अगस्त २००५
साधक
जब कहता है, उसे मौन सुहाता है तो उसे पूछना होगा, यह ‘मैं’ है कौन, जिसे मौन
सुहाता है, यह शुद्ध ‘मैं’ है अथवा अशुद्ध. अशुद्ध ‘मैं’ में रहकर यदि हम कर्म
करेंगे चाहे वह साधना ही क्यों न हो, अभिमान को जन्म मिलेगा. सदा सचेत होकर रहना
होगा कहीं अहंकार का पोषण तो नहीं हो रहा है. जगत में रहते हुए हम जगत से पूर्णतया
अलग हैं यह मानना भी तो अहंकार ही है, यह संसार उसी प्रभु की रचना है, हर प्राणी
उसी का मेहमान है, सभी के भीतर वही है, उसी की ऊर्जा है. सभी उसी का स्वरूप है. हम
यदि अपने प्रेम को अपने तक सीमित रखने लगेंगे तो वह सड़ने लगेगा, प्रेम को बहने
देना है चारों ओर बिखरने देना है, अपने शब्दों से हाव-भाव से, कृत्यों से, वाणी से
उसी परमात्मा की खुशबू आनी चाहिए, जिस परमात्मा को हम भीतर खोज रहे हैं. परमात्मा
हमसे तभी तक छिपा है जब तक हमारा अहंकार गल नहीं जाता, जब तक हम सभी में आत्मा को
और आत्मा में सभी को नहीं देखेंगे तब तक परमात्मा के निकट नहीं पहुंचेंगे, जैसे
दूर से ही झरने की ध्वनि और शीतलता को अनुभव कर कोई मान ले कि वह झरने तक पहुंच
गया है और वहीं रुक जाये और प्रसन्न होता रहे तो उसे क्या कहा जायेगा, इसी तरह यदि
परमात्मा के प्रेम की झलक पाकर ही हम बावरे हो जाएँ और अपना लक्ष्य भुलाकर बैठ
जाएँ तो उसे मूर्खता ही कहा जायेगा.
बहुत सुन्दर रचना अहंकार विसर्जन और सर्व के प्रति प्रेम का सब में उस एक को देखने का आवाहन करती सार्थक रचना।
ReplyDeleteहम यदि अपने प्रेम को अपने तक सीमित रखने लगेंगे तो वह सड़ने लगेगा, प्रेम को बहने देना है चारों ओर बिखरने देना है, अपने शब्दों से हाव-भाव से, कृत्यों से, वाणी से उसी परमात्मा की खुशबू आनी चाहिए....
ReplyDelete" तेरा साईं तुज्झ में ज्यों पुहपन में वास ।
ReplyDeleteकस्तूरी के मिरग ज्यों फिरि-फिरि ढूढै घास॥"
कबीर
वीरू भाई, राहुल व शकुंतला जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
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