Friday, December 30, 2016

जाना है माया के पार

३१ दिसम्बर  २०१६ 
वेदांत दर्शन के अनुसार जीव, ब्रह्म और माया ये तीन ही तत्व हैं.  ब्रह्म माया पर शासन करता है और माया जीव पर. जब जीव भी माया के पार चला जाता है, ब्रह्ममय हो जाता है. अभी हम माया से बंधे हैं, माया का अर्थ है जगत के प्रति आसक्ति और मोह. हम जगत को अपने सुख-दुःख कारण मानते हैं. साधना करते -करते यह ज्ञान होने लगता है कि जगत नहीं हम स्वयं ही अपने सुख-दुःख के कारण हैं. यह ज्ञान होते ही या तो कोई आत्मग्लानि में चला जाता है अथवा तो प्रार्थना उसके जीवन में उतरती है. इसके बाद ही यह ज्ञान होता है कि यदि सुख-दुःख के कारण हम ही हैं तो उनसे मुक्ति भी हमारे हाथ में है, मुक्ति का बोध होते ही माया के पार जाकर ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव होने लगता है. सतत साधना करते-करते यह अनुभव टिकने लगता है और तब कमलवत रहना सम्भव हो जाता है. नये वर्ष में प्रवेश करने से पूर्व क्यों न हम यह संकल्प लें कि आने वाले वर्ष में हम नियमित साधना करेंगे. 

संग संग वह हर पल रहता

३० दिसम्बर २०१६ 
परमात्मा सदा ही हमारे साथ है. किन्तु जैसे सूर्य उदित होने पर भी यदि हम घर के दरवाजे-खिड़कियाँ बंद करके बैठे रहें तो उसका ताप व प्रकाश अनुभव में नहीं आता, वैसे ही परमात्मा और हमारे मध्य जब मन अथवा संसार रूपी दीवार आ जाती है तो उसका अनुभव नहीं होता. ध्यान में जब उसमें विश्राम करते हैं तब जगत का लोप हो जाता है. पुनः मन, बुद्धि में आने पर भी उसकी स्मृति बनी रहती है. वह तो तब भी हमें देख रहा होता है. उससे ही हमारा हर श्वास चलता है, उससे ही हर भाव उत्पन्न होता है, वह हमसे पूर्व ही उसे जानता है. चित्त जब केन्द्रित होता है उसकी ही शक्ति समाहित हो रही होती है, जब व्यर्थ के संकल्प-विकल्प उठाता है तब उसी की ऊर्जा व्यर्थ बह रही होती है. जैसे किसी घट में छेद हो तो पानी नहीं टिकता, वैसे ही अस्थिर मन में ध्यान नहीं टिकता. नये वर्ष में क्यों न हम नियमित ध्यान करें.

Wednesday, December 28, 2016

नये वर्ष में नई दिशा

२९ दिसम्बर २०१६ 
कितना अच्छा हो यदि नये वर्ष में हम उन सारी तकलीफों, दुखों, परेशानियों से बचे रहें जो पिछले वर्ष में हमने किसी न किसी अंश में महसूस कीं और उन सारी खुशियों, मुस्कानों और मस्ती से भरा रहे जो पिछले वर्ष या उसके पहले के वर्षों में हमें मिलीं. ऐसा हो सकता है, यदि हम नये वर्ष का स्वागत उसी तरह करें जैसे कोई बच्चा हर नये दिन का करता है, बिना किसी अपेक्षा के और बिना किसी पूर्वाग्रह के..हर दिन एक ताजगी से भरा हो..बिलकुल अछूता और रहस्यमय..जीवन प्रतिपल नया हो रहा है, भगवान बुद्ध कहते हैं, कल बीत गया साथ ही कल जो व्यक्ति था वह भी बदल गया, इस बात को जो अनुभव से जान लेता है उसके जीवन से दुःख. शोक, उसी तरह विदा हो जाते हैं जैसे खरगोश के सिर से सींग. नया वर्ष एक नयी दिशा का प्रतीक बन सकता है और एक नये भविष्य का भी, यदि हम इसकी नूतनता को बना रहने दें.

Tuesday, December 27, 2016

तोरा मन दर्पण कहलाये

२८ दिसम्बर २०१६ 
मन उसी का नाम है जो सदा डांवाडोल रहता है, तभी मन को पंछी भी कहते हैं हिरन भी और वानर भी..आत्मा रूपी वृक्ष के आश्रय में  बैठकर टिकना यदि इसे आ जाये तो इसमें भी स्थिरता आने लगती है, वास्तव में वह स्थिरता होती आत्मा की है प्रतीत होती है मन में, जैसे सारी हलचल होती बाहर की है प्रतीत होती है मन में..मन तो दर्पण ही है जैसा उसके आस-पास होता है झलका जाता है. संगीत की लहरियों में डूबकर यह मस्त हो जाता है और किसी उपन्यास के भावुक दृश्य में भावुक..ऐसे मन का चाहे वह अपना हो या अन्यों का क्या रूठना और क्या मनाना...क्यों न नये वर्ष में मन को समझते हुए प्रवेश करें ताकि न किसी से मनमुटाव हो और न किसी का मन टूटे. आत्मा रूपी वृक्ष पर कुसुम की तरह खिला रहे सबका मन.

Monday, December 26, 2016

खिले ध्यान का कुसुम जहाँ

२६ दिसम्बर २०१६ 
इस जगत में आने से पूर्व हम अकेले थे और यहाँ से जाने के बाद भी अकेले होंगे, इस जगत में भी नींद में हम अकेले होते हैं. ध्यान इसी अकेले होने की किंतु परम के साथ होने की कला है. नींद में हम अनजाने में अस्तित्त्व के साथ होते हैं, हमें उसकी उपस्थिति का भान नहीं होता, बस जगने के बाद भीतर ताजगी का अनुभव होता है. ध्यान में बोधपूर्वक हम अस्तित्त्व के साथ हो सकते हैं और तब हमें सारी सीमाएं टूटती हुई लगती हैं. भीतर एक अचलता का पता चलते ही भय मात्र से मुक्ति का अनुभव होता है. 

Tuesday, December 20, 2016

पितृ देवो भवः मातृ देवो भवः

२१ दिसम्बर २०१६ 
माता-पिता चाहे वे उम्र के किसी भी पड़ाव पर हों, बच्चों की सुख-सुविधा के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं. वे उन्हें सदा प्रसन्न देखना चाहते हैं. एक यही रिश्ता ऐसा है जहाँ  बेशर्त प्रेम, जिसका जिक्र हम सदा सुनते हैं, देखा जाता है. ऐसा करके वे प्रसन्नता का ही अनुभव करते हैं, किन्तु जब बच्चे इसे अपना हक समझते हैं और कृतज्ञता का अनुभव करना तो दूर, इसका अधिक से अधिक लाभ उठाने लगते हैं तो देखने वालों को विचित्र लगता है. कोई भी रिश्ता यदि संतुलित रहे तो फूल की तरह सुगन्ध फैलाता है और यदि एकतरफा हो जाये तो उसमें  सकारात्मक ऊर्जा नहीं रहती। सन्त कहते हैं यदि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति श्रद्धा रखता है तो ईश्वर के प्रति प्रेम का बीज उसके भीतर पनपने लगता है. इसके विपरीत यदि कोई बुजुर्गों के प्रति सम्मान की भावना से अछूता है तो परम के प्रति श्रद्धा और आत्मिक सुख से वह वंचित ही रह जाता है.

मर्म धर्म का जानेंगे जब

२० दिसम्बर २०१६ 
धर्म के जिस रूप को हम जानते और मानते हैं, जिसमें मूर्ति पूजा भी शामिल है और व्रत-उपवास भी, धार्मिक उत्सवों और कुछ रीति-रिवाजों का पालन भी, उससे हम वास्तविकता से दूर ही रह जाते हैं, स्वयं की वास्तविकता, जगत की वास्तविकता और परमात्मा की वास्तविकता इन तीनों से दूर. जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त हम किसी अज्ञात ख़ुशी की आशा किये चले जाते हैं, जो एक न एक दिन मिलने वाली है. जीवन एक उत्सव कम संघर्ष अधिक ज्ञात होता है. सुख की आशा में हम तात्कालिक दुःख को भी हँसते-हँसते झेल जाने को तैयार रहते हैं, किंतु सच्चा धर्म सदा के लिए हर दुःख से मुक्ति का मार्ग सुझाता है. 

Sunday, December 18, 2016

राज अनोखा जिसने जाना

१९दिसम्बर २०१६ 
जीवन प्रतिपल एक रस बाँट रहा है, ऐसा रस जिसका न कोई ओर है न छोर, जो अपने होने की घोषणा नहीं करता, जो जरा सा भी मुखर नहीं है, जिसे महसूस करने के लिए मन की एक ऐसी सहज अवस्था चाहिए जो सन्तुष्टता से उपजती है. वास्तव में वर्तमान का हर नन्हा सा पल अपने भीतर अनंत तक प्रवेश करने की क्षमता छिपाये है. हम शब्दों के आवरण में इतने ढके हैं कि उस सूक्ष्म द्वार को अनदेखा कर देते हैं. अनजान भविष्य की दुश्चिंताओं के कारण तथा अतीत की स्वप्नवत स्मृतियों के कारण हम वर्तमान में रहते भी कहाँ हैं. हमारे  बिना ही जीवन इतना सरस और मधुर हो सकता है, इसका विश्वास भी तो नहीं होता। जिसे यह राज खुल जाता है वही वास्तव में घड़ी-घड़ी उस रस में डूब सकता है.

Saturday, December 17, 2016

वही ऊर्जा पल-पल बहती

 १८ दिसंबर २०१६ 
हमारा मन एक अनंत स्रोत की तरह है जिसमें से अनवरत विचारों की गंध फैलती रहती है. मनमें सहज ही संकल्प उठते हैं, उनमें से अधिकतर दिशाविहीन होते हैं जिससे वे कर्मों में नहीं बदल पाते। यदि हम मन की इस ऊर्जा को एक सार्थक मोड़ दे सकें तो जीवन उस वृक्ष की तरह पल्लवित होता है जो हर रूप में जगत के काम आता है. मन की इस ऊर्जा का दोहन करने से ही कोई आंतरिक सन्तोष का अनुभव भी सहज ही करने लगता है.

Friday, December 16, 2016

सहज सधे सो मधुर अति है

१७ दिसम्बर २०१६ 
अक्सर लोगों को ऐसा कहते हुए सुना जाता है कि भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है किसी को नहीं पता, अगले पल क्या घटने वाला है कौन जानता है, यह बात बाह्य परिस्थिति के लिए जितनी  सत्य है, उतनी ही असत्य भीतर की स्थिति के लिए है. यदि कोई स्वयं को जानता  है तो उसे मनःस्थिति पर नियंत्रण करना उसी तरह सहज हो जाता है जैसे मीन के लिए पानी में तैरना। भीतर सदा एकरस सहज शांत अवस्था को बनाये रखना उतना कठिन नहीं है जितना हम मान लेते हैं. हम यह भूल जाते हैं कि हमारा मन एक विशाल मन का हिस्सा है और वह विशाल मन परमात्मा का. साधना को अपने जीवन का अंग बना लेने पर भीतर जाना उतना ही सहज है जैसे श्वास लेना और छोड़ना। 

Thursday, December 15, 2016

कर्म बनें न बन्धनकारी


१६ दिसंबर २०१६ 

अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष  और अभिनिवेश ये पंच क्लेश हैं जो हमें बांधते हैं. मन जब इनमें से किसी भी वृत्ति में रहता है तो कर्माशय बनता है अर्थात उस समय किये जाने वाला हर कर्म बन्धन का कारण होता है. यहाँ कर्म मनसा, वाचा, कर्मणा कोई भी हो सकता है. कर्म पाप अथवा पुण्य कारी  कोई भी हो सकता है. जिस तरह पाप कर्म बन्धन कारी हैं उसी तरह पुण्य कर्म भी हमें सुख भोग के लिए जगत में लाते हैं. हर वृत्ति संस्कार को जन्म देती है और फिर उसी संस्कार से उसी तरह की वृत्ति का जन्म होता है और हम एक चक्र में फंस जाते हैं, इसे ही जन्म-मरण के चक्र के रूप में शास्त्रों में कहा गया है. मन यदि एकाग्र अवस्था में रहे अथवा तो निरुद्ध अवस्था में तब ही मन क्लेशों से उत्पन्न वृत्ति से रहित होता है, अर्थात कर्माशय नहीं बनता। नियमित ध्यान करने से ही इस स्थिति तक पहुँचा जा सकता है. 

Wednesday, December 14, 2016

जगे चेतना भीतर ऐसी

१५ दिसम्बर २०१६ 
जीवन में कई बार ऐसा होता है जब हम दोराहे पर खड़े होते हैं. एक रास्ता जाना-पहचाना होता है, जिस पर चल कर हम कहीं भी तो नहीं पहुंचते  पर रास्ते का न तो कोई भय होता है न ही कोई दुविधा, दूसरा मार्ग अपरिचित होता है, वह कहाँ ले जायेगा ज्ञात नहीं होता उस पर चलने के लिए विरोध सहने का साहस भी चाहिए और मार्ग की कठिनाइयों का सामना करने की हिम्मत भी. अक्सर हम पहला  मार्ग ही चुन लेते हैं क्योंकि इसमें कोई जोखिम नहीं है और नतीजा यह होता है हम वहीं रह जाते हैं जहाँ थे. जीवन हमें कई बार अवसर देता है पर किसी न किसी तरह का भय हमें आगे बढ़ने से रोक लेता है. क्या ये सारे भय हमारे मन की दुर्बलता के परिचायक नहीं हैं. भीतर एक चेतना ऐसी भी है जो चट्टान की नाईं हर विरोध का सामना कर सकती है पर उसका हमें कोई स्मरण ही नहीं है.

Tuesday, December 13, 2016

सहज हुआ मन है संतोषी

१४ दिसम्बर २०१६ 
किसी भी बात अथवा घटना को देखने के कम से कम दो नजरिये होते हैं, अधिक से अधिक तो अनेक हो सकते हैं. इसका अर्थ हुआ यदि  दो व्यक्तियों में आपस में विवाद हो रहा हो तो दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही हो सकते हैं. अपनी बात रखते हुए कोई यदि इस सत्य को भी स्मरण कर ले तो एक पल में उसके भीतर सहजता का जन्म हो जाता है और यही सहजता धीरे-धीरे संतोष में बदलने लगती है. संतोष ध्यान को जन्म देता है और ध्यान पुनः हमें सहज बनाता है और यह  सहजता इस जगत के प्रति अटूट विश्वास को जन्म देती है.

Monday, December 12, 2016

पल पल साथ बना है जिसका

 १३ दिसम्बर २०१६ 
अस्तित्त्व ने हमें सब कुछ दिया है, यह सुंदर सृष्टि उसने हमारे लिए ही बनाई है. इस जाते हुए वर्ष के अंतिम दिनों में एक बार रुककर हम भी यह क्यों न पूछें कि  वह हमसे क्या चाहता है, उसके प्रति हमारा क्या देय है. हम उसे क्या उपहार दे सकते हैं. शायद वह इतना ही चाहता है कि हम उससे जुड़े रहें, उससे अपने दिल का हाल  कहें, पल-पल घटने वाले उसके चमत्कारों को आश्चर्य भरे भाव से निहारें। वर्तमान में चलते हुए हमारी नजरें सुखद भविष्य की ओर लगी रहें, जो हम भावी पीढ़ी के लिए छोड़ जाने वाले हैं.

Sunday, December 11, 2016

स्वयं ही अपना भाग्य विधाता

१२ दिसम्बर २९०१६ 
हम सब आनंद चाहते हैं, स्वास्थ्य चाहते हैं और संबंधों में स्थायित्व चाहते हैं, किन्तु इस बात को भूल जाते हैं कि ये सब हमें स्वयं ही गढ़ने हैं और इन सबका स्रोत भीतर है बाहर नहीं। यदि मन के भीतर किसी भी कारण से एक भी दुःख का बीज बोया तो एक न एक दिन वह अंकुरित होगा, न केवल अंकुरित वह पल्लवित भी होगा जो भविष्य में दुःख का कारण बनेगा, शारीरिक स्वास्थ्य के साथ भावनात्मक असुरक्षा का कारण भी होगा। किसी भी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति के प्रति कोई भी नकारात्मक भाव भी उसके साथ संबंधों को मधुर नहीं रहने देगा। 

पूज्य सदा हो कण-कण जग का

११दिसम्बर २०१६ 
 हम जिस वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति का हृदय से सम्मान करते हैं, उससे मुक्तता का अनुभव करते हैं अर्थात उनके अवाँछित प्रभाव या अभाव का अनुभव नहीं करते। सम्मानित होते ही वे हमारे भीतर लालसा का पात्र नहीं रहते। यदि हम सभी का सम्मान करें तत्क्षण मुक्ति का अनुभव होता है. इसीलिए ऋषियों ने सारे जगत को ईश्वर से युक्त बताया है. अन्न में ब्रह्म को अनुभव करने वाला व्यक्ति कभी उसका अपमान नहीं कर सकता, भोजन में पवित्रता का ध्यान रखता है. शब्द में ब्रह्म को अनुभव करने वाला वाणी का दुरूपयोग नहीं करेगा। स्वयं को समता में रखने के लिए, वैराग्य के महान सुख का अनुभव करने के लिए, कमलवत जीवन के लिए आवश्यक है इस सुंदर सृष्टि और जगत के प्रति असीम सम्मान का अनुभव करना। 

Friday, December 9, 2016

पल भर भी वह दूर नहीं है

१० दिसम्बर २०१६ 
जहाँ  हमें जाना है वहाँ  हम पहुँचे  ही हुए हैं. जैसे मछली सागर में है, पंछी हवा में है आत्मा परमात्मा में है. मछली को पता नहीं वह सागर में है, पंछी को ज्ञात नहीं वह पवन के बिना नहीं हो सकता, वैसे ही आत्मा को पता नहीं वह शांति के सागर में है. मीन और पंछी को इसे जानने की न जरूरत है न ही साधन हैं उनके पास पर मानव क्योंकि स्वयं को परमात्मा से दूर मान लेता है और उसके पास ज्ञान के साधन हैं, वह इस सत्य को जान सकता है. यही आध्यात्मिकता है, यही धार्मिकता है, यही साधना का लक्ष्य है.   

Thursday, December 8, 2016

एक ऊर्जा पल पल बहती

९ दिसम्बर २०१६ 
प्रतिपल जीवन यह याद  दिलाता है, अनन्त ऊर्जा का एक स्रोत चारों और विद्यमान है. कितने ही लोग सूर्य ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं और कितने ही पवन ऊर्जा का. युगों से ये स्रोत मानव के पास थे पर उसे वह उपाय नहीं ज्ञात था जिसके द्वारा मानव इनका लाभ ले सकता था. इसी तरह  ज्ञान, प्रेम, शांति, सुख की अनन्त ऊर्जा भी परमात्मा के रूप में हर स्थान पर विद्यमान है पर कोई जानकार  ही उसका अनुभव कर पाता है. 

पूर्णमदः पूर्णमिदं

९ दिसम्बर २०१६ 
उपनिषद कहते हैं सृष्टि पूर्ण है, पूर्ण ब्रह्म से उपजी है और उसके उपजने के बाद भी ब्रह्म पूर्ण ही शेष रहता है, सृष्टि ब्रह्म के लिए ही है. इस बात को यदि हम जीवन में देखें तो समझ सकते हैं मन पूर्ण है, पूर्ण आत्मा से उपजा है अर्थात विचार जहाँ  से आते हैं वह स्रोत सदा पूर्ण ही रहता है, मन आत्मा के लिए है. विचार ही कर्म में परिणित होते हैं और कर्म का फल ही आत्मा के सुख-दुःख का कारण है. यदि आत्मा स्वयं में ही पूर्ण है तो उसे कर्मों से क्या लेना-देना, वह उसके लिए क्रीड़ा मात्र है. हम इस सत्य को जानते नहीं इसीलिए मात्र 'होने' से सन्तुष्ट न होकर दिन-रात कुछ न कुछ करने की फ़िक्र में रहते हैं. 

Tuesday, December 6, 2016

टिक जाये जब मन ध्यान में

७ दिसम्बर २०१६ 
जीवन के स्रोत से जुड़े बिना मन सन्तुष्ट नहीं हो सकता, जिस तक जाने का उपाय है ध्यान। पहले-पहल  जब कोई ध्यान का आरम्भ करता है तो भीतर अंधकार ही दिखाई देता है, विचारों का एक हुजूम न जाने कहाँ  से आ जाता है, किन्तु साधना व निरन्तर अभ्यास से मन ठहरने लगता है और उस स्रोत की झलक मिलने लगती है जहाँ  से सारे  विचार आते हैं. मन के पार जाये बिना कोई मन को देख नहीं सकता उस पर नियंत्रण का तो सवाल ही नहीं उठता। ध्यान का  अनुभव किये बिना उस अनन्त शांति का स्वाद नहीं मिल सकता जिसका जिक्र सन्त कवि करते हैं, ध्यान ही वह राम रतन  है जिसे पाकर मीरा नाच उठती है. एक मणि  की तरह वह भीतर छिपा है जिसकी खोज ही साधक का लक्ष्य है.

Monday, December 5, 2016

मन है छोटा सा

६ दिसम्बर २०१६ 
जैसे हम अपने घर में वस्तुओं का संग्रह करते रहते हैं, न केवल आवश्यक वस्तुओं का बल्कि कई बार तो ऐसी वस्तुओं का भी जिनकी आवश्यकता कभी नहीं पड़ती अथवा तो पुरानी वस्तुएं जिनकी उपयोगिता भी नहीं रही ; उसी तरह हम मन में विचारों का भी संग्रह करते चले जाते हैं, मन जो एक उपवन बन सकता था उसे अस्त-व्यस्त जंगल बना देते हैं जहाँ  यादों के जाल  हैं और मान्यताओं और विश्वासों के कैक्टस भी. जहाँ  फूल खिलने के लिए सूर्य की रौशनी को पहुँचने  के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है. आस-पास का वातावरण खुला-खुला हो, जरूरतें कम हों तो मन भी हल्का रहता है और इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि  इस दुनिया से रुखसत करते समय हमें अल्प पीड़ा होगी क्योंकि जो छूट रहा होगा वह थोड़ा सा ही होगा।

जब जैसा तब तैसा रे

५ दिसम्बर २०१६ 
जीवन हमें नित नए रूप में मिलता है. यदि हमारा मन सीमाओं में बंधा है, मान्यताओं में जकड़ा है तो हम इसकी नवीनता को अनदेखा कर देते हैं और एक ही ढर्रे में जिए चले जाते हैं. यदि हर पल को वह जिस रूप में मिलता है वैसा ही स्वीकार करने का स्वभाव बना लिया जाए तो मन फूल की तरह ताजा बना रहेगा और निर्भार भी. 

Sunday, December 4, 2016

योग साधना होगा सबको


संसार का अर्थ है जो पल-पल बदलता है, अगले पल क्या होने वाला है कोई नहीं जानता. कोई कितना भी प्रयास करले  उसके जीवन की परिस्थितियां सदा उसके अनुकूल नहीं रहतीं। हर सुख अपने पीछे दुःख छिपाये है, तो आखिर मानव के पास कोई विकल्प है या नहीं, इसका उत्तर योग के द्वारा ही मिल सकता है. योग ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हर मानव अपने भीतर एक ऐसी अवस्था को प्राप्त कर सकता है जिसे बाहर की कोई परिस्थिति छू भी नहीं पाती। योगी ही सदा समता में रहना सीख पाता है.  

Friday, December 2, 2016

प्यास लिए मनवा हमारा यह तरसे


जीवन का उद्देश्य क्या है, यदि कोई गहराई से इस पर सोचे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि  हर आत्मा अखंड प्रसन्नता का अनुभव करना चाहती है. उसके सारे  प्रयास इसी दिशा में होते रहते हैं. इन्द्रियों के विषयों के द्वारा सुख प्राप्त करना उसमें सबसे पहला साधन है. धन के बिना यह सम्भव नहीं तो मानव श्रम करता है, सुख-सुविधा के साधन जुटाता है. विकास की ओर  बढ़ता हुआ समाज उसी सुख की आशा करता है जो आत्मा की पुकार है. समाज सेवा के द्वारा भी कुछ लोग संतोष  का अनुभव करते हैं और कई पुण्य  कमाकर, किन्तु बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो इस सच्चाई को स्वीकार करते हैं कि जिस सुख की तलाश वह बाहर कर रहे हैं वह सहज ही उन्हें  मिल सकता है. ऐसा सुख ही अनवरत बहती हुई धारा  की तरह निरंतर उन्हें तृप्त कर सकता है. इसके बाद वे जो कुछ भी करते हैं उसके पीछे कुछ पाने की कामना नहीं रहती बल्कि भीतर का संतोष ही कृत्यों के रूप में बाहर प्रकट होता है.

Thursday, December 1, 2016

ऋत के साथ एक हुआ जो

२ दिसंबर  २०१६
जब हम ऋत  के नियमों का  पालन करते हैं, उसके साथ जो एक हो जाते हैं, तब  जीवन से द्वंद्व मिट जाता है. आचरण को जो शुद्ध कर लेता है बहुत सारी  परेशानियों से बच जाता है, किन्तु जो न प्रकृति के साथ एक होता है न ही सामान्य आचार  का सम्मान करता है वह दुःख को निमन्त्रण दे रहा होता है. परमात्मा अथवा प्रकृति हर हाल में सबके प्रति समान व्यव्यहार करती है हम स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माण करते हैं.