Wednesday, February 19, 2014

आनन्द से उपजें जो कर्म

अगस्त २००५ 
हमारे कर्म (मानसिक, वाचिक, कार्मिक) ही हमें बांधते हैं, यदि हम उन्हें किसी आशा पूर्ति के लिए करते हैं अथवा तो प्रतिक्रिया के रूप में करते हैं, अथवा इस कार्य से सुख कभी भविष्य में मिलेगा यह सोचकर करते हैं. यदि कोई किसी कार्य को करते समय आनन्दित हो रहा है और  उस आनन्द पर ही अपना अधिकार मानें तो न तो कर्म बोझिल होंगे न बाँधने वाले होंगे, हम ऐसे कर्म करेंगे जैसे वे सहज ही होते जा रहे हैं. अनावश्यक कर्म अपने आप ही तब झर जाते हैं.

7 comments:

  1. कर्म पर है अधिकार तुम्हारा कदापि नहीं है फल पर वश ।
    अतः पार्थ तू कर्म किए जा अकर्मण्य तू कभी न बन ॥

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  2. अति तत्वपूर्ण और यथार्थ कथन है .आभार !

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  3. बहुत बहुत आभार !

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  4. धीरेन्द्र जी, शकुंतला जी व प्रतिभा जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  5. गीता दर्शन.मुक्ति का मार्ग भी यही है.

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