Thursday, September 19, 2019

ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या



संत कहते हैं, जैसे सागर, लहरें, फेन, बुदबुदे सभी पानी से बने हैं, पानी ही हैं, वैसे ही प्रकृति, ईश्वर, जीव सभी ब्रह्म से बने हैं, ब्रह्म ही हैं. जीव प्रकृति के तीन गुणों के अधीन रहकर कर्म करता है. यदि वह चाहे तो गुणातीत होकर ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर सकता है अथवा प्रकृति के साथ एक होकर सुख-दुःख के झूले में डोलता रह सकता है. जीव जब स्वयं को देह मानता है तो वह जरा-मरण के भय से मुक्त नहीं हो सकता, जैसे सागर यदि स्वयं को लहर माने तो वे पल-पल में मिटने वाली है. जीव यदि स्वयं को प्राण मानता है तो बुदबुदों की तरह उसका अस्तित्त्व आज है कल नहीं रहेगा. यदि मन मानता है तो सुख-दुःख से बच नहीं सकता, जैसे सागर यदि स्वयं को फेन माने तो नष्ट होगा ही. जीव यदि स्वयं को ब्रह्म मानता है तो उसका विनाश नहीं हो सकता, वह सदा एकरस, मुक्त, आनंदित रह सकता है, जैसे सागर यदि स्वयं को पानी ही माने तो उसका न कभी कुछ बना न ही बिगड़ा. जो सदा रहता है वह सत्य है, जो आज है कल नहीं रहेगा वह मिथ्या है, ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या का यही तात्पर्य है.

3 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-09-2019) को " इक मुठ्ठी उजाला "(चर्चा अंक- 3465) पर भी होगी।


    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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  2. बहुत बहुत आभार !

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  3. सारगर्भित सुंदर चर्चा।

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