह शांत हो जाता है. ठहरा हुआ मन एक शांत झील की तरह होता है, जिसमें आत्मा झलकती है. साधना की गहराई में जाना हो तो मन शांत होना चाहिए.

Thursday, July 11, 2019

इस पल में जो जाग गया


जीवन की परिभाषाएं कितनी ही देते चलो, जीवन है कि चूकता ही नहीं, हाथ में आता ही नहीं. नित नये रंग बिखेरे चला जाता है. जीवन के रंग अनंत हैं और इसके ढंग भी अनंत हैं. इसे किसी खांचे में फिट नहीं किया जा सकता. यदि कोई सोचे कि विकासशील देश के किसी सुदूर गाँव में ही असली जीवन है तो वह भी आधा सच होगा और यदि कोई कहे विकसित देशों में ही सच्चा जीवन है तो वह भी अर्धसत्य होगा. जीवन के मर्म को जाने बिना हम कुछ भी करें, कहीं भी रहें एक तलाश भीतर चलती ही रहती है. यही माया है. सर्व सुविधा सम्पन्न होकर भी कुछ यहाँ अभाव का अनुभव करते हैं और कुछ न होते हुए भी अलमस्त देखे जाते हैं. इसका अर्थ हुआ जो भी जहाँ है वहाँ यदि थोड़ा गहराई से देखे कि जिस जीवन को ढूँढने में हम सारा श्रम लगा रहे हैं, वह तो एक दिन हाथ से फिसल जाने वाला है, और जो हमारे पास इस समय है वह अमूल्य है. वर्तमान के क्षण में जिसने जीवन से मुलाकात नहीं की वह भविष्य में कभी करेगा, ऐसी कल्पना दिवास्वप्न के सिवा कुछ भी नहीं.

Wednesday, July 10, 2019

पल पल सजग रहे जो मन



मन सदा ही परिचित मार्गों पर जाना चाहता है. नयापन उसे डराता है अथवा तो उसकी उस जड़ता को तोड़ता है, जिसकी मन को आदत हो गयी है. किसी दार्शनिक ने कहा है, मनुष्य आदतों का पुतला है. हम बहुत कुछ केवल स्वभाव वश ही करते हैं, जो आदतें हमारे लिए हानिकारक भी हैं, जिनका हमें ज्ञान भी है, फिर भी हम उन्हें त्यागना नहीं चाहते. जो आदतें अच्छी हैं उनको भी हम यदि असजग होकर दोहराते रहते हैं तो जितना लाभ मिलना चाहिए उतना नहीं ले पाते. जैसे किसी को यदि सुबह उठकर गीता पाठ करने का नियम है और वह बिना भाव के या अर्थ समझे ही उसका नित्य पाठ करता रहे, तो यह अच्छी आदत होते हुए भी उसके जीवन में विशेष परिवर्तन नहीं ला सकती. हम जो भी करते हैं उसकी पूरी जिम्मेदारी हमारी है, उसका जो भी फल मिलेगा उसका भागीदार हमें ही होना है. असजगता हमें अपने शुद्ध स्वरूप से दूर ले जाती है, अथवा तो जब भी हम अपने मूल स्वभाव से दूर होते हैं, असजग होते हैं. योग का अर्थ है, स्वयं के शुद्ध स्वरूप से जुड़े रहना, इसी योग की साधना हमें करनी है.

Monday, July 8, 2019

आशीषें ही जो देते हैं



'मातृ देवो भव', 'पितृ देवो भव', 'गुरू देवो भव' और 'अतिथि देवो भव' का अतुलित संदेश वेदों में दिया गया है. गुरू में दिव्यता का अनुभव हम कर सकते हैं, क्योंकि वह ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, अतिथि में भी हम दिव्यता की धारणा कर सकते हैं, किंतु जिसने माँ और पिता में दिव्यता के दर्शन कर लिए उसके जीवन में सहजता अपने आप आ जाती है. शिशु जब छोटा होता है वह पूरी तरह से माँ-पिता पर व परिवार पर निर्भर होता है, जैसा वातावरण और शिक्षा उसे मिलती है, उसके मन पर वैसी ही छाप पड़ने लगती है, पूर्व के संस्कार भी समुचित वातावरण पाकर ही विकसित होते हैं. इसमें माता-पिता की बड़ी भूमिका है. जो पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान करना भूल जाती है, वह अपने भविष्य के लिए अंधकार का निर्माण ही कर रही है. आयु में अथवा पद में चाहे कोई कितना भी बड़ा हो जाये, जब तक सिर पर कोई स्नेह भरा हाथ हो, तब तक एक रसधार भीतर बहती है. निस्वार्थ प्रेम का जो वरदान माँ-पिता से मिलता है, उसका कोई विकल्प नहीं है.   


Sunday, July 7, 2019

शक्ति जगे भीतर जब पावन



हमें सत्य को पाना नहीं है, उसे अपने माध्यम से प्रकट होने का अवसर देना है. परमात्मा को देखना नहीं है उसके गुणों को स्वयं के भीतर पनपने का अवसर देना है. आदिम युग में मानव ने जब परमात्मा की ओर पहली-पहली बार निहारा होगा तो उस अदृश्य शक्ति से सहायता की गुहार लगाई होगी, किंतु अब इतने बुद्धों के अवतरण के बाद परमात्मा के प्रति उसका दृष्टिकोण परिपक्व हो गया है. वह परमात्मा को आदर्श मानकर स्वयं को उसके लिए उपलब्ध पात्र बनाना चाहता है, वह जान गया है परमात्मा मानवीय सम्भावनाओं की अंतिम परिणति है. कभी कोई कृष्ण कोई राम, मानव होकर भी उस ऊँचाई को प्राप्त कर सकता है तो इसका अर्थ है हर मानव में यह शक्ति निहित है. उस शक्ति को अपने भीतर जगाना और उसे देह, मन, बुद्धि के माध्यम से व्यक्त होने का अवसर देना यही आध्यात्मिकता है.

Thursday, July 4, 2019

बीती ताहि बिसार दे



अतीत की बातों को हमारा लेकर दुखी होना वैसा ही है जैसे कोई वर्षों पूर्व आयी आँधी के द्वारा फैलायी गंदगी को आज बाल्टियाँ भर-भर कर धोये. पानी व्यर्थ जायेगा, श्रम भी व्यर्थ जायेगा और वह गंदगी जो अब है ही नहीं भला साफ कैसे हो सकती है. मन हर दिन नया हो रहा है, रोज जो भोजन हम ग्रहण करते हैं उसके सूक्ष्म संश से ही मन बनता है, जो श्वास हम आज ग्रहण कर रहे हैं वही हमें ऊर्जा से भर रही है, जो आज मिला है वह आज के लिए है, इस ऊर्जा को हम व्यर्थ ही पुरानी बातों को याद करने में लगते हैं फिर दुखी भी होते हैं. स्मृतियाँ सुखद हों तब भी उन्हें ज्यादा तूल देना ठीक नहीं, बल्कि आज को एक सुखद स्मृति बनाने के लिए ऊर्जा का सदुपयोग करना उचित है. सबसे प्रमुख बात है कि सारे अनुभव वर्तमान के क्षण में ही होते हैं, अतीत में जो भी सुखद हुआ, वह उस समय के लिए वर्तमान में ही घटा था, आज एक नये अनुभव के लिए स्वयं को खाली रखना है, वरना कोल्हू के बैल की तरह अतीत लौट-लौट कर हमारे सम्मुख वर्तमान की शक्ल में आता रहेगा, क्योंकि हम उसे भूलना ही नहीं चाह रहे हैं.

Tuesday, July 2, 2019

एक यात्रा है अनंत की



भगवद् गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को अभ्यास और वैराग्य का उपदेश देते हैं. अभ्यास समर्पण का और वैराग्य सांसारिक सुखों से. हमारा समर्पण बार-बार खंडित हो जाता है, और जगत से वैराग्य भी नहीं सधता. जरा सी प्रतिकूलता आते ही भीतर संदेह भर जाता है, अल्प सुख के लिए हम जगत के पीछे निकल पड़ते हैं. गुरु कहते हैं, हजार बार भी टूटे फिर भी समर्पण किये बिना अंतर की शांति को अनुभव नहीं किया जा सकता. इसी तरह एक दिन साधक सुख के पीछे जाना छोड़ देता है क्योंकि उसका सुख बार-बार दुःख में बदल गया है. वह असत्य की राह भी त्यागता है क्योंकि उस पथ पर कांटे ही कांटे मिले. अनुभवों से सीखकर ही हम आगे बढ़ते हैं. साधना का पथ एक अंतहीन यात्रा पर हमें ले जाता है. परमात्मा अनंत है, हमारे सारे प्रयास अल्प हैं, किंतु संतों का जीवन देखकर भीतर भरोसा जगता है, वे भी इसी तरह पग-पग चल कर ही इस अनंत शांति और आनंद  के भागी हुए हैं.

शुभता का जब कुसुम खिलेगा



यदि कोई सत्य की राह में चलता है तो उसे अस्तित्त्व से अपने आप मार्ग मिलने लगता है. यदि कोई सिर बन्दगी में झुकता है तो आशीर्वाद उसी तरह अपने आप बरसने लगते हैं, जैसे खाली जगह देखकर हवा कहीं से चली ही आती है. इस सृष्टि में हरेक के लिए अवसर है. इस जीवन से हम क्या चाहते हैं, यह भर हमें तय करना है. हृदय की गहराई से निकली हर चाह अपनी पूर्ति के लिए ऊर्जा साथ लेकर ही उत्पन्न होती है. जैसे एक बीज में फूल बनकर खिलने का पूरा सामर्थ्य है वैसे ही हर शुभ इच्छा एक बीज ही है जो एक न एक दिन खिलने वाली है. हमारा आज वही तो है जो कल हमने चाहा था, आने वाला कल भी हमें एक खाली कैनवास की तरह मिला है, जिसमें रंग भरने की हमें पूरी आजादी है.

Friday, June 28, 2019

बने सार्थक जीवन अपना



चेतना अपने आप में पूर्ण है. जब उसमें जगत का ज्ञान होता है, वह दो में बंट जाती है. जहाँ दो होते हैं, इच्छा का जन्म होता है, और फिर उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए कर्म होते हैं. कर्म का संस्कार पड़ता है, और कर्मफल मिलता है. जिससे पुनः-पुनः कर्म होते हैं. कर्मों की एक श्रंखला बनती जाती है. 'ध्यान' में हम पहले सब कर्म त्याग देते हैं. फिर सब इच्छाओं का विसर्जन कर देते हैं. भीतर केवल स्वयं ही बचता है, जब वह भी विलीन हो जाये, अर्थात अपने होने का बोध भी खो जाये तब शुद्ध चैतन्य प्रकट होता है. लेकिन उसको देखने वाला वहाँ कोई नहीं है, इसीलिए कहते हैं, भगवान को कोई देख नहीं सकता. समाधि से बाहर आने के बाद संतों ने अनुमान से ही उसका वर्णन किया है. साधक के लिए पहले स्वयं को जानना ही पर्याप्त है. इससे इच्छाओं पर उसका नियन्त्रण हो जाता है. व्यर्थ के कर्म अपने आप छूट जाते हैं. सार्थक जीवन में घटने लगता है. निष्काम कर्म बंधन पैदा नहीं करते और न ही उनका कोई फल ही साधक को मिलता है.

Thursday, June 27, 2019

स्वयं को जान लिया है जिसने



संत और शास्त्र कहते हैं, 'स्वयं को जानो', इसके पीछे क्या कारण है ? अभी हम स्वयं को देह मानते हैं, इस कारण जरा और मृत्यु का भय कभी छूटता ही नहीं. देह वृद्ध होगी और एक न एक दिन उसे त्यागना होगा. यदि कोई स्वयं को प्राण ऊर्जा मानता है, तो उसे भूख व प्यास सदा सताते रहेंगे. समय पर या पसंद का भोजन न मिले तो कितने लोग संतुलन ही खो देते हैं. भोजन के प्रति आसक्ति का कारण है प्राणमय कोष में निवास. कोई-कोई इससे आगे बढ़ जाते हैं और मन में रहने लगते हैं, कलाकार, कवि, लेखक उनका मन ही उनका संसार होता है. पर मन कभी शोक और मोह से मुक्त होता ही नहीं. अतीत का शोक और भविष्य के प्रति मोह उन्हें चैन से कहाँ रहने देता है. जब हम स्वयं को शुद्ध चेतन स्वरूप में जान जाते हैं, जरा-मृत्यु, भूख-प्यास, शोक-मोह सभी से परे जा सकते हैं. अपने भीतर एक शांत, आनन्दमयी स्थिति को अखंड रूप से अनुभव कर सकते हैं, तब भी देह अशक्त होगी, इसका अंत भी होगा पर इसका भय नहीं होगा. भूख लगने पर भोजन भी करेंगे और प्यास लगने पर जल भी ग्रहण करेंगे पर इनके प्रति आसक्ति नहीं होगी. समुचित आहार स्वस्थ रहने में भी सहायक होगा. विषाद का सदा के लिए अंत हो जायेगा और मोह की जगह निस्वार्थ प्रेम सहज ही प्रकट होगा. इसीलिए शास्त्र कहते हैं, स्वयं को जानना खुद के लिए ही सच्चा सौदा है.

Wednesday, June 26, 2019

इक मुस्कान छिपी है भीतर



प्रकृति की ओर नजर डालें तो परमात्मा की असीम कृपा का बोध होता है. पंचभूत अहर्निश बांट रहे हैं. सूर्य अपनी ऊष्मा से हमारी पृथ्वी को जीवन के योग्य बना रहा है, पृथ्वी निरंतर भ्रमण करती हुई स्वयं को उसकी किरणें ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत कर रही है. हवाएं बादलों का निर्माण करती हैं, वृक्ष अन्न प्रदान करते हैं. विज्ञान के अनुसार मानव के इस सृष्टि पर आने से पूर्व ही यह सारा आयोजन प्रकृति द्वारा कर दिया गया था. परमात्मा ने स्वयं को पर्वतों, वनस्पति जगत, पंछियों और पशुओं के द्वारा अभिव्यक्त करके अंत में मानव के रूप में अभिव्यक्त किया. मानव के आनंद के लिए ही विविधरंगी फूलों और फलों का सृजन हुआ होगा. यदि कोई अपने भीतर जाकर स्वयं से मिले और फिर पूछे, यहाँ किस लिए आये हो, तो सिवा एक मुस्कान के कोई उत्तर नहीं मिलेगा. संत कहते हैं, मानव का इस जगत में आने का उद्देश्य स्वयं के भीतर उस आनंद स्वरूप परमात्मा को अनुभव करना और फिर बाहर उस आनंद को लुटाना, इसके सिवा और क्या हो सकता है.  

तू ही जाननहार



ध्यान की गहराई में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी खो जाती है. जानने वाला ही जानने का विषय बन जाता है, अंत में केवल ज्ञान ही शेष रह जाता है. इस ज्ञान का कारण कभी ज्ञेय नहीं होता. जैसे तीव्र गति से दौड़ते समय धावक को अपना बोध नहीं रहता, वहाँ केवल दौड़ना होता है. नाचते समय नर्तक खो जाता है, केवल नर्तन ही रहता है. शुद्ध ज्ञान ही परमात्मा का स्वरूप है. जिसका कोई कारण नहीं, बल्कि वही सबका कारण है.

Monday, June 24, 2019

परहित सरिस धर्म नहीं भाई



परोपकार का अर्थ है, दूसरों के जीवन को आसान बनाना. जरूरत पड़ने पर किसी का हाथ बंटा देना. यदि खुद में सामर्थ्य है तो किसी की मदद करने का अवसर आने पर पीछे न हटना. यह सब करते हुए यदि भीतर यह भाव जगाया कि हम अन्यों से श्रेष्ठ हैं, हम सेवा करते हैं, तो यह परोपकार नहीं कहा जायेगा. इसमें अपनी हानि छिपी है, जो काम स्वयं के लिए ही लाभप्रद नहीं है वह दूसरों के लिए भी आनंद का सृजन नहीं कर सकता. सहयोग करके हमें किसी के स्वाभिमान, सम्मान तथा निजता का हनन नहीं करना है और न ही स्वयं की किसी से तुलना करनी है. यदि मन तृप्त है, परम से जुड़ा हुआ है तो उसमें से सहज ही मैत्री भाव जगता है. इसी भाव से युक्त होकर संत जगत में कार्य करते हैं, जिन्हें हम परोपकार कहते हैं.

Sunday, June 23, 2019

एकोहं बहुस्याम



वेदों में कहा गया है, ब्रह्म एक था, उसमें इच्छा हुई, एक से अनेक होने की, और इस सृष्टि का निर्माण हुआ. किंतु अनेक होने के बाद भी उसके एकत्व में कोई अंतर नहीं पड़ा. जैसे कोई बीज एक होता है, किंतु समय पाकर एक से अनेक हो जाता है. पहले अंकुर फूटता है, फिर तना, डालियाँ, पत्ते, फूल, फल और अंत में बीज रूप में वह अनेक हो जाता है, किंतु हर बीज उस पूर्व बीज के ही समान है. उसमें भी अनेक होने की पूरी सम्भावनाएं हैं. जैसे अंकुर, तना, या डालियाँ, फूल आदि सभी उस बीज में से ही निकले हैं, पर वे बीज नहीं हैं, इसी प्रकार ब्रह्म से ही जड़ जगत, वृक्ष, पशु, पंछी आदि हुए हैं पर वे ब्रह्म के एकत्व का अनुभव नहीं कर सकते, केवल मानव को ही यह सामर्थ्य है कि वह फूल की तरह खिले, फिर उसमें भक्ति व ज्ञान के फल लगें और उसके भीतर ब्रह्म रूपी बीज का निर्माण हो सके.

Friday, June 21, 2019

मुक्ति का जो मार्ग चाहता



जीवन की भव्यता और दिव्यता को समझना हो तो योग ही एकमात्र साधन है. योग ही हमें अपने पथ पर अचल रखता है. आत्मा को अल्प से सुख नहीं मिल सकता, वह अनंत से ही संतुष्ट हो सकती है. संस्कारों को दग्ध बीज किये बिना अनंत में टिका नहीं जा सकता. संस्कारों को दग्ध करने के लिए योग को अपनाना है. योगी का अंतिम गन्तव्य सन्यास अर्थात त्याग है. जो विवेक और वैराग्य का महत्व जान ले वही सन्यासी है. जो अपने भीतर के दोषों का, दुर्बलताओं का त्याग कर सकता है वही आत्मबोध प्राप्त कर सकता है. भीतर द्वंद्व हैं, लोभ है, वासना और कामना है. जो आत्मा को जंजीरों से कैद रखती है. योग है इन सबसे मुक्ति का मार्ग !

योगी बनें उपयोगी बनें



जीवन शब्द को यदि दो शब्दों में तोड़ें तो मिलता है जीव और न, ऐसे मन को दो वर्णों में तोड़ने पर मिलता है म और न, जीव का अर्थ है व्यक्तिगत आत्मा, म का अर्थ भी वही है 'मैं' यानि एक व्यक्ति, जब दोनों 'न' हो जाते हैं तब समष्टिगत के साथ योग घटता है. इसका अर्थ हुआ जब जीव न बचे तब असली जीवन है और जब अहंकार न रहे तब असली मन है. योग का लक्ष्य यही है. देह, प्राण, मन, बुद्धि, स्मृति और अहंकार को साधते हुए इन सबके पार ले जाता है योग. इसका आरम्भिक आसन है, लेकिन उससे भी पूर्व पंच यमों और नियमों का ज्ञान भी आवश्यक है. सत्य का पालन, ज्यादा संग्रह न करना, मन की समता, किसी अन्य की संपदा का लोभ न होना, शुचिता, संतोष आदि इनमें आते हैं. इसके बाद प्राणों का निग्रह प्राणायाम के द्वारा किया जाता है. देह स्वस्थ रहे, मन शांत रहे, बुद्धि में स्पष्टता हो तभी योग जीवन में प्रस्फुटित होता है. इसके बाद व्यक्ति पहले जैसा संकुचित नहीं रह जाता, वह जगत के साथ एक मैत्री का अनुभव सहज ही करता है.

Thursday, June 20, 2019

जीवन में जब योग घटे



कल योग दिवस है. देश और दुनिया भर में इसकी तैयारियां हो रही हैं. योग के अनगिनत लाभ जो पहले कुछ ही लोगों तक सीमित थे आज सबके लिए उपलब्ध हैं. योग की बहती गंगा में जो भी चाहे डुबकी लगा ले और अपने लिए आवश्यक वरदान को पा ले. वाकई योग कल्पतरु की तरह है, इसके नीचे बैठ कर आप जो भी पाना चाहते हैं, मिल सकता है. शारीरिक स्वास्थ्य व सौन्दर्य हो या मानसिक सबलता और स्थिरता या आत्मिक सुख और शांति, ये सभी नियमित योग साधना करने वाले को सहज ही प्राप्त होते हैं. योग एक व्यायाम नहीं एक संतुलित जीवनचर्या का नाम है. बचपन से ही यदि बच्चों को योग सिखाया जाये तो वे भावनात्मक रूप से कमजोर नहीं रहेंगे, अपने भीतर एक शक्ति का अहसास उन्हें जीवन की किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए प्रेरित करता रहेगा. भारत की इस अमूल्य संपदा का जितना अधिक प्रसार व प्रचार दुनिया में होगा, लोग उतना अधिक आत्मीयता का अनुभव करेंगे और 'वसुधैव कुटुम्बकम' का ऋषियों का स्वप्न साकार होता नजर आएगा.

Wednesday, June 19, 2019

वही व्यक्त होता मानव से



हमारे जीवन का हर पल कितना कीमती है, इसका अनुभव हमें नहीं हो पाता. जीवन किसी भी क्षण जा सकता है, खो सकता है, जब तक जीवन है तभी तक हम सत्य को उपलब्ध कर सकते हैं. हम अपने जीवन से संतुष्ट हैं या नहीं इसका उत्तर ही हमें यह बता देगा कि हम सत्य की राह पर हैं या नहीं. हमारा मन चेतना के उच्च स्तर का अनुभव करके ही तृप्त होता है. जब तक हम तुच्छ से सुख लेते रहेंगे भीतर तृप्ति का अनुभव नहीं कर पायेंगे. चेतना विकसित होती है जब उसकी शक्तियों का पूर्ण उपयोग हो सके. जितना-जितना हम अपनी शक्तियों का उपयोग करते हैं, अस्तित्त्व हमें भरता जाता है. यह जगत का नियम है कि यहाँ खाली स्थान तत्क्षण भर दिया जाता है, पृथ्वी के गड्ढे मिट्टी से और निर्वात हवा से अपने आप भर जाते हैं. चेतना स्वयं को देह व मन के द्वारा व्यक्त करती है. प्रेम, आनंद, शांति, शक्ति, सुख, ज्ञान और पवित्रता उसके लक्षण हैं. जब हम स्वयं के द्वारा इनको प्रकट होने देते हैं तो यह स्वतः और पुष्ट होती जाती है.

Monday, June 17, 2019

सभी रोग जब मिट जायेंगे



बुद्ध कहते हैं, आरोग्य सबसे बड़ा लाभ है, आरोग्य का अर्थ है सारे रोगों से मुक्ति, देह, मन व आत्मा, सभी के रोगों से मुक्ति हो तभी आरोग्य लाभ हुआ मानना चाहिए. देह के रोग हैं जड़ता और आलस्य. मन के रोग हैं व्यर्थ का चिन्तन और पंच विकार. आत्मा का रोग है स्वयं को न जानना, व स्वयं को देह या मन ही जानना. सभी रोगों का केंद्र है अहंकार. अहंकार सिखाता है जब काम करने के लिए और लोग हैं तो क्यों न हम आराम से ठाठ करें. अहंकार मन में हो तभी अतीत के सुख-दुःख याद आते हैं तथा भविष्य के सुंदर सपने मन सजाता रहता है. अहंकार स्वयं ही आत्मा का स्थान लेना चाहता है, इसलिए वह उसे अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान नहीं होने देता. जब सब रोग गिर जाते हैं तब अहंकार भी गिर जाता है. तब जीवन में परम संतोष आता है.

Sunday, June 16, 2019

योग रखे निरोग



अनादि काल से सृष्टि का आयोजन चल रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा. हमारा जीवन इसकी तुलना में कितना छोटा है, साठ, सत्तर, अस्सी या अधिकम से अधिक सौ वर्ष हम जीने वाले हैं. हमारे जन्म से पहले भी दुनिया थी, अच्छी-खासी चल रही थी, और हमारे जाने के बाद भी इसी तरह चलती रहेगी. कुछ लोग कुछ समय तक हमें याद करेंगे, लेकिन उससे हमें कोई अंतर नहीं पड़ेगा. संत कहते हैं, इस क्षण भंगुर जीवन में क्या हम दुखी होने के लिए आये हैं, अस्तित्त्व में हर तरफ उल्लास है, उसकी मंशा हमें आनंदित करने की तो लगती है, उदास करने की नहीं. नीला आकाश, हरे मैदान, रंग-बिरंगे फूल, चहकते हुए पंछी, फुदकते हुए शावक और वर्षा की बौछारें इनका सान्निध्य हमें सहज ही मिल सकता है, पर हम इनकी ओर ध्यान ही नहीं देते. हम वही कार्य करते हैं जिसका कोई प्रत्यक्ष भौतिक लाभ होता दिखाई देता है. सात्विक आहार, समुचित योग और व्यायाम, सादगी और सरलता मानव को स्वस्थ रखने का बिना पैसे का नुस्खा है. आज पचास वर्ष के ऊपर शायद ही कोई हो जिसे किसी न किसी प्रकार की नियमित दवाई की जरूरत न पड़ती हो. इस योग दिवस पर हम सभी मिलकर यह संकल्प लें तो कितना अच्छा हो, कि नियमित योग करेंगे और करवाएंगे, भारत को एक स्वस्थ राष्ट्र बनायेंगे.