५ फरवरी २०१८
साधक के लिए श्रवण का बहुत महत्व है. वेदों को श्रुति भी कहा
गया है, जिनमें ऋषियों की वाणी को सुनकर ही संकलित किया गया है. ‘सुनना’ और सही
प्रकार से सुनना जिसे आता है, वह सत्य को शीघ्र ही अनुभूत कर सकता है. सामान्य
व्यवहार काल में भी यदि हम सामने वाले की बात को सुने बिना ही अपनी राय देने लगते
हैं, अथवा ठीक से समझ नहीं पाते तो इसका एक मात्र कारण है श्रवण की कला का न
जानना. एक सच्चा श्रावक ही सच्चा साधक बन सकता है. बिना किसी पूर्वाग्रह और मान्यता के कही गयी बात को सुनने से ही उसके
पीछे का सत्य उद्घाटित हो जाता है. सुनते समय यदि मन कहीं और है अथवा हम अपने ही प्रश्नों में उलझे हैं
तो सुनने का भ्रम हो सकता है, वास्तव में हमने सुना ही नहीं. हम संतों की वाणी सुनते
हैं, पर हजार बार सुनकर भी हमें अपने भीतर उस सत्य की झलक नहीं मिलती, जिसका जिक्र
वे निरंतर करते हैं. सुनने की कला जिसे आ जाती है वह एक न एक दिन उस अव्यक्त को भी
सुन लेता है, मौन की गूंज भी उसे सुनाई देती है.
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