जगत में दो ही तो
हैं एक नाम-रूप का अनंत विस्तार और दूसरा उसे जानने वाला, एक दृश्य दूसरा दृष्टा. हम
यदि दृश्य के साथ एक होकर स्वयं को देखते हैं तो सदा विचलित रहते हैं, क्योंकि
दृश्य सदा ही बदल रहा है. साथ ही जानने वाले से हम विलग ही रह जाते हैं. यदि
द्रष्टा के साथ एक होकर रहते हैं तो दृश्य हम पर प्रभाव नहीं डालता, पर दृश्य की
असलियत को हम जान लेते हैं. जो सदा बदलने वाला है उसकी मैत्री हमें कठिनाई में डाल
दे इसमें कैसा आश्चर्य?. जिसका स्वभाव ही अचल है उसका सान्निध्य पाना ही योग में
स्थित रहना है.
पर उल्टा हो रहा है इस दुनियां में।
ReplyDeleteउम्दा सीख
उल्टा हो रहा है तभी तो इतनी उहापोह है..स्वागत व आभार !
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