अगस्त २००५
हमारे
कर्म (मानसिक, वाचिक, कार्मिक) ही हमें बांधते हैं, यदि हम उन्हें किसी आशा पूर्ति
के लिए करते हैं अथवा तो प्रतिक्रिया के रूप में करते हैं, अथवा इस कार्य से सुख
कभी भविष्य में मिलेगा यह सोचकर करते हैं. यदि कोई किसी कार्य को करते समय आनन्दित
हो रहा है और उस आनन्द पर ही अपना अधिकार
मानें तो न तो कर्म बोझिल होंगे न बाँधने वाले होंगे, हम ऐसे कर्म करेंगे जैसे वे
सहज ही होते जा रहे हैं. अनावश्यक कर्म अपने आप ही तब झर जाते हैं.
सार्थक ,सत्य वचन ...!
ReplyDeleteRECENT POST - आँसुओं की कीमत.
कर्म पर है अधिकार तुम्हारा कदापि नहीं है फल पर वश ।
ReplyDeleteअतः पार्थ तू कर्म किए जा अकर्मण्य तू कभी न बन ॥
अति तत्वपूर्ण और यथार्थ कथन है .आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी, शकुंतला जी व प्रतिभा जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeleteगीता दर्शन.मुक्ति का मार्ग भी यही है.
ReplyDeleteसार्थक ........
ReplyDelete