Monday, September 23, 2019

जिस अंतर में प्रेम जगा हो


हम सबने सुना है परमात्मा प्रेम है, इसका अर्थ हुआ जो नास्तिक हैं उनके जीवन में प्रेम नहीं है, पर ऐसा तो जान नहीं पड़ता. प्रेम तो जीव-जन्तुओं में भी होता है, हर मानव का पोषण प्रेम से ही होता है. परमात्मा जिस प्रेम से बना है, वह खालिस है, शुद्ध है, ऐसा स्वर्ण है जिसमें कोई मिलावट नहीं है, और संसार में जिसे हम प्रेम कहते हैं वह मोह, क्रोध, ईर्ष्या जैसे अवगुणों से मिश्रित है. परमात्मा सबसे समान प्रेम करता है, हम केवल अपनों को ही करते हैं, अपनों की परिभाषा किसी के लिए सारा जगत होती है, किसी के लिए उसका देश होती है, किसी के लिए मात्र उसका परिवार होती है तो किसी के लिए केवल उसकी देह और मन ही होती है. परमात्मा जिस प्रेम का नाम है वह अनंत है, उसमें सरलता है, सहजता है. वह सदा है, प्रतिपल उसके बढ़ने का अनुभव होता है. संसार का प्रेम घटता-बढ़ता रहता है. जिसने अपने मन को इतना विशाल बना लिया है कि उसमें सब कुछ समा जाये वही कोई सुहृद उस परम प्रेम का अनुभव करता है.  

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