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Thursday, May 30, 2024

मध्य मार्ग में चलना होगा

जो प्रसन्नता किसी बाहरी वस्तु पर आधारित नहीं है, उसमें कोई उत्तेजना नहीं है। यह मौन से उपजी है। इसमें मन शांत हो जाता है। यहाँ कुछ भी विशेष नहीं घटता है। यहाँ अहंकार छूट गया है। ऐसी मनोदशा में न ही निराशा है ना आशा,  न सुख न दुख। यह वास्तविक मुस्कान है, जिसमें आँसुओं की गहराई भी छिपी है।क्योंकि विपरीत मध्य में एक हो जाते हैं। यदि हम सुख  की तलाश करते हैं, तो दुख  पीछे आने ही वाला है। यदि शांति, स्थिरता, मौन की तलाश करते हैं, तो भीतर एक स्थिरता का अनुभव होगा। ध्यान में यही घटता है । पल-पल सहजता से आगे बढ़कर  उस मौन को पकड़ना है। इसे पोषित करके, इसकी रक्षा करनी है। संतोष का यही अर्थ है, जो कुछ भी है, वह अच्छा है।  कोई जहाँ भी है, वह जब कृतज्ञता अनुभव  करता है, तब भीतर जो प्रार्थना घटित होती है, वह तत्क्षण फलित होती है। 


Wednesday, April 8, 2020

साध सके जो मन का मौन


आज जबकि हम घरों में बंद हैं, एक कार्य जो हमारे शास्त्र, आचार्य और संत कहते आये हैं, बखूबी कर सकते हैं. वह कार्य है मौन की साधना. दिन भर में चाहे एक घन्टा ही सही, यदि हम पुरे मौन का पालन करें, तो अपनी बहुत सी ऊर्जा को बचा सकते हैं. उस एक घण्टे में हमें न केवल किसी अन्य से वार्तालाप नहीं करना है वरन अपने आप से भी नहीं करना है. जो मन सदा ही कुछ न कुछ योजना बनाता है अथवा पुरानी बात को सामने लाकर उस पर टीका-टिप्पणी करता है, उसे पूरा मौन करना सिखाना है. जो बात वह कई बार सोच चुका है, उसे जुगाली करने की उसकी आदत को तोड़ना है. किसी अप्रिय बात को स्मरण करके जो वह झुंझला जाता है, उसे भी छोड़ना है. वास्तव में अतीत में गया मन एक छाया के सिवा कुछ भी नहीं है, छाया को यदि मिटाना है तो प्रकाश की तरफ आना होगा, वर्तमान के प्रकाश में सारी छायाएं मिट जाती हैं. जो कहीं है ही नहीं हम उससे परेशानी खड़ी कर लेते हैं. जो अभी घटा ही नहीं उसकी आशंका मन जगाये तो फिर उसे वर्तमान में ले आना है और उसका सबसे सरल उपाय है, अपनी श्वास पर ध्यान देना. श्वास सदा वर्तमान में रहती है, वह परमात्मा से जोड़े रखने वाली डोरी है. डोरी भी ऐसी कि यदि श्वास एकतार हो जाये तो परमात्मा की सुवास उसमें से बहकर आने लगती है. शांति का एक बादल हमारे चारों ओर छाने लगता है. हाथ में आये इस समय में से नियमित मौन का अभ्यास करके हम आने वाले दिनों के लिए स्वयं को तैयार रख सकते हैं.  

Thursday, October 3, 2019

मौन से ही वह द्वार खुलेगा



संत कहते हैं, शब्दों का इतना ही कार्य है कि भीतर मौन को उत्पन्न कर दे. मौन लक्ष्य है, शब्द साधन हैं. जैसे यदि कोई व्यक्ति एक प्रश्न पूछता है, फिर जवाब की प्रतीक्षा में रुक जाता है, उस क्षण भीतर मौन है. जवाब देने वाला व्यक्ति शब्दों के माध्यम से ही उत्तर देता है, पर सुनने वाला यदि उत्तर से संतुष्ट नहीं होता, तो भीतर एक अन्य प्रश्न का जन्म होता है, मौन खंडित हो जाता है. यदि उत्तर उसे स्वीकार्य है तो फिर एक क्षण के लिए मौन का अनुभव उसे हो सकता है. मौन का यह क्षण इतना छोटा होता है कि हम उसे चूक ही जाते हैं. उस मौन से ही अस्तित्त्व का द्वार खुलता है. शास्त्रों का प्रयोजन इतना ही है कि हमें भीतर के उस मौन से परिचित करा दे, विचार का जन्म किसी न किसी इच्छा के कारण होता है, इसीलिए मन से इच्छाओं के त्याग पर इतना जोर दिया गया है. भीतर जब मौन होता है, तब मन खो जाता है, चेतना केवल अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहती है.

Saturday, June 1, 2019

चाहें तो इस पल में जी लें



वर्तमान के लघु क्षण में विराट छिपा है, जिसने ध्यान के इस राज को जान लिया, वह मुक्त है. मन सदा अतीत में ले जाता है या भविष्य की कल्पना में. वर्तमान में आते ही मन मिट जाता है, उसे टिकने के लिए कोई न कोई आधार चाहिए. वर्तमान का पल इतना छोटा है कि उसमें कोई शब्द नहीं ठहर सकता. मन शब्द के सहारे ही जीवित रहता है. मौन का अनुभव वर्तमान का अनुभव है. अतीत में जाकर कभी मौन को अनुभव नहीं किया जा सकता. मौन ही सत्य का अनुभव है. यदि कोई इस क्षण में टिकना सीख ले तो वह ऊर्जा के परम स्रोत से जुड़ जाता है. ऊर्जा का यह स्रोत प्रेम, आनंद और शांति का संगम है.

Thursday, July 12, 2018

उठ जाग मुसाफिर भोर भयी


१३ जुलाई २०१८ 
बचपन से हम सुनते आये हैं, सुबह जल्दी उठना चाहिए, ब्रह्म मुहूर्त में उठने से बहुत प्रकार के लाभ होते हैं. संत और शास्त्र कहते हैं, उस समय आकाश में देवता भ्रमण करते हैं. सूर्योदय से दो घंटे पूर्व का समय ब्रह्म मुहूर्त माना गया है. इस बात में कितनी सच्चाई है, इसका अनुभव तो जल्दी उठकर ही हो सकेगा. जब आकाश में तारे भी निकले हों और पूर्व दिशा अभी श्रृंगार की तैयारी ही कर रही हो. उस समय हवा शीतल होती है, और एक शांत मौन सब ओर पसरा होता है. पंछियों का कलरव उस मौन को नवीन आभा से भर रहा होता है. ऐसे वातावरण में परमात्मा का स्मरण अपने आप ही होने लगता है. उस वक्त की गयी प्रार्थना सीधे दिल से उपजती है और तत्क्ष्ण देवों के द्वारा ग्रहण कर ली जाती है. वर्तमान पीढ़ी के लिए सुबह जल्दी उठना संभव ही नहीं हो पाता क्योंकि उनकी रात देर से आरम्भ होती है. किन्तु जिनके लिए यह संभव है, वे भी यदि इस अनमोल समय के साक्षी नहीं बनते तो अवश्य ही अपना परम हित नहीं कर रहे हैं.

Monday, February 5, 2018

श्रावक बन जाता है जो भी

५ फरवरी २०१८ 
साधक के लिए श्रवण का बहुत महत्व है. वेदों को श्रुति भी कहा गया है, जिनमें ऋषियों की वाणी को सुनकर ही संकलित किया गया है. ‘सुनना’ और सही प्रकार से सुनना जिसे आता है, वह सत्य को शीघ्र ही अनुभूत कर सकता है. सामान्य व्यवहार काल में भी यदि हम सामने वाले की बात को सुने बिना ही अपनी राय देने लगते हैं, अथवा ठीक से समझ नहीं पाते तो इसका एक मात्र कारण है श्रवण की कला का न जानना. एक सच्चा श्रावक ही सच्चा साधक बन सकता है. बिना किसी पूर्वाग्रह  और मान्यता के कही गयी बात को सुनने से ही उसके पीछे का सत्य उद्घाटित हो जाता है. सुनते समय यदि मन कहीं  और है अथवा हम अपने ही प्रश्नों में उलझे हैं तो सुनने का भ्रम हो सकता है, वास्तव में हमने सुना ही नहीं. हम संतों की वाणी सुनते हैं, पर हजार बार सुनकर भी हमें अपने भीतर उस सत्य की झलक नहीं मिलती, जिसका जिक्र वे निरंतर करते हैं. सुनने की कला जिसे आ जाती है वह एक न एक दिन उस अव्यक्त को भी सुन लेता है, मौन की गूंज भी उसे सुनाई देती है. 

Tuesday, June 23, 2015

भीतर जगे आस्था जब

फरवरी २०१० 
हमारे और परमात्मा के मध्य मल, विक्षेप और आवरण तीन बाधाएं हैं. संचित पाप तथा शरीर के विकार ही मल हैं. मन की चंचलता व दुर्गुण ही विक्षेप हैं  तथा मोह व अज्ञान आवरण हैं. ये सभी दूर हो जाएँ तो परमात्मा हमारे सम्मुख ही है. हमारी प्राण शक्ति जितनी अधिक होगी भीतर उत्साह रहेगा, समाधान रहेगा. प्राण शक्ति घटते ही रोग भी घेर लेता है तथा मन भी संदेहों से भर जाता है. प्राणायाम तथा ध्यान मल व विक्षेप को दूर करते हैं और समाधि आवरण को भी हटा देती है. समाधि का अनुभव होते ही आस्था दृढ़ हो जाती है और तब परमात्मा पराया नहीं रहता. भीतर कोई हलचल नहीं, कोई उद्वेग नहीं एक सुखदायी मौन छा जाता है जिसकी छाया में विश्राम पाकर मन तृप्त हो जाता है. 

Thursday, March 5, 2015

प्रीत हुई जो उस प्रियतम से

मार्च २००८ 
परमात्मा से प्रेम हो जाये तो यह जगत होते हुए भी नहीं दिखता, वह प्रेम इतना प्रबल होता है कि सब कुछ अपने साथ बहा ले जाता है. शेष रह जाता है निपट मौन, एक शून्य, एक खालीपन लेकिन उस मौन में भी एक नये तरह का संगीत गूँजता है. वह खालीपन भी भरा हुआ है, कुछ खास ही तत्व से. वह तत्व जो अविनाशी है, कल्याणकारी है, अजन्मा है, अनंत है, हमारी आत्मा से परे है.


Thursday, January 29, 2015

मिटकर ही आकाश मिलेगा

जनवरी २००८ 
साधक यदि चाहे तो स्वयं का कल्याण कदम-कदम पर कर सकता है. हर क्षण हमारे सम्मुख है ख़ुशी का आकाश, अंतहीन आकाश ! पर हम हर बार धरा को चुन लेते हैं, डरते हैं कहीं आकाश में गुम न हो जाएँ, पर गुम हुए बिना क्या कोई अपने को पा सका है. एक बार तो मरना ही होता है, खोना ही होता है, सहना ही होता है नितांत अकेलापन ! जिसके बाद मिलता है निरंतर सहचरी का भाव, उस परमात्मा से एकता का अभिन्नता का अपार भाव ! वह अस्त्तित्व जो हर पल हमारा साथी है, पर अभी मौन है, तब मुखर हो उठता है ! हम जो भीतर कटुता छिपाए हैं, छल, वंचना तथा ईर्ष्या छिपाए हैं वह तब प्रकट हो जाती है. हम उसे अपने से भिन्न देखते हैं जैसे कोई अपने को देखे और अपने कपड़ों को, जिन पर मेल लगी है, वैसे ही हम अपने मन को देखें और मन पर लगे धब्बों को. वह परमात्मा हमें उसके साथ ही कबूल करता है. वह हमें चाहता है, उसके साथ हमारे सम्बन्ध में कोई छल न हो बस वह यही चाहता है.    

Saturday, November 15, 2014

प्रेम गली अति सांकरी

अप्रैल २००७ 
संत कहते हैं हम लाख चाहें, शब्दों से अपनी बात समझा नहीं सकते, जो काम मौन कर देता है वह शब्द नहीं कर पाते. हम अपने व्यवहार से, भीतर छिपी करुणा से किसी हद तक अपने विरोधी को भी प्रभावित कर सकते हैं. भीतर जो प्रतीक्षा है उसी में सारा रहस्य छिपा है. आतुरता, प्यास यही साधना की पहली शर्त है. ज्ञान को जितना भी पढ़ें, सुनें, गुनें, तृप्ति नहीं मिलती. वह परमात्मा कितना ही मिल जाये ऐसा लगे कि मिल तो गया है फिर भी मिलन की आस जगी रहती है. प्रेम में संयोग और वियोग साथ-साथ चलते हैं. इसलिए भक्त कभी हँसता है कभी रोता है, वह ईश्वर को अभिन्न महसूस करता है पर तृप्त नहीं होता, फिर उसे सामने बिठाकर पूछता है, पर दो के बीच की दूरी भी उसे सहन नहीं होती. वह स्वयं मिट जाता है केवल ईश्वर ही रह जाता है. ज्ञानी भी एक है, और कर्मयोगी के लिए यह सारा जगत उसी एक का स्वरूप है. एक का अनुभव ही अध्यात्म की पराकाष्ठा है.

Friday, September 26, 2014

हाथ बढ़ाकर ले लें उसको

मार्च २००७ 
सन्त कहते हैं, हमें क्रियाशीलता में मौन ढूँढना है और मौन में क्रिया ! हमें निर्दोषता में बुद्धि की पराकाष्ठता तक पहुंचना है और बुद्धि को भोलेपन में बदलना है. हम सहज हों पर भीतर ज्ञान से भरे हों. ज्ञान कहीं अहंकार से न भर दे. ऐसा ज्ञान जो हमें सहज बनाता है, जो बताता है कि ऐसा बहुत कुछ है जो हम नहीं जानते, बल्कि हम कुछ भी नहीं जानते, ऐसा ज्ञान हमें मुक्त कर देता है. ऐसा ज्ञान जो हमारी बेहोशी को तोड़ दे, हमारी बेहोशी जाने कितनी गहरी है पर जैसे एक दिया हजारों साल के अंधकार को पल भर में दूर कर देता है ऐसे ही गुरु के ज्ञान का दीया अपने आलोक से हमें प्रकाशित करता है. वे कहते हैं परमात्मा का प्रेम हमें सहज ही प्राप्त है. हाथ बढ़ाकर बस उसे स्वीकारें, कोई पदार्थ या क्रिया उसे हमें नहीं दिला सकती. वह अनमोल प्रेम तो बस गुरु कृपा से ही मिलता है. उनकी चेतना शुद्ध हो चुकी है, वह परमात्मा से जुड़े हैं और बाँट रहे हैं.. दिनरात.. प्रेम का प्रसाद !

Friday, August 1, 2014

स्वयं में जो रमण करे

जनवरी २००७ 
अहंकार से मुक्त होकर जब मन कामना रहित होता है, उसी क्षण आत्मा में टिक जाता है. अहंकार छोड़े बिना हम दीन नहीं होते और दीन हुए बिना दीनानाथ की कृपा नहीं मिलती. आत्मा में जिसकी सदा ही स्थिति हो ऐसा मन शरणागत में जा सकता है. उसमें कोई उद्वेग नहीं है, वह राग-द्वेष से परे है. उसमें एक मौन का जन्म  होता है, इस मौन में सत्व का जन्म होता है, जिसकी तरंगे न केवल भीतर बल्कि बाहर का वातावरण भी पावन कर देती हैं. उसमें जिसने एक बार विश्रांति पायी है वह इस जगत से अलिप्त हो जाता है अर्थात इससे सुख पाने की इच्छा उसकी नष्ट हो जाती है. वह आत्मा में रमण करने वाला परम आनन्द को प्राप्त करता है.

Tuesday, July 1, 2014

पानी बिच मीन प्यासी

अगस्त २००६ 
ध्यान में जो नीरवता भीतर प्रकट होती है, वह अतीव मधुर है. वह शब्दों से परे है. यह जगत भी तभी सुंदर लगता है जब अंतर शांत हो. हमारी चेतना इतनी भव्यता छिपाए है कि उसे शब्दों में कहा ही नहीं जा सकता. यह प्रकृति कितने रूप धर कर हमें लुभाती है. सौन्दर्य जो बाहर है, वह उत्पन्न हुआ है, जो भीतर है वह तो सहज है, स्वनिर्मित है. जब तक कोई इस सौन्दर्य को जान नहीं लेता है तब तक प्रेम को पहचान नहीं पाता. प्रेम का अनुभव किये बिना ही उसे इस जगत से जाना पड़ता है, वह प्यासा ही रह जाता है, जगत से सुख पाने की इच्छा उसे दूसरों का गुलाम बना देती है.

Monday, May 5, 2014

धीरे धीरे हे मना

जनवरी २००६ 
अहंकार न रहे तो मौन स्वाभाविक ही उपजता है, बाहर का मौन ही फिर मन को भी मौन कर देता है. तब ‘स्वयं’ का अनुभव होता है, जिस क्षण भी यह अनुभव हुआ वह क्षण अपने आप में पूर्ण होता है, ऐसे क्षणों की श्रृंखला बन जाये तो ध्यान घटता है. ध्यान में हम स्वयं को देखते हैं, वहाँ द्रष्टा को दृश्य बना देते हैं, दूसरे दृश्यों का लोप हो जाता है. उस समय मन पूरा विश्राम पा रहा होता है. उसका शुद्धिकरण भी तभी होता है. पुराने संस्कार मिटते हैं था शुभ संस्कार दृढ़ होते हैं. जितना समय हम ध्यान में होते हैं परमात्मा के निकट होते हैं, तभी उसके प्रेम व शांति का अनुभव होता है. एक दिन ऐसा आता है जब पूर्ण आत्मा उघड़ जाती है, साधक को असीम धैर्य के साथ साधना करनी है और उस घड़ी का इंतजार करना है.

Saturday, May 3, 2014

नजर सदा हो अपनी ओर

जनवरी २००६ 
कभी–कभी ऐसा होता है कि उत्साह और प्रेम से भरे हम किसी से मिलने जाते हैं और जब लौटते हैं तो लगता है कहीं कुछ खो गया है, जैसे ऊर्जा निचोड़ ली गयी है. इसके कारण में पड़ने से तो अच्छा है अपने मन को देखें, कहीं वह अहंकार का शिकार तो नहीं हो गया था, कहीं भेद भरा वर्तन तो नहीं किया, कहीं लोभ तो नहीं जगा जिसकी पूर्ति में बाधा आई हो और मन बुझ गया हो. कहीं वाणी का दोष तो नहीं हुआ, मौन से बढकर सम्प्रेष्ण का कोई साधन नहीं है पर मौन को त्याग हम वाणी का आश्रय लेते हैं, न कहने योग्य भी कह जाते हैं. अपनी ऊर्जा स्वयं ही गंवाते हैं, जो चुकता है वह अहंकार ही है, जिसे पीड़ा होती है वह भी अहंकार था, ‘स्वयं’ तो ऊर्जा का अनंत भंडार है, ‘स्वयं’ तो प्रेम ही देना जानता है, ‘स्वयं’ तो सदा एक सा है, सदा एक सा था, एक सा रहेगा...मौन की तरह... 

Thursday, February 27, 2014

उसकी याद का फूल खिला लें

अगस्त २००५ 
साधक जब कहता है, उसे मौन सुहाता है तो उसे पूछना होगा, यह ‘मैं’ है कौन, जिसे मौन सुहाता है, यह शुद्ध ‘मैं’ है अथवा अशुद्ध. अशुद्ध ‘मैं’ में रहकर यदि हम कर्म करेंगे चाहे वह साधना ही क्यों न हो, अभिमान को जन्म मिलेगा. सदा सचेत होकर रहना होगा कहीं अहंकार का पोषण तो नहीं हो रहा है. जगत में रहते हुए हम जगत से पूर्णतया अलग हैं यह मानना भी तो अहंकार ही है, यह संसार उसी प्रभु की रचना है, हर प्राणी उसी का मेहमान है, सभी के भीतर वही है, उसी की ऊर्जा है. सभी उसी का स्वरूप है. हम यदि अपने प्रेम को अपने तक सीमित रखने लगेंगे तो वह सड़ने लगेगा, प्रेम को बहने देना है चारों ओर बिखरने देना है, अपने शब्दों से हाव-भाव से, कृत्यों से, वाणी से उसी परमात्मा की खुशबू आनी चाहिए, जिस परमात्मा को हम भीतर खोज रहे हैं. परमात्मा हमसे तभी तक छिपा है जब तक हमारा अहंकार गल नहीं जाता, जब तक हम सभी में आत्मा को और आत्मा में सभी को नहीं देखेंगे तब तक परमात्मा के निकट नहीं पहुंचेंगे, जैसे दूर से ही झरने की ध्वनि और शीतलता को अनुभव कर कोई मान ले कि वह झरने तक पहुंच गया है और वहीं रुक जाये और प्रसन्न होता रहे तो उसे क्या कहा जायेगा, इसी तरह यदि परमात्मा के प्रेम की झलक पाकर ही हम बावरे हो जाएँ और अपना लक्ष्य भुलाकर बैठ जाएँ तो उसे मूर्खता ही कहा जायेगा. 

Tuesday, December 24, 2013

राम रतन धन पायो

मई २००५ 
सोना तप कर ही कुंदन होता है, हम भी इस जगत में तपने आये हैं, हम सब का जीवन कुंदन सा चमके अर्थात सब का मंगल हो यही भावना होनी चाहिए. जगत पदार्थ से बना है, हम अपदार्थ हैं, पदार्थ की अवस्थाएं बदलती रहती हैं, पर अपदार्थ सदा एक सा रहता है, हम वही अबदल अविकारी तत्व हैं, हमारा नाश नहीं होता हममें परिवर्तन नहीं होता, पर हम स्वयं को मन, बुद्धि, अहंकार आदि पदार्थों के साथ एक करके देखते हैं, तपकर उन्हें अलग करना है और स्वयं को अपने शुद्ध रूप में पहचान लेना है. ऐसा होते ही भीतर कैसी शांति जगती है, कण-कण प्रेम से भर जाता है. पूर्णता का अनुभव होता है, भीतर कोई अभाव नहीं रहता. यह पूर्णता मौन को जन्म देती है. मन भी चुप हो जाता है, मन का मौन ही आत्मा का जन्म है. उसे एक बार पा लेने के बाद कभी विस्मरण नहीं होता, वह ऐसा रत्न है जो एक बार मिल जाये तो साथ नहीं छोड़ता. वास्तव में तो वह सदा ही मिला हुआ है, पर उसकी चमक खो गयी है, साधना की अग्नि में तप कर उसे पुनः प्रकाशित करना है. 

Sunday, October 13, 2013

मौन हुआ जब मन का पंछी


“मने मने थाके” अर्थात please keep quite कितना सुंदर सूत्र है यह, पर हमसे बिना बोले नहीं रहा जाता. हमारी ऊर्जा सबसे अधिक बोलने में ही खर्च होती है. हम बेवजह बोलते हैं, बढ़ा -चढ़ा कर बोलते हैं, कुछ का कुछ बनाकर बोलते हैं तथा अपने अहंकार को पोषने के लिए बोलते हैं. हम ज्यादातर समय सुने हुए को दोहराते हैं अथवा तो बोले हुए को भी दोबारा बोलते हैं. वाणी का यदि सदुपयोग हो तो हमारे वचनों में जान आ जाये, बल आ जाये, सत्य का बल. चुप रहने में ही सबसे बड़ा सुख है, कम बोलने वाला कभी मुसीबत में नहीं फंसता. संतजन भी कहते हैं, जब भीतर ईश्वरीय प्रेम की महक भरी हो तो उसे भीतर ही भीतर जज्ब होने दो, जैसे इत्र का ढक्कन धीरे से खोला जाता है फिर बंद कर दिया जाता है. वैसे ही मुंह का ढक्कन जब जरूरी हो तभी खोलना चाहिए, वरना सारी महक उड़ जाएगी तथा संसार की गंध उसमें भर जाएगी. साधक को विशेष सतर्क रहने की आवश्यकता है.   

Tuesday, August 13, 2013

जागे जागे रहना है

दिसम्बर २०१३ 
हम रात्रि को ही स्वप्न नहीं देखते, दिन में भी एक विचार धारा जो भीतर निरंतर चलती रहती है, हमारी स्वप्नावस्था का ही एक रूप है, हमारे अनजाने में ही जो विचार विचरण करते है वही तो रात्रि में दृश्यों के रूप में दिखने लगते हैं. यदि हमें अपने भीतर स्थित पवित्र चैतन्य का बोध सदा बना रहे तो हम भीतर अखंड मौन का अनुभव कर सकते हैं. हम उससे बचे तभी तक रह सकते हैं जब तक सोये हैं. हमारे भीतर जो चेतना है, वह सहज है, वह है ही, उसे होना ही है, न उससे कुछ बढ़कर है न उससे कुछ कम है, सारे भेद ऊपरी हैं, भीतर एक ही तत्व है, वही परम सत्य है.


Tuesday, February 26, 2013

मन जब चुप होना सीखेगा


मौन में शांति है. जब अति आवश्यक हो तभी बोला जाये, तो हम वाणी के कई अपराधों से बच सकते हैं. अधिक बोलने से हम असत्य भी बोल सकते हैं, पर मन का मौन भी इतना ही आवश्यक है, जितना वाणी का. मन आखिर सुनाता ही किसको है ? स्वयं को ही सुनाता रहता है. सुने हुए को, कहे हुए को बार-बार दोहराता है. आत्मा तो उसको सुनना नहीं चाहता, अहंकार को ही सुनाता होगा, तो यदि भीतर शांति चाहिए तो अहंकार रूपी श्रोता को भगा देना होगा. ध्यान में जैसे-जैसे हम गहरे जाते हैं, अहंकार से मुक्त होते जाते हैं, तभी शांति का अनुभव होता है.