अगस्त २००५
हम क्या हैं, यह तक नहीं
जानते, शरीर, मन, बुद्धि तो जड़ हैं, परमात्मा की अपरा प्रकृति के अंश हैं. आत्मा
परा प्रकृति का अंश है, तो हम मध्य में कहाँ आये. जो ‘मैं’ का आभास होता है, वह
अहंकार है, कर्म संस्कार, कामनाएं और कुछ संकल्प-विकल्प जुड़कर एक पहचान बनी है जो ‘मैं’
है, लेकिन साधक को तो इस मिथ्या अहंकार को त्यागना है, शुद्ध आत्मा के रूप में
पहचान हो जाने पर तो ‘मैं’ बचता ही नहीं, केवल ‘है’ शेष रहता है. जैसे प्रकृति है,
वैसे ही आत्मा है, इस तरह विचार करके हमें अहम् का त्याग करना है, मन खाली हो जाने
पर ही भीतर आत्मा का राज्य होगा.
प्रेम-गली अति सॉकुरी ता में दो न समाहिं ।
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक व सशक्त भाव
ReplyDeleteशुद्ध आत्मा के रूप में पहचान हो जाने पर तो ‘मैं’ बचता ही नहीं, केवल ‘है’ शेष रहता है. जैसे प्रकृति है, वैसे ही आत्मा है....
ReplyDeleteप्रकृति के अंश हैं. आत्मा परा प्रकृति का अंश है, तो हम मध्य में कहाँ आये. जो ‘मैं’ का आभास होता है, वह अहंकार है, कर्म संस्कार, कामनाएं और कुछ संकल्प-विकल्प जुड़कर एक पहचान बनी है जो ‘मैं’ है,
ReplyDeleteजीवन को समझाती बेहतरीन प्रस्तुति
पिंड और ब्रह्माण्ड भिन्न नहीं, एक तत्व के दो रूप ,जे जे पिण्डे सो ब्रह्माण्डे -ज्ञानी यही कहते हैं.
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteशकुंतला जी, रमाकांत जी, राहुल जी, प्रतिभा जी, सदा जी आप सभी का स्वागत व आभार !
ReplyDeletevery well said .....
ReplyDeleteहम क्या हैं, यह तक नहीं जानते, शरीर, मन, बुद्धि तो जड़ हैं, परमात्मा की अपरा प्रकृति के अंश हैं. आत्मा परा प्रकृति का अंश है, तो हम मध्य में कहाँ आये. जो ‘मैं’ का आभास होता है, वह अहंकार है, कर्म संस्कार, कामनाएं और कुछ संकल्प-विकल्प जुड़कर एक पहचान बनी है जो ‘मैं’ है, लेकिन साधक को तो इस मिथ्या अहंकार को त्यागना है, शुद्ध आत्मा के रूप में पहचान हो जाने पर तो ‘मैं’ बचता ही नहीं, केवल ‘है’ शेष रहता है. जैसे प्रकृति है, वैसे ही आत्मा है, इस तरह विचार करके हमें अहम् का त्याग करना है, मन खाली हो जाने पर ही भीतर आत्मा का राज्य होगा.
ReplyDeleteसुन्दर सार्थक अनुकरणीय विचार सरणी।