यह दुनिया मानो एक
रंगशाला है, जिसमें अलग-अलग देश अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं, छोटे देश, बड़े देश,
बीच के देश. कुछ युद्ध के लिए लालायित देश, कुछ शांति प्रिय देश....सभी की
अपनी-अपनी भूमिका है जिसे वह निभा रहे हैं. निर्देशक कहीं नजर तो नहीं आता पर वह
है जरूर, सभी सोचते हैं जिसमें उनका लाभ हो ऐसे कदम उठायें, उसके लिए अन्य देशों
की हानि भी उन्हें मंजूर है. इस खेल-तमाशे में इतना जोश जनता के भीतर भर दिया जाता
है कि अक्सर वह अपना होश ही गंवा बैठती है. अनेक कष्टों का सामना भी वह कर लेती है
जब उसे राष्ट्रहित और धर्म के नाम पर भावनात्मक रूप से उकसाया जाता है. आज सारी
दुनिया में यह हो रहा है, न जाने कितनी बार मानव सभ्यता अपने विकास की चरम सीमा पर
पहुँची पर इसी उन्माद के कारण उसका विनाश हुआ. यहाँ भीड़ को प्रेरित करके कुछ भी
कराया जा सकता है, व्यक्ति की बात कौन सुनता है. जब कोई एक देश, दूसरे के तेल
संस्थानों पर बेवजह हमला कर देता है, और कोई इसकी जिम्मेदारी भी नहीं लेता, तो यही
लगता है कि मानव की बुद्धिहीनता की कोई सीमा नहीं है. यहाँ ज्ञान भी अनंत है और
अज्ञान भी, यहाँ एक ही सम्प्रदाय के लोग आपस में तो लड़ते रहते हैं पर दूसरे सम्प्रदाय
के खिलाफ बोलने से भी गुरेज नहीं करते. संत
कहते हैं, सम्प्रदाय छिलका है धर्म भीतर का फल है, पर ये छिलके पर ही अटके हुए हैं,
वास्तविक धर्म से तो इनका अभी वास्ता ही नहीं पड़ा शायद इसी को हमारे शास्त्रों में
लीला कहा गया है.
बहुत बहुत आभार !
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