परमात्मा की बनाई इस सुंदर सृष्टि
में हममें से हरेक को अपनी भूमिका निभानी है. एक ही सत्ता जड़ और चेतन के अनंत-अनंत
रूपों में प्रकट हो रही है. जहाँ सभी किसी न किसी तरह से एक-दूसरे पर निर्भर हैं. गणपति
की लीला भी यही बताती है, उनका वाहन मूषक है, और सर्प को उन्होंने अपने उदर पर
बाँधा हुआ है. मूषक सर्प का आहार है, सर्प मोर का आहार है, जो कार्तिकेय का वाहन
है. वन में सभी जीव एक-दूसरे पर आश्रित हैं. एक समर्थ मानव पर अनेकों जन आश्रित
होते हैं. जिस का हृदय सहज ही अन्यों की सहायता करने के लिए तत्पर हो जाता है, उसे
वैसी सामर्थ्य भी अस्तित्त्व द्वारा मिलने लगती है. साधना में योग, स्वाध्याय, ईश्वर
भक्ति के साथ-साथ सेवा का भी समान महत्व है, बल्कि साधना की सिद्धि के बाद तो सेवा
के अतिरिक्त कुछ करने को भी साधक के पास नहीं रह जाता. गणपति उत्सव में भी अन्य
सामाजिक उत्सवों व पर्वों की तरह समाज के अनगिनत जन किसी न किसी प्रकार की सेवा
देते हैं. अंतर इतना ही है, एक सिद्ध व्यक्ति इस सत्य को जानकर सेवा करता है कि अपने
हर सेवा कर्म में वह परमात्मा की ही सेवा कर रहा है. साधक अपने अहंकार को मिटाने
के लिए सेवा करता है और अज्ञानी व्यक्ति अहंकार के पोषण के लिए सेवा करता है.
वह इस छोटे से जीवन में यह समझ पाना ही दुष्कर कार्य है | साधुवाद आपको
ReplyDeleteस्वागत व आभार अजय जी !
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