३१ मार्च २०१७
मानव के दुःख का हल उस क्षण से निकलने लगता है जब वह दुःख को दुःख रूप में जान लेता है. जब तक हम दुःख को जीवन का एक सामान्य अंग समझ कर स्वीकारते रहते हैं, दुःख भी साथ-साथ चलता रहता है. बीच-बीच में ख़ुशी के क्षण भी आते हैं और न भी हों तो एक उम्मीद भीतर लगी रहती है, कि एक न दिन सब ठीक हो जायेगा. जिस क्षण भी कोई यह तय कर लेता है कि आज के बाद जगत किसी भी बात के लिए दुखी नहीं कर सकता उसके जीवन से ऐसी परिस्थितियाँ ही विदा लेने लगती हैं. यह जगत हमारी ही प्रतिध्वनि है, हमारी भीतरी आकांक्षा ही जीवन में प्रतिफलित होती है. मन की गहराई से जिसको भी हम चाहते हैं वही जीवन में किसी न किसी माध्यम से प्रकट होने लगता है. भीतर यदि पीड़ा है, क्रोध है, लोभ है तो जीवन में वैसी ही घटनाएँ होने लगती हैं. किसी ने सच कहा है हमारा भाग्य हमारे ही हाथों में है.