Friday, December 30, 2011

मन साधन है


हमें पर्वत की भांति अडोल होना है और यह भाव आत्मज्ञान से आता है. हमें अपने मन को अपने से पृथक देखना है. उसे साधन मानते हुए शुद्ध करना है. धीरे धीरे हम एक अद्भुत शांति का अनुभव करते हैं..आत्मभाव में कितना सहज सुख है. देह, मन व बुद्धि से स्वयं को संयुक्त करके हम व्यर्थ ही अपने को सुखी व दुखी मानते हैं जबकि संसार की किसी भी वस्तु में यह सामर्थ्य नहीं जो हमें थोड़ा सा भी कष्ट पहुँचा सके. साधन स्वरूप मन व बुद्धि तो हमें इस सुंदर सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने के लिये मिले हैं न कि दुखों का अम्बार ढोने के लिये.

सत्य की चाह

संत तुकाराम जी के जीवन पर आधारित घटनाओं को पढ़ने से पता चलता है कि उन्होंने काफ़ी कष्ट झेले. आग में तप कर ही सोना निखरता है. अंगुलिमाल की कथा पढ़कर भी भीतर कैसा विस्मय भर जाता है. हमारा अतीत चाहे जैसा भी हो यदि सत्य की चाह भीतर जग जाये तो ईश्वर तत्क्षण हमारा हाथ पकड़ लेते हैं. अतः अतीत में न रहकर वर्तमान में रहने का उपदेश हमें संत देते हैं. कर्म के सिद्धांत के अनुसार हम यदि इसी क्षण से सुकृत करें तो भविष्य सुधार सकते हैं. पिछले कर्मों का फल सहज भाव से स्वीकार करने का सामर्थ्य भी ईश्वर हमें देते हैं. फिर कष्ट कष्ट कहाँ रह जाता है. साधक अपने मार्ग तय कर लेता है. बल्कि देखा जाये तो ईश्वर ही उसका मार्ग तय कर देते हैं. मन में जो थोड़ी बहुत आशंका होती है कृपा उसे भी मिटा देती है. और तब सत्य ही एकमात्र उसके जीवन का केन्द्र बन जाता है. वह उसका हाथ पकड़ता है और ईश्वर उसका.

Thursday, December 29, 2011

जाना है उस पार


अगस्त २००२ 
ध्यान जब सधने लगता है तो कई अद्भुत अनुभव साधक को होते हैं. कितनी सुंदरता छिपी है हमारे भीतर, ईश्वर जहाँ है वहाँ तो सौंदर्य बिखरा ही होगा. ईश्वर प्राप्ति की आकांक्षा को इनसे बल मिलता है. सत्संग, स्वाध्याय व साधना को कभी त्यागना नहीं है, शरीर की अवस्था चाहे कैसी भी हो. बाहरी परिस्थितियां कैसी भी हों, अपने भीतर की यात्रा पर जाने से वे हमें रोकें नहीं. धीरे-धीरे इस मार्ग पर बढ़ना होता है और हृदय में यह दृढ़ विश्वास लिये कि इसी जन्म में मंजिल मिलेगी. मन से स्मरण कभी जाये नहीं तो मानना होगा कि उसने पूरी तरह इस पर अधिकार कर लिया है. सँग दोष  से बचना होगा और कमलवत् रहने की कला सीखनी होगी. वाणी का संयम व अन्तर्मुख होना भी आवश्यक है. मधुमय, रसमय और आनन्दमय उस ईश्वर को पाना कितना सरल है. चित्त के विक्षेप से ही वह दूर लगता है लेकिन यह विक्षेप तो भ्रम है, टिकेगा नहीं. वह शाश्वत है, अटल है, आधार है सबका. वह कहीं जाता नहीं. केवल चित्त की लहरों को शांत कर उसका दर्पण स्वच्छ करना है.

Tuesday, December 27, 2011

साधना पथ


अगस्त २००२ 
मन को नवीनता चाहिए सो ईश्वर की भक्ति के लिये जप, तप, ध्यान, सुमिरन, कीर्तन, स्वाध्याय  आदि अनेक उपाय शास्त्रों में सुझाये हैं. हर तरह की मानसिकता वाला व्यक्ति इस मार्ग पर चल सकता है, लेकिन सभी में उसे जानने की कामना तो होनी ही चाहिए. यह कामना सत्संग सुनने से भी उत्पन्न हो सकती है, अथवा शास्त्रों के अध्ययन से भी. यह भी आवश्यक नहीं कि सभी उसके बारे में एक जैसी अवधारणा रखें. कोई परम शक्ति, अन्य परम ज्ञान या परम आनंद के रूप में उसकी कल्पना करता है. उसे जानना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उस एक को जान कर सब कुछ जाना जा सकता है. वरना तो ज्ञान की इतनी शाखाएँ हैं और कई तो एक दूसरे का विरोध करती हुई प्रतीत होती हैं. यहाँ कुछ भी चिरस्थायी नहीं है. पल-पल हम मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं, न जाने कितने लोग हमारे देखते-देखते काल के गाल में समा गए, उनका कोई निशान भी नहीं बचता. वे एक से एक बड़े ज्ञानी थे, वैज्ञानिक थे, कलाकार थे, सामान्य जन थे. मृत्यु से पूर्व यदि इस रहस्य से पर्दा उठे कि हम यहाँ क्यों हैं? यह संसार क्या है? हमें बार-बार इस सुख-दुःख के झूले में क्यों झूलना पड़ता है? आदि, संभवतः इन सबका ज्ञान तो बहुत बाद में होगा किन्तु इस पथ पर चलते समय भी अनेक अनुभव होते है. चित्त को शुद्ध करने का प्रयास करते-करते समता भाव सधता है. प्रेम का शुद्ध स्वरूप निखरता है, ऐसा प्रेम जो स्वार्थी नहीं है, कल्याणकारी है, जो देना ही जानता है. मन की शांति भी तो एक अनुपम उपहार है.  

Monday, December 26, 2011

सत्य की डगर


अगस्त २००२ 
सत्य के पथ पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है, पग-पग पर चोट खाने का अंदेशा रहता है. थोड़ा सा भी अचेत हुए तो कभी अहंकार आकर अपनी छाया से ढक लेता है और कभी क्रोध ही अपने फन उठा लेता है. जो अनुभव पहले किये थे सारे हवा हो जाते हैं और मन एक बार फिर अपने को पंक में सना पाता है. कमलवत् जीवन के सारे ख्वाब बस ख्वाब ही रह जाते हैं. हृदय से  यदि भगवद् स्मृति एक पल के लिये भी न हटे तो हम मुक्त ही हैं. लेकिन ऐसी स्थिति आने से पूर्व सजगता खोनी नहीं है, यह महासंकल्प ही हमें उबारेगा. अन्यथा कौन हमें मार्ग दिखायेगा. हमारे अमर्यादित संकल्प ही हमें दुःख के भागी बनाते हैं. जीवन को यदि एक दिशा दे दी है तो जो भी कार्य उस दिशा से विमुख करने वाले हैं उन्हें त्याग देना ही ठीक है. ‘अगर है शौक मिलने का तो हरदम लौ लगाता जा’... .एक उसी की लौ अगर दिल में हो तो वहाँ अंधकार कैसे आ सकता है.  

Sunday, December 25, 2011

परम आकाश


अगस्त २००२ 
वह परमात्मा जिसे लोग मंदिरों में तलाशते हैं, मन के मंदिर में ही मिल सकता है. भक्त को वह अपने हृदय में प्रतीत होता है. वह भक्त को निर्देश देता है, प्रेम देता है, आनंद और ज्ञान देता है. उच्च मनोभूमि पर स्थापित करता है, द्वन्दों से परे ले जाता है, आकाश की तरह मुक्त वह परमात्मा स्वयं सच्चिदानंद है, उसकी अनुभूति होने के बाद संसार का सुख मृगतृष्णा की भांति प्रतीत होता है. भीतर का सुख शाश्वत है, असीम है, अपरिवर्तनीय है. जहाँ कोई रुकावट नहीं, कोई उहापोह नहीं, कोई चाह नहीं, कोई अपेक्षा नहीं. वह शाहों का शाह जब दिल में बसता हो तो और कुछ चाहने योग्य बचता भी कहाँ है. वह जिसका मीत बना हो उसका शोक सदा के लिये हर लिया जाता है. जीवन उत्सव बन जाता है. भक्ति, प्रेम और ज्ञान ही जीवन को तृप्त कर सकते हैं, इसका पता चलने पर अपनी कमियों को दूर करने की समझ भी बढ़ती है और संकल्प का बल भी मिलता है. एक छोटी सी किरण भी यदि उस परम की भीतर मिल जाये तो राह मिल जाती है.



Thursday, December 22, 2011

व्यक्ति व समाज


अगस्त २००२ 
आध्यात्मिकता का एक बड़ा उद्देश्य है लोक संग्रह यानि सेवा, अन्यों के जीवन में हम यदि खुशी का संचार कर सकें, प्रेम व भाईचारे का संदेश दे सकें तो समाज के ऋण से कुछ हद तक तो मुक्त हो सकते हैं. एक व्यक्ति समाज से कितना कुछ लेता है उसका शतांश भी वह लौटा सके तो उसका कितना भला होगा. सब ओर शांति का संदेश फैले, हमारा योगदान भी उसमें हो, ऐसा विचार ही मन-प्राण को ऊर्जा से भर जाता है. मन प्रमादी न ही, छल न करे न खुद से न औरों से, तो वहाँ प्रेम टिकता है और जो हमारे पास ज्यादा हो वही तो हम बाँट सकते हैं. परमात्मा के नाम का उच्चारण इसमें सहायक होता है. वह हमारे साथ है इस का दृढ़ विश्वास हमें हर द्वंद्व से मुक्त करता है.

Wednesday, December 21, 2011

उपवास कैसा हो


अगस्त २००२ 
आज एकादशी है, यानि पाक्षिक उपवास का दिन. सही मायने में उप-वास (निकट वास ) तभी होगा जब मन भगवद् भाव से परिपूर्ण रहे, यानि ईश्वर के निकट वास करे. भगवद् प्रेम की एक बूंद भी मन को भरने के लिये पर्याप्त है, वही मन जो संसार भर की वस्तुएं पाकर भी अतृप्त ही रहता है. ईश प्रेम में पूर्णता है, ज्ञान और आनंद का स्रोत भी वही है. उसका विस्मरण ही विकारों को हम पर अधिकार करने में सक्षम बनाता है, वरना तो दुःख हमें छू भी नहीं सकता. ऐसा प्रेम यदि हृदय में हो तो सृष्टि में कुछ भी अनचाहा नहीं रह जाता. सभी अपने हो जाते हैं. सभी के प्रति यदि समता का भाव रहेगा तो विषाद का स्थान कहाँ है ? न बाहर न भीतर, क्योंकि दोनों जगह तो वही है.


Sunday, December 18, 2011

स्वर्ग का राज्य


अगस्त २००२ 
जीवन रूपी साज से सुमधुर स्वर कैसे निकालें, इसका बोध हमें करना है, जीवन रूपी नौका में दुःख रूपी जल भरने न पाए इसका भी ज्ञान हमें लेना है और इस जग रूपी तलैया में कमलवत कैसे रहा जाये इसकी कला सीखनी है तभी हम उस स्वर्ग के अधिकारी हो सकते हैं जिसके बारे में ईसा ने कहा था कि वह हमारे भीतर है. ध्यान के समय जब मन टिक जाता है तो उसके ऊपर की परतें एक एक कर उतरने लगती है. ‘मैं’ और ‘मेरे’ की कल्पनाएँ और अहं का भारी गट्ठर जो हमने लाद रखा है, जो जीवन रूपी नदी के चिकने पत्थरों पर पांव टिकाने से हमें रोकता है, हम फिसलते ही चले जाते हैं, उसे भी उतार फेंकना है. मन शीशे सा पारदर्शी हो जाये, बिल्कुल हल्का तो परमात्मा की झलक अपने आप मिलने लगती है. हम व्यर्थ ही इतने सारे सवालों और जवाबों से मन को ढ़के रहते हैं, मूल तक पहुँच ही नहीं पाते. अपनी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों की रस्सी गले में बांध रखी है, इन्हें कोई ठेस पहुंचाए तो हम कैसे तिलमिला उठते हैं, अपने अनुकूल कोई बात न हो, तो मन कैसे बुझ जाता है. समता का भाव टिकाना हो तो सत्संग ही काम आता है. धर्म की रक्षा करें तो धर्म हमारी रक्षा करता है. फिर भी यदि विफलता आती है तो उसका स्वागत भी उसी तरह करना है जैसे सफलता का करते हैं. हर हाल में अपने मन की सौम्यता बनाये रखनी है. संसार को अपेक्षा से नहीं देखना है, पर उपेक्षा भी नहीं करनी है. उदासीनता होनी चाहिए उदासी नहीं. यही जीवन जीने की कला है.

Thursday, December 15, 2011

अस्तित्त्व का उपहार


अगस्त २००२ 

क्रोध वह है जो हमारे व्यक्तित्व को मिटा दे, कामना वह है जो हमें अपने इशारे पर नचाये, मोह वह है जो हमारा विवेक छीन ले. एक इच्छा पूरी होते ही दूसरी सर उठा लेती है जो बाधा बने उसके प्रति क्रोध, क्रोध से सम्मोहन, फिर समझ भी चली जाती है. तब मन का चैन, शांति, सुख सब विदा हो जाते हैं. कामना यदि सात्विक हो तो जीवन धारा ही बदल जाती है. जब यह ज्ञान हो कि तन साधन रूप है. नियमित जीवन, जीवन में हास्य, समय समय पर भोजन-जल, गहरी श्वास तथा नींद इसे स्वास्थ्य प्रदान करते हैं. मुस्कुराते, गुनगुनाते, तथा सबके भीतर तरंग पैदा करते हुए जीना ही सहज जीवन है. मन का स्नेह, बुद्धि का विचार, तथा आत्मा का स्वरूप सभी कुछ अस्तित्त्व का दिया हुआ है. जब तक हमारे पास है इसकी कद्र करनी है. उसकी आराधना करने के लिये हम उसी के प्रसाद का ही तो उपयोग करते हैं. तन का बल हो या मन का, हमें उपहार रूप में मिला है, इसका दुरूपयोग करने का भला हमें क्या अधिकार है. 

Wednesday, December 14, 2011

प्रेय और श्रेय

अगस्त २००२ 
मन जब भी उद्विग्न होता है कारण वही एक ही होता है. भीतर कोई इच्छा जन्मती है और जब तक वह पूरी नहीं होती मन कुरेदता रहता है. मन को अच्छी न लगे कोई ऐसी बात कह दे तो उसे ही समझाने लगता है. कोई बाधा बने तो क्रोध भी आता है. अर्थात मन पर हमारा नियंत्रण नहीं है, इसी बात की कसक भीतर रहती है. प्रेय और श्रेय दो प्रकार के कर्म हैं. प्रेय, जो क्षणिक सुख देते हैं, जो कार्य हमें प्रिय हैं चाहे वह श्रेष्ठ न भी हों, श्रेय वे हैं जो आरम्भ में सुखद न लगते हों पर अंततः सुखद होते हैं, जिन्हें कर के हमें कभी पछताना नहीं पड़ता. भक्त व साधक को तो श्रेय कार्य ही करने हैं, सजग रहना है. किसी के दोष देखना व समझाना भी छोड़ना होगा. व्यर्थ का चिंतन, व्यर्थ की वाणी, व्यर्थ के कार्यों से भी स्वयं को दूर करना होगा. क्योंकि मन को तृप्त करना वैसा ही है जैसे अग्नि को ईंधन देना. ईश्वरीय मार्ग पर चलने की इच्छा ही अपने आप में तृप्तिदायक है, आरम्भ में मध्य में और अंत में भी यह सुखद है. यह हमें मुक्त करती है, जैसे वह परमात्मा मुक्त है

Monday, December 12, 2011

परिपक्वता


अगस्त २००२ 
हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम हो तो धीरे-धीरे वही भक्ति में बदल जाता है. ईश्वर के साथ हमारा अनन्य सम्बन्ध है, इसका भास होने लगता है. प्रेम हमें हल्का करता है, द्वेष, ईर्ष्या व अहंकार हमें भारी बनाता है. प्रेम हमें विश्वासी बनाता है. जीवन क्षणभंगुर है, यह भान सदा बना रहे तो हम अपने अमूल्य जीवन के एक पल को भी प्रेमविहीन न होने दें, क्योंकि वास्तव में हम उन्हीं क्षणों में जीवित हैं, शेष समय तो हम व्यर्थ ही करते हैं. जैसे पका हुआ मन स्वयं ही झर जाता है, ऐसे ही परिपक्व मन स्वयं ही झुक जाता है, अपरिपक्व मन ही हठी होता है.

गुरुद्वार


अगस्त २००२ 
सदगुरु वास्तव में उसे ही मिलते हैं, जिसका हृदय उनकी कद्र जानता है. वास्तव में वह क्या हैं?, कौन हैं? कोई नहीं जानता. उनकी कृपा का एक अंश ही मिल जाये तो साधक का मार्ग प्रशस्त हो जाता है. लेकिन उसे पाने के लिये अहं को पूरी तरह नष्ट करना होगा. गुरु द्वार पर अकिंचन बन कर ही जाना होगा. उन्हें अहं तोड़ना आता है और जब वह ऐसा करें तो वहाँ से भाग आने के सिवा कुछ और भी करना सीखना होगा. अहं और ममता के दो ताले हैं जिन्हें खोले बिना हम ईश्वर तक नहीं पहुँच सकते. पर जहाँ प्रेम होता है वह तत्क्षण जवाब देते हैं. हृदय के सच्चे प्रेम को वह अस्वीकार नहीं कर पाते और धीरे-धीरे साधक के हृदय से अहंकार व ममता नष्ट होने लगते हैं.   

Saturday, December 10, 2011

सहज आनंद


जुलाई २००२ 
परमात्मा सब कारणों का कारण है, यह बात जब हमें पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है तभी पूर्ण समर्पण संभव है. और तब हमारी कोई निजी इच्छा नहीं रह जाती. हमारे निज का सुख-दुःख, राग-द्वेष अर्थात पसंद-नापसंद का कोई महत्व नहीं रह जाता. हम उसी की इच्छा को सर्वोपरि मानते हैं, और उसकी इच्छा क्या है इसका पता भी वही हमें बताता है, कोई भी ऐसा कार्य जिससे हमारे सहज सुख, स्वाभाविकता में अंतर आये वह उसके विपरीत है. अपने सहज आनंद में रहते हुए हम उसके साथ रहते हैं. जब भी हम अपनी इच्छा पूर्ति में लग जाते हैं नीचे के स्तर पर आ जाते हैं और इसी से क्रोध, मोह आदि विकारों के शिकार बन जाते हैं. तो जीवन मुक्ति का अर्थ हुआ कामनाओं से मुक्ति, जिसे कुछ नहीं चाहिए उसे कोई दुःख नहीं दे सकता, मान की इच्छा, सुख की इच्छा, स्नेह पाने की इच्छा में यदि अवरोध आये तो क्रोध का जन्म होता है. ईश्वर को यदि हृदय में बसाना है तो मन को शुद्ध सत्व में रखना ही होगा. निरंतर परमात्मा से जुड़े रहकर हम उसी के स्तर पर जीते हैं, जहाँ कोई भय नहीं, भय भी कामना से ही होता है. द्वन्द्वातीत और गुणातीत होना है तो मूल से जुडना होगा. शेष वह स्वयं ही कर लेता है.   

Thursday, December 8, 2011

अहंकार


july 2002 
बचपन में एक गीत सुना था “तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर देख चाँद की ओर” ! हमारे मन की गठरी में भी कई चोर लगे हैं. इच्छा, झुंझलाहट, मोह, सम्मान पाने की चाह, स्नेह पाने की चाह, ये सभी चोर ही तो हैं. इच्छा पूरी न हो तो क्रोध आता है, क्रोध, अहंकार को चोट लगने से हुई पीड़ा के कारण आता है. अहंकार एक गांठ है जो ऐसे ही चुभती है जैसे किसी के जूते में कंकर हो और पैर में गड़े. तभी तो यदि इच्छा पूरी हो जाये तो अहंकार को दृढ़ता मिलती है. एक साधक को जीवन में जो भी, जब भी मिलता जाये, चाहे वह अनुकूल हो या प्रतिकूल उसे अपने विकास में साधित करते जाना है. ईश्वर प्राप्ति की इच्छा बनी रहे तो शेष स्वयं ही छूटती चली जाती हैं. 

Wednesday, December 7, 2011

सत्य और शुभ

जुलाई २००२ 
ईश्वर हमारा अंतरंग है. उसकी उपासना करने के लिये विधि-विधान की नहीं भाव भरे हृदय की आवश्यकता है. सहज रूप से जब अंतर में उसके प्रति प्रेम की हिलोर उठे तो उसी क्षण पूजा हो गयी, फिर धीरे-धीरे यह प्रेम उसकी सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के प्रति उत्पन्न होने लगता है. शुद्ध प्रेम के कारण ही परमात्मा भक्त के कुशल-क्षेम का वहन करते हैं. मन विश्रांति का अनुभव करता है, हमारा सामर्थ्य बढ़ता है. सत्य और शुभ के प्रति सहज प्रेम ही ईश्वर की राह में उठाया पहला कदम है. 

Tuesday, December 6, 2011

चंचल है मन


 जुलाई २००२ 
भगवद् गीता में अर्जुन ने कहा है, वायु को वश में करना सरल है, पर हे केशव ! इस मन को वश में करना कठिन  है. मन अति चंचल है. दरअसल मन एक छोटे बालक की तरह व्यवहार करता  है. उसे उसी तरह मनाना, पुचकारना तथा कभी-कभी फटकारना भी पड़ता है. साधक का ध्येय है अनवरत चलती विचारों की श्रंखला को तोड़ना, क्योंकि मुक्त तभी हुआ जा सकता है. सो ध्यान में हर क्षण मन पर नजर रखनी होगी, कि कहीं कोई बिन बुलाए मेहमान की तरह कोई विचार तो प्रवेश नहीं कर रहा. उसे क्षण भर देखें तो जैसे सागर में उठी लहर स्वयं शांत हो जाती है, वह विचार स्वयं शांत हो जाता है. पर देखना पड़ेगा, अन्यथा पता ही नहीं चलता और एक से दूसरा शुरू होते-होते श्रंखला सी बन जाती है.

Saturday, December 3, 2011

सतत् साधना


जुलाई २००२ 
सात्विक साधक लाख कठिनाइयाँ आने पर भी अपने पथ से विचलित नहीं होता. ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम, गुरु के प्रति अनन्य श्रद्धा तथा सभी प्राणियों के प्रति समभाव उसके हृदय में बने ही रहते हैं. सुख-दुःख जो प्रारब्ध के अनुसार मिलने वाले हैं उसको विचलित नहीं कर पाते. द्वन्द्वातीत होने में वह सफल हो, ऐसा ही उसका लक्ष्य रहता है. हमें भी स्थितप्रज्ञ होने के लिये ऐसा ही साधक बनना है. हृदय कोमल हो, प्रेम की धारा उसमें कभी सूखने न पाए, साथ ही यह ज्ञान भी जाग्रत रहे कि आनंद स्वरूप ईश्वर को पाना ही एकमात्र लक्ष्य है. उस परम लक्ष्य को पाये बिना हम चैन से न बैठें. हमारी पूजा, ध्यान, भक्ति व सेवा का केंद्र एकमात्र वही एक हो. रज व तम तब स्वतः विलीन होते जायेंगे, वासनाएं क्षीण होते-होते नष्ट हो जाएँगी, और एक दिन हम अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होंगे. 

Thursday, December 1, 2011

परम लक्ष्य


जुलाई २००२ 

ईश्वर के प्रेम में रंगने की चाह हो तो जीवन से प्रमाद, आलस्य, व अधिक निद्रा विदा हो जानी चाहिए. हम जितनी ऊँची वस्तु पाना चाहते हैं कीमत भी उतनी ही देनी पड़ती है. ब्रह्म ज्ञान अथवा आत्मसाक्षात्कार जैसे अमूल्य खजाने की प्राप्ति हेतु जितनी कीमत देनी पड़े कम है. एक दिन भी हम चूकने न पाएँ. कैसी भी व्यस्तता हो पर ध्यान से हम च्युत न हों. सजगता नहीं छूटे. जीवन को हर दिन एक नए उत्साह के साथ जियें मानो आज ही वह दिन हो जब परम सत्य के दर्शन होने वाले हैं. जीवन संयमित हो, बिखरी हुई वृत्तियों को मोक्ष की तरफ ले जाना ही एक मात्र लक्ष्य हो. आत्मभाव में रहना, आत्मतृप्ति व आत्मप्रकाश पाना ही ध्येय हो जाये. इस सरकते हुए अनित्य संसार में नित्य तत्व का ज्ञान हो जाये. नश्वरता में शाश्वत के दर्शन होने लगें. मृत्यु का जाल हमें जकड़ न पाए, शुद्ध, नित्य, चेतन तत्व का अनुभव जीते जी हो जाये. साथ ही भक्ति से प्राप्त होने वाला शुद्ध सात्विक आनंद हमारे जीवन से कभी लुप्त न होने पाए, सदगुरु की कृपा के पात्र हम बने रहें.