जीवन जितना सरल है
उतना ही जटिल भी. जिसने यह राज समझ लिया वह सरलता और जटिलता दोनों से ऊपर उठ जाता
है. जिस क्षण में जीवन जैसा मिलता है, उसे वह वैसा ही स्वीकार करता है. वन में जहरीले
वृक्ष भी हैं और रसीले भी, गुलाब में कंटक भी हैं और फूल भी, यदि हम एक को
स्वीकारते हैं और दूसरे को अस्वीकारते हैं तो मन सदा एक संघर्ष की स्थिति में ही
बना रहता है. ध्यान में जाने का पहला मन्त्र है मन को सभी धारणाओं से मुक्त कर
लेना. जो जैसा है वैसा ही स्वीकार कर लेना. सभी द्वन्द्वों के साक्षी बनकर ही पूर्ण
विश्राम का अनुभव किया जा सकता है. जहाँ कोई अपेक्षा नहीं, वहीं पूर्ण स्वतन्त्रता
है, स्वतन्त्रता हर आत्मा की आन्तरिक पुकार है. मन का सारा तनाव परतन्त्रता से ही
उत्पन्न होता है. हम कुछ चाहते हैं पर कर नहीं सकते, यही संघर्ष भीतर चलता रहता
है. हर इच्छा हमें गुलामी की ओर धकेलती है. जगत हमें कुछ देता है तो उसकी कीमत भी
वसूलता है, यह चक्र न जाने कब से चल रहा है, संत और शास्त्र हमें एक नये जीवन की
झलक दिखाते हैं, जिसमें सहजता है, सरलता है आनंद है पर उसके विपरीत कुछ भी नहीं,
यहाँ पूर्ण स्वतन्त्रता है, यहाँ अनंत नीले नभ की निर्मलता का अनुभव भी सहज ही किया
जा सकता है. यही ध्यान है, यही अपने स्वरूप में स्थित होना है.
बहुत बहुत आभार मीना जी !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (11-09-2019) को "मजहब की बुनियाद" (चर्चा अंक- 3455) पर भी होगी।--
ReplyDeleteसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
Delete