९ फरवरी २०१८
संत कहते हैं, चिन्मय होते हुए मनुष्य स्वयं को मृण्मय मान
बैठा है. असीम होते हुए सीमा में बंध गया है, सुख स्वरूप होते हुए सुख की कामना
में दौड़ रहा है. यदि कोई संतों की इस बात पर विचार करे और उसका अनुभव भी कर ले तो
उसका जीवन कितना सुंदर हो जायेगा. आत्मा यदि सागर है तो मन की उपमा लहरों से दी
जाती है, किन्तु सागर हो या लहरें, वास्तव में तो दोनों जल ही हैं. इसी प्रकार
आत्मा हो या मन वास्तव में दोनों परमात्मा ही हैं. जैसे लहरों ने सागर को ढक लिया
है, हम लहरों को देखकर ही सागर को देख लिया मान लेते हैं, सागर की अतल गहराई का
उसके विशाल विस्तार का हमें ज्ञान ही नहीं होता, नाम और रूप हमें इस तरह प्रभावित
कर लेते हैं कि जल को तो हम देखते ही नहीं. ऐसे ही मन को देखकर ही हम व्यक्ति को
देख लिया मान लेते हैं. आत्मा की अतल गहराई का हमें ज्ञान ही नहीं होता. जिस चेतन
तत्व से वे बने हैं, उस परमात्मा को तो हम देखते ही नहीं. यदि दृष्टि जल पर हो तो
सागर, लहरों, बुदबुदों और फेन में एक ही सत्ता दिखेगी. यदि परमात्मा पर दृष्टि हो
तो आत्मा, मन, बुद्धि, अहंकार सबके पीछे एक ही सत्ता दिखेगी. सबके भीतर एक ही तत्व
को देखते ही सारा भेद मिट जाता है और वसुधैव कुटुम्बकम का भाव सहज ही जग जाता है.
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