जगत है, जीव है, ईश्वर है और... परमात्मा है. जगत वह जिसमें
सारे अनुभव होते हैं, जीव वह जो अनुभव करता है, ईश्वर वह जिसने इस जगत की रचना की
है, और परमात्मा.. वह जो इन तीनों का आधार है, तीनों उससे ही निकले हैं और उस पर
ही टिके हैं. जीव जब तक अनुभवों में रस लेता रहेगा, सुख—दुःख का भागी बना रहेगा.
ईश्वर अनंत ज्ञान से परिपूर्ण सत्ता है. उसे सुख-दुःख नहीं व्याप्ता. जगत जड़ है
उसे भी सुख-दुःख नहीं होता. जीव जब इस खेल से ऊब जाता है तो भीतर जाता है, कारण तलाशता
है. ईश्वर उसे ज्ञान देता है. अब जगत भी उसे मित्रवत जान पड़ता है. इसके बाद परमात्मा
उससे दूर नहीं है.
Wednesday, February 28, 2018
Monday, February 26, 2018
मन ! तू अपना मूल पिछान
२६ फरवरी २०१८
मानव जब तक स्वयं को मात्र देह मानता है तो पग-पग पर भौतिक सीमाओं
का अनुभव उसे होता है. सुबह से शाम तक देह की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भी
उसे संतुष्टि का अनुभव नहीं होता. कोई न कोई रोग अथवा पीड़ा भी देह को सताती है.
जीव भाव में रहने पर अर्थात स्वयं को मन मानने पर भी वह स्वयं को बंधन मुक्त नहीं
देखता. मन का स्वभाव है चंचलता. मन में अनेक विरोधी कामनाओं के उत्पन्न होने के
कारण वह कभी द्वंद्व मुक्त भी नहीं हो पाता. परमात्मा की पूजा भक्ति आदि मन से ही
होती है किन्तु एकाग्रता का अभाव होने के कारण इसका प्रभाव क्षणिक ही रहता है. जब
तक साधक ध्यान के अभ्यास द्वारा मन के पार जाकर स्वयं को निराकार रूप में अनुभव
नहीं कर लेता उसका मन आकुल रहता है. एक बार अपने भीतर अचल, विराट स्थिति का अनुभव
उसे जीवन की हर परिस्थिति को सहज रूप से पार करने की क्षमता दे देता है.
Friday, February 23, 2018
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
२४ फरवरी २०१८
भगवद् गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं यदि कोई मात्र स्वयं को किसी कर्म का
कर्ता मानता है तो यह उसका अज्ञान है. किसी भी कार्य को सम्पन्न होने के लिए
अनुकूल संयोग जब तक उपस्थित न हों तब तक वह कार्य नहीं हो सकता. एक बीज को उगने के
लिए मिट्टी, हवा, पानी और हवा चाहिए, पर माली यदि कहे यह पौधा उसने उगाया है तो इस
बात में कितनी सच्चाई होगी. इसीलिए कर्म के बाद फल हमारे हाथ में हो नहीं सकता. फल
प्राप्ति भी किसी न किसी कर्म के रूप में सामने आएगी, जिसके लिए पुनः अनुकूल संयोग
होने चाहिए. कर्तापन का बोझ यदि किसी के सिर पर न रहे तो वह कितना हल्का महसूस
करेगा. कर्ता होते ही हम भोक्ता भी हो जाते हैं. यदि कोई विद्यार्थी वर्ष भर मेहनत
करता है किन्तु किसी कारण वश परीक्षा में फेल हो जाता है, तो उसे स्वयं को दोषी
मानने की जरा भी आवश्यकता नहीं है. ‘नेकी कर कुएं में डाल’ कहावत के पीछे भी यही
भाव है, कि अच्छा कार्य भी उचित संयोग बैठने से ही सम्भव हुआ. किन्तु जानबूझ कर गलत
कार्य करके हम इस उपाय द्वारा स्वयं को कर्ताभाव से मुक्त नहीं कर सकते, उस समय
हमें फल के लिए तैयार रहना होगा.
भीतर बहता सुख का सोता
२३ फरवरी २०१८
यदि कोई भी कार्य करने से पहले हम
स्वयं से यह प्रश्न करें कि इस कार्य से हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं, तो हर
उत्तर भिन्न हो सकता है जैसे धन, यश, पद, सम्मान आदि. किन्तु हर उत्तर अंततः एक ही
दिशा की ओर ले जायेगा, और वह है इनके द्वारा आनंद प्राप्ति. अंतर है तो इतना कि कोई
कार्य के सफल होने के बाद ख़ुशी मनाता है तो कोई कार्य को संपादित करते समय ही.
किसी भी कर्म को हम किस भावना से करते हैं, उसमें हमारा कितना श्रम अथवा ऊर्जा लगी
है, परिणाम इस पर निर्भर करता है. उत्साह और शुभ भावना से किया गया कर्म अपने आप
में ही आनंदित करने वाला होता है. हमारी अंतर्चेतना जिन तत्वों से बनी है उनमें
आनंद प्रमुख है, इसका अर्थ हुआ कि आनंद ही वह प्रेरक तत्व है जो हमें सद्कार्य में
लगाता है. जैसे धन से धन कमाया जाता है वैसे ही मुदिता से मुदिता का संवर्धन होता
है. यदि अध्यापक ख़ुशी-ख़ुशी पढ़ाये और किसान प्रसन्नता पूर्वक खेत में बीजारोपण करे
तो स्कूलों और खेतों में वातावरण कितना सुखद होगा.
Wednesday, February 21, 2018
एक उसी को लक्ष्य बनाएं
२१ फरवरी २०१८
शास्त्रों में ईश्वर प्राप्ति के मुख्यतः
तीन मार्ग कहे गये हैं. पहला है ज्ञान मार्ग, दूसरा कर्म अथवा योग मार्ग और तीसरा भक्ति
मार्ग. ज्ञान मार्ग में साधक को अपनी समझ बढ़ानी है. बुद्धि को सूक्ष्म करना है,
तथा अपने भीतर उस अपरिवर्तनीय तत्व को देखना है जो सदा एकरस है. स्वयं को देह भाव
से मुक्त करके आत्मभाव में स्थित करना है. कर्म मार्ग में अपने कर्मों को निष्काम
भाव से करना है अर्थात कर्मों के फलों का त्याग करना है. छोटे-बड़े सभी कर्मों को केवल
परमात्मा के लिए करना है. ऐसा करते-करते मन शुद्ध हो जाता है और भीतर एक अपूर्व
शांति का अनुभव होता है जो परमात्मा से ही आई है. भक्तिमार्ग में अपने कुशल-क्षेम
का पूरा भार परमात्मा पर छोड़ देना है और जगत में उसी के दर्शन करने हैं. यह मार्ग
आरम्भ से ही रसपूर्ण है, क्योंकि यहाँ परमात्मा है, इसमें कोई संशय नहीं है, उसकी
आराधना करने में ही भक्त को आनंद का अनुभव होता है. अंततः तीनों मार्ग एक में
समाहित हो जाते हैं और स्वयं के भीतर उस परम तत्व से एकत्व का अनुभव होता है.
Monday, February 19, 2018
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा
२० फरवरी २०१८
जीवन हर पल नया है, एकदम ताजा, अछूता सा..हर घड़ी उसका स्पर्श
मिले इसके लिए हमें भी हर क्षण का साक्षी होना होगा. उसी क्षण में उसे जानना होगा,
हम वर्तमान को तब जीते हैं जब वह बीत जाता है, हम भविष्य को तब जीते हैं जब वह घटा
भी नहीं होता. मन जिन बातों में हमें भरमाये रखता है, वे या तो बासी हो चुकी होती
हैं, अथवा तो कल्पनाएँ मात्र ही होती हैं. परमात्मा उस नन्हे से पल में अपनी झलक दिखाता
है, जिसमें हम उससे मिलने की कोई न कोई योजना बना रहे होते हैं. हम उसका नाम लेते
हैं, ताकि हमारा जीवन वह भविष्य में खुशियों से भर दे, उसका नाम लेते समय यदि उससे
मुलाकात नहीं हुई तो समझना चाहिए कि होगी ही नहीं. धरा इस क्षण में जैसी है, और
गगन इस क्षण में जैसा है, वैसा अनंत युगों में नहीं हुआ, इस चमत्कार को जो खुली
आंखों देख ले, वह कभी परमात्मा से विलग नहीं हो सकता.
आ अब लौट चलें
१९ फरवरी २०१८
हमारा मन एक विशाल मन का अंश है, पर जैसे बहते हुए दरिया से जल
का एक भाग अलग-थलग पड़ जाये और एक पोखर बना ले, तो सूखने लगता है, वैसे ही अलग हुआ
यह मन बेचैन हो जाता है. जब तक हम उस विराट के साथ एकत्व का अनुभव नहीं कर लेते
हमारी तलाश जारी रहती है. बुद्धि यदि मोहग्रस्त है, अविद्या से मुक्त नहीं हुई है,
तो मन कामना और कल्पना से मुक्त नहीं हो पाता. सुख की कामना करते हुए वह स्वयं के
कल्पना जाल में इस तरह उलझ जाता है कि सत्य से बहुत दूर निकल जाता है. सत्संग के
प्रभाव से या ईश्वरीय कृपा से जब बुद्धि विवेक से युक्त होती है, तब मन अपने
स्वरूप की ओर लौटने लगता है.
Wednesday, February 14, 2018
देहभाव से मुक्त हुआ जो
१५ फरवरी २०१८
एक ही सत्ता से यह सारा जगत बना है. एक ही चैतन्य विभिन्न जीवों
के रूप में प्रकट हो रहा है, किन्तु वह सदा उनसे पृथक है. परमात्मा हर क्षण स्वयं
को ही भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट करके आनंदित हो रहा है. आत्मा को उसने अपने
जैसा बनाया है, अर्थात आत्मा के रूप में हम प्रतिक्षण अपने भीतर एक सृष्टि का
निर्माण कर रहे हैं. सुख-दुःख आदि आते हैं, आते रहेंगे, किन्तु उनसे प्रभावित होना
या न होना हमारे ऊपर निर्भर करता है. जब हम स्वयं को एकरस शुद्ध चेतना के रूप में
स्वीकार कर लेते हैं, तो जगत में कुछ भी हमें विचलित नहीं कर सकता. जगत से व्यवहार
चलेगा पर उसका प्रभाव मन पर नहीं होगा. अनुभव होगा पर कोई अनुभव कर्ता नहीं होगा,
क्योंकि सारे अनुभव प्रकृति में हो रहे हैं, आत्मा उनसे अलिप्त है. वह मात्र द्रष्टा
और ज्ञाता है. देह भाव से मुक्ति ही सच्ची मुक्ति है.
प्रेम ही पूजा प्रेम अर्चना
१४ फरवरी २०१८
आज प्रेम दिवस है. प्रेम इस संसार के मूल में है, प्रेम पर यह
सृष्टि टिकी है और प्रेम से ही यह बनी है. ईश्वर प्रेम है और उसने प्रेम के
आदान-प्रदान के लिए ही इतने जीवों का निर्माण किया है. नन्हा सा पौधा हो या छोटा
सा प्राणी..प्रेम की भाषा उन्हें भी आती है. हम मानवों ने तो प्रेम के परम रूप को
चखा है, मीरा और चैतन्य की भक्ति प्रेम की पराकाष्ठा है. भक्ति प्रेम का ही
श्रेष्ठतम रूप है. ऐसा प्रेमी जो अपने प्रियतम से कभी मिला ही नहीं, उसे कभी देखा
भी नहीं पर फिर भी उस पर सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार है, प्रेम की जिस ऊँचाई
पर विराजमान होगा सामान्य जन उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. वात्सल्य, स्नेह और
राष्ट्र के प्रति प्रेम भी इसी प्रेम की भिन्न अभिव्यक्तियां हैं. जिस हृदय में भी
किसी भी तरह के प्रेम का अंकुर एक बार भी फूटा है, वह एक न एक दिन उस परम प्रेम का
स्वाद अवश्य चखेगा.
Monday, February 12, 2018
हे शिव शम्भोः औघड़दानी
१३ फरवरी २०१८
शिव कल्याणकारी हैं. शिव अनादि व अनंत हैं. शिव और शक्ति दो
नहीं हैं. दिन-रात और सुख-दुःख की तरह शिव और शक्ति सदा साथ हैं. शक्ति जब विश्राम
में होती है तो शिव होती है और शिव जब गतिमान होते हैं तो शक्ति होते हैं. शिव का
विश्राम भी उतना ही प्रभावशाली है जितना उनका गतिमान होना. शिव चैतन्यता की
पराकाष्ठा हैं. जब साधक अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है, शिव में ही होता है.
उसके अशुभ संस्कार नाश को प्राप्त होते हैं और वह नई शक्ति भरकर जगत में कार्य
करने में सक्षम होता है. शिव संहारक हैं, वे क्रोध आदि विकारों का नाश करते हैं
तथा शांत, सृजनात्मक ऊर्जा का पोषण करते हैं. महाशिवरात्रि के पर्व पर हम सभी को आसुरी
शक्तियों का विनाश करके अपने भीतर के देवत्व को जगाना है.
Sunday, February 11, 2018
मर्म धर्म का जो भी जाने
१२ फरवरी २०१८
जीवन की धन्यता किसमें है ? सम्भवतः जीवन के मर्म को जानकर उसके
अनुसार जीने में ही. जीवन का मर्म है धर्म.. हिन्दू, मुस्लिम वाला नहीं, किन्तु वह
धर्म, जिस पर जीवन टिका है. शास्त्र में धर्म की कितनी ही व्याख्याएँ की गयी हैं, जिनका
सार है सत्य और अहिंसा. सत्य और अहिंसा को यदि एक शब्द में कहना हो तो प्रेम.
अर्थात जीवन का मर्म हुआ प्रेम. पहले इस प्रेम को अपने भीतर अनुभव करना है और फिर
बाहर इसे बहने देना है, अनायास ही. ओढ़ा हुआ शिष्टाचार पृथक बात है, समाज में
व्यवहार के लिए वह आवश्यक है, किन्तु एक साधक को तो अपने भीतर प्रेम के शुद्धतम
रूप को अनुभव करना है. कबीर ने कहा है, ढाई आखर प्रेम का..पढ़े सो पंडित होए. ऐसे मनुष्यों
का ही जीवन धन्य है जिनके भीतर से प्रेम की अजस्र धारा सहज ही बहती है, वे ही इस
धरा के लिए महान बन जाते हैं.
Friday, February 9, 2018
स्वप्न सा यह जगत सारा
१० फरवरी २०१८
स्वप्न में देखे हुए दृश्य जैसे हमें जागने पर प्रभावित नहीं
करते, जागृत में हुए अनुभव भी कुछ ऐसे ही हैं. बचपन में जिन वस्तुओं के बिना हम रह
नहीं पाते थे, वे अब व्यर्थ हो गयी हैं. कल जो मित्र अपने निकट थे, आज वह दूर हैं,
और उनकी याद भी नहीं आती. जो कुछ भी मन के द्वारा अनुभव किया जा सकता है, वह सभी
बाहर है, उसके बिना भी हमारा अस्तित्त्व बना रह सकता है, बना रहा है. क्यों न हम
उसे तलाशें जो हमसे अलग किया ही नहीं जा सकता, और वह तत्व है हम स्वयं...हमारा
होना किसी बाहरी संयोग पर निर्भर नहीं है. ध्यान ही ऐसी प्रक्रिया है जो हमें हमारे
मूल तक ले जाती है. अपने मूल से जुड़कर ही
कोई इस जगत को अपना क्रीड़ा स्थल बना सकता है, जहाँ बिताया हर क्षण आनंदित करने
वाला है.
Thursday, February 8, 2018
जिन डूबा तिन पाइयाँ
९ फरवरी २०१८
संत कहते हैं, चिन्मय होते हुए मनुष्य स्वयं को मृण्मय मान
बैठा है. असीम होते हुए सीमा में बंध गया है, सुख स्वरूप होते हुए सुख की कामना
में दौड़ रहा है. यदि कोई संतों की इस बात पर विचार करे और उसका अनुभव भी कर ले तो
उसका जीवन कितना सुंदर हो जायेगा. आत्मा यदि सागर है तो मन की उपमा लहरों से दी
जाती है, किन्तु सागर हो या लहरें, वास्तव में तो दोनों जल ही हैं. इसी प्रकार
आत्मा हो या मन वास्तव में दोनों परमात्मा ही हैं. जैसे लहरों ने सागर को ढक लिया
है, हम लहरों को देखकर ही सागर को देख लिया मान लेते हैं, सागर की अतल गहराई का
उसके विशाल विस्तार का हमें ज्ञान ही नहीं होता, नाम और रूप हमें इस तरह प्रभावित
कर लेते हैं कि जल को तो हम देखते ही नहीं. ऐसे ही मन को देखकर ही हम व्यक्ति को
देख लिया मान लेते हैं. आत्मा की अतल गहराई का हमें ज्ञान ही नहीं होता. जिस चेतन
तत्व से वे बने हैं, उस परमात्मा को तो हम देखते ही नहीं. यदि दृष्टि जल पर हो तो
सागर, लहरों, बुदबुदों और फेन में एक ही सत्ता दिखेगी. यदि परमात्मा पर दृष्टि हो
तो आत्मा, मन, बुद्धि, अहंकार सबके पीछे एक ही सत्ता दिखेगी. सबके भीतर एक ही तत्व
को देखते ही सारा भेद मिट जाता है और वसुधैव कुटुम्बकम का भाव सहज ही जग जाता है.
Wednesday, February 7, 2018
बचपन और बुढ़ापा इक सा
८ फरवरी २०१८
एक कहावत है, पूत के पाँव पालने में ही देखे जाते हैं, अर्थात
कोई बच्चा बड़ा होकर कैसा बनने वाला है, उसकी झलक बचपन में ही मिल जाती है. इसी
कहावत को यदि थोड़ा आगे बढ़ाया जाये तो ऐसा भी कह सकते हैं कि किसी की युवावस्था
देखकर उसकी वृद्धावस्था का अनुमान लगाया जा सकता है. यदि कोई अनुशासित जीवन जीता
रहा है तो उसका बुढ़ापा भी अनुशासित ही होगा. इसी तरह कोई वृद्ध यदि संतुष्ट है और
जीवन के प्रति आशावान है तो उसका नया रूप यानि अगला जीवन कैसा होगा, यह भी जाना जा
सकता है. अक्सर हम वृद्धों को अपने बीते हुए दिनों की बातें करते देखते हैं, लेकिन
जो बीत गया उसे दोहराना पानी पर लिखने जैसा है, जिसका कोई अर्थ नहीं. यदि वृद्ध
अपने अगले बचपन के विषय में सोचे और उसकी तैयारी करे तो जीवन कितना सुंदर हो सकता
है. बुढ़ापा बचपन की पूर्वावस्था ही तो है, बल्कि वृद्धावस्था में ही इसके लक्षण
आरम्भ हो जाते हैं. पोपला मुख, बात-बात पर तुनकना और शारीरिक असमर्थता बच्चों में
होती है और बूढों में भी. सन्यास आश्रम में गया वृद्ध बालवत् ही होता है, तभी वह
सबका प्रिय हो जाता है.
Tuesday, February 6, 2018
नाम-रूप से पार जो देखे
६ फरवरी २०१८
प्रतिपल इस जगत में कितना कुछ घट रहा है, सृष्टि के इस अनंत पटल पर
न जाने कब से असंख्य खेल खेले जा चुके हैं, जा रहे हैं और खेले जायेंगे. आश्चर्य
की बात यह है कि उस पटल पर उनका चिह्न भी शेष नहीं रहता. जैसे स्वप्न में हम किले
बनाते हैं, विशाल पर्वत रच लेते हैं और जगने पर उनका नामोनिशान नहीं मिलता, वैसे
ही यह जगत प्रतिपल ‘हाँ’ से ‘नहीं’ हुआ जा रहा है. जो इसे ही वास्तविक मान लेते
हैं वह इस नाम-रूप के जगत के पीछे छिपे अव्यक्त कारण की खोज नहीं करते. जैसे सागर
में उठी लहरें नाशवान हैं, वे सागर का ही एक रूप हैं और लहर नाम से जानी जाती हैं.
लहरों के नाश होने पर सागर का नाश नहीं होता. सागर भी जल का एक रूप है और सागर नाम
से जाना जाता है, यदि कभी सागर भी सूख जाये तो जल का नाश नहीं होता. इसी तरह मन भी
आत्मा के सागर में उठी लहर ही है, और देह मन के सागर में उठी लहर. देह व मन के नाश
हो जाने पर आत्मा का नाश नहीं होता.
Monday, February 5, 2018
श्रावक बन जाता है जो भी
५ फरवरी २०१८
साधक के लिए श्रवण का बहुत महत्व है. वेदों को श्रुति भी कहा
गया है, जिनमें ऋषियों की वाणी को सुनकर ही संकलित किया गया है. ‘सुनना’ और सही
प्रकार से सुनना जिसे आता है, वह सत्य को शीघ्र ही अनुभूत कर सकता है. सामान्य
व्यवहार काल में भी यदि हम सामने वाले की बात को सुने बिना ही अपनी राय देने लगते
हैं, अथवा ठीक से समझ नहीं पाते तो इसका एक मात्र कारण है श्रवण की कला का न
जानना. एक सच्चा श्रावक ही सच्चा साधक बन सकता है. बिना किसी पूर्वाग्रह और मान्यता के कही गयी बात को सुनने से ही उसके
पीछे का सत्य उद्घाटित हो जाता है. सुनते समय यदि मन कहीं और है अथवा हम अपने ही प्रश्नों में उलझे हैं
तो सुनने का भ्रम हो सकता है, वास्तव में हमने सुना ही नहीं. हम संतों की वाणी सुनते
हैं, पर हजार बार सुनकर भी हमें अपने भीतर उस सत्य की झलक नहीं मिलती, जिसका जिक्र
वे निरंतर करते हैं. सुनने की कला जिसे आ जाती है वह एक न एक दिन उस अव्यक्त को भी
सुन लेता है, मौन की गूंज भी उसे सुनाई देती है.
Friday, February 2, 2018
उस विराट की करें कामना
३ फरवरी २०१८
सत्य के प्रति आग्रह जब मानव को देव बना देता है, महात्मा बना
देता है, असत्य का आश्रय लेने वाला कहाँ पहुँचेगा इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती
है. अल्प की कामना करने से विराट कैसे मिल सकता है, उसके लिए तो विराट की ही कामना
करनी होगी. इन्द्रियों व मन से मिलने वाला हर सुख अल्प है, मन के पार जहाँ द्वंद्व
नहीं है, वहाँ आत्मा का सुख है, जो कभी खत्म नहीं होता. संत के मुख से यह बात
सुनकर भी हमें भरोसा नहीं होता, हम छोटे-छोटे सुखों को ही अपनी झोली में भर कर
प्रसन्न होते रहते हैं. ओस की बूंदों की तरह ये सारे सुख शीघ्र समाप्त हो जाते
हैं, फिर खाली झोली लिए हम मायूस हो जाते हैं. क्यों न एक बार उस परमसुख की कामना
करें जिसके गीत गाते हुए कृष्ण थकते नहीं.
Thursday, February 1, 2018
दो के पार ही जाना हमको
२ फरवरी २०१८
जीवन द्वंद्वों से बना है. यहाँ जो वस्तुएं, घटनाएँ, गुण तथा मूल्य
एक दूसरे के विपरीत दिखाई पड़ते हैं, वे विपरीत न होकर एक दूसरे के पूरक हैं. दिन के
बिना रात नहीं होती, सुख के साथ दुःख लगा ही है. मित्रता और शत्रुता एक ही सिक्के के
दो पहलू हैं. जो हमारे प्रिय पात्र हैं वे ही कल अप्रिय भी लग सकते हैं. एक का
अस्तित्व दूसरे पर ही टिका है. बीमारी न हो तो स्वास्थ्य की कीमत कौन जानेगा.
अशांति न हो तो शांति की चाह किसे होगी. संत जगत की इस व्यवस्था को जानकर उनसे ऊपर
उठ जाते हैं. जहाँ दो नहीं हैं विश्राम वहीं है.
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