हमें पर्वत की भांति अडोल होना है और यह भाव आत्मज्ञान से आता है. हमें अपने मन को अपने से पृथक देखना है. उसे साधन मानते हुए शुद्ध करना है. धीरे धीरे हम एक अद्भुत शांति का अनुभव करते हैं..आत्मभाव में कितना सहज सुख है. देह, मन व बुद्धि से स्वयं को संयुक्त करके हम व्यर्थ ही अपने को सुखी व दुखी मानते हैं जबकि संसार की किसी भी वस्तु में यह सामर्थ्य नहीं जो हमें थोड़ा सा भी कष्ट पहुँचा सके. साधन स्वरूप मन व बुद्धि तो हमें इस सुंदर सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने के लिये मिले हैं न कि दुखों का अम्बार ढोने के लिये.
Friday, December 30, 2011
सत्य की चाह
संत तुकाराम जी के जीवन पर आधारित घटनाओं को पढ़ने से पता चलता है कि उन्होंने काफ़ी कष्ट झेले. आग में तप कर ही सोना निखरता है. अंगुलिमाल की कथा पढ़कर भी भीतर कैसा विस्मय भर जाता है. हमारा अतीत चाहे जैसा भी हो यदि सत्य की चाह भीतर जग जाये तो ईश्वर तत्क्षण हमारा हाथ पकड़ लेते हैं. अतः अतीत में न रहकर वर्तमान में रहने का उपदेश हमें संत देते हैं. कर्म के सिद्धांत के अनुसार हम यदि इसी क्षण से सुकृत करें तो भविष्य सुधार सकते हैं. पिछले कर्मों का फल सहज भाव से स्वीकार करने का सामर्थ्य भी ईश्वर हमें देते हैं. फिर कष्ट कष्ट कहाँ रह जाता है. साधक अपने मार्ग तय कर लेता है. बल्कि देखा जाये तो ईश्वर ही उसका मार्ग तय कर देते हैं. मन में जो थोड़ी बहुत आशंका होती है कृपा उसे भी मिटा देती है. और तब सत्य ही एकमात्र उसके जीवन का केन्द्र बन जाता है. वह उसका हाथ पकड़ता है और ईश्वर उसका.
Thursday, December 29, 2011
जाना है उस पार
अगस्त २००२
ध्यान जब सधने लगता है तो कई अद्भुत अनुभव साधक को होते हैं. कितनी सुंदरता छिपी है हमारे भीतर, ईश्वर जहाँ है वहाँ तो सौंदर्य बिखरा ही होगा. ईश्वर प्राप्ति की आकांक्षा को इनसे बल मिलता है. सत्संग, स्वाध्याय व साधना को कभी त्यागना नहीं है, शरीर की अवस्था चाहे कैसी भी हो. बाहरी परिस्थितियां कैसी भी हों, अपने भीतर की यात्रा पर जाने से वे हमें रोकें नहीं. धीरे-धीरे इस मार्ग पर बढ़ना होता है और हृदय में यह दृढ़ विश्वास लिये कि इसी जन्म में मंजिल मिलेगी. मन से स्मरण कभी जाये नहीं तो मानना होगा कि उसने पूरी तरह इस पर अधिकार कर लिया है. सँग दोष से बचना होगा और कमलवत् रहने की कला सीखनी होगी. वाणी का संयम व अन्तर्मुख होना भी आवश्यक है. मधुमय, रसमय और आनन्दमय उस ईश्वर को पाना कितना सरल है. चित्त के विक्षेप से ही वह दूर लगता है लेकिन यह विक्षेप तो भ्रम है, टिकेगा नहीं. वह शाश्वत है, अटल है, आधार है सबका. वह कहीं जाता नहीं. केवल चित्त की लहरों को शांत कर उसका दर्पण स्वच्छ करना है.
Tuesday, December 27, 2011
साधना पथ
अगस्त २००२
मन को नवीनता चाहिए सो ईश्वर की भक्ति के लिये जप, तप, ध्यान, सुमिरन, कीर्तन, स्वाध्याय आदि अनेक उपाय शास्त्रों में सुझाये हैं. हर तरह की मानसिकता वाला व्यक्ति इस मार्ग पर चल सकता है, लेकिन सभी में उसे जानने की कामना तो होनी ही चाहिए. यह कामना सत्संग सुनने से भी उत्पन्न हो सकती है, अथवा शास्त्रों के अध्ययन से भी. यह भी आवश्यक नहीं कि सभी उसके बारे में एक जैसी अवधारणा रखें. कोई परम शक्ति, अन्य परम ज्ञान या परम आनंद के रूप में उसकी कल्पना करता है. उसे जानना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उस एक को जान कर सब कुछ जाना जा सकता है. वरना तो ज्ञान की इतनी शाखाएँ हैं और कई तो एक दूसरे का विरोध करती हुई प्रतीत होती हैं. यहाँ कुछ भी चिरस्थायी नहीं है. पल-पल हम मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं, न जाने कितने लोग हमारे देखते-देखते काल के गाल में समा गए, उनका कोई निशान भी नहीं बचता. वे एक से एक बड़े ज्ञानी थे, वैज्ञानिक थे, कलाकार थे, सामान्य जन थे. मृत्यु से पूर्व यदि इस रहस्य से पर्दा उठे कि हम यहाँ क्यों हैं? यह संसार क्या है? हमें बार-बार इस सुख-दुःख के झूले में क्यों झूलना पड़ता है? आदि, संभवतः इन सबका ज्ञान तो बहुत बाद में होगा किन्तु इस पथ पर चलते समय भी अनेक अनुभव होते है. चित्त को शुद्ध करने का प्रयास करते-करते समता भाव सधता है. प्रेम का शुद्ध स्वरूप निखरता है, ऐसा प्रेम जो स्वार्थी नहीं है, कल्याणकारी है, जो देना ही जानता है. मन की शांति भी तो एक अनुपम उपहार है.
Monday, December 26, 2011
सत्य की डगर
अगस्त २००२
सत्य के पथ पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है, पग-पग पर चोट खाने का अंदेशा रहता है. थोड़ा सा भी अचेत हुए तो कभी अहंकार आकर अपनी छाया से ढक लेता है और कभी क्रोध ही अपने फन उठा लेता है. जो अनुभव पहले किये थे सारे हवा हो जाते हैं और मन एक बार फिर अपने को पंक में सना पाता है. कमलवत् जीवन के सारे ख्वाब बस ख्वाब ही रह जाते हैं. हृदय से यदि भगवद् स्मृति एक पल के लिये भी न हटे तो हम मुक्त ही हैं. लेकिन ऐसी स्थिति आने से पूर्व सजगता खोनी नहीं है, यह महासंकल्प ही हमें उबारेगा. अन्यथा कौन हमें मार्ग दिखायेगा. हमारे अमर्यादित संकल्प ही हमें दुःख के भागी बनाते हैं. जीवन को यदि एक दिशा दे दी है तो जो भी कार्य उस दिशा से विमुख करने वाले हैं उन्हें त्याग देना ही ठीक है. ‘अगर है शौक मिलने का तो हरदम लौ लगाता जा’... .एक उसी की लौ अगर दिल में हो तो वहाँ अंधकार कैसे आ सकता है.
Sunday, December 25, 2011
परम आकाश
अगस्त २००२
वह परमात्मा जिसे लोग मंदिरों में तलाशते हैं, मन के मंदिर में ही मिल सकता है. भक्त को वह अपने हृदय में प्रतीत होता है. वह भक्त को निर्देश देता है, प्रेम देता है, आनंद और ज्ञान देता है. उच्च मनोभूमि पर स्थापित करता है, द्वन्दों से परे ले जाता है, आकाश की तरह मुक्त वह परमात्मा स्वयं सच्चिदानंद है, उसकी अनुभूति होने के बाद संसार का सुख मृगतृष्णा की भांति प्रतीत होता है. भीतर का सुख शाश्वत है, असीम है, अपरिवर्तनीय है. जहाँ कोई रुकावट नहीं, कोई उहापोह नहीं, कोई चाह नहीं, कोई अपेक्षा नहीं. वह शाहों का शाह जब दिल में बसता हो तो और कुछ चाहने योग्य बचता भी कहाँ है. वह जिसका मीत बना हो उसका शोक सदा के लिये हर लिया जाता है. जीवन उत्सव बन जाता है. भक्ति, प्रेम और ज्ञान ही जीवन को तृप्त कर सकते हैं, इसका पता चलने पर अपनी कमियों को दूर करने की समझ भी बढ़ती है और संकल्प का बल भी मिलता है. एक छोटी सी किरण भी यदि उस परम की भीतर मिल जाये तो राह मिल जाती है.
Thursday, December 22, 2011
व्यक्ति व समाज
अगस्त २००२
आध्यात्मिकता का एक बड़ा उद्देश्य है लोक संग्रह यानि सेवा, अन्यों के जीवन में हम यदि खुशी का संचार कर सकें, प्रेम व भाईचारे का संदेश दे सकें तो समाज के ऋण से कुछ हद तक तो मुक्त हो सकते हैं. एक व्यक्ति समाज से कितना कुछ लेता है उसका शतांश भी वह लौटा सके तो उसका कितना भला होगा. सब ओर शांति का संदेश फैले, हमारा योगदान भी उसमें हो, ऐसा विचार ही मन-प्राण को ऊर्जा से भर जाता है. मन प्रमादी न ही, छल न करे न खुद से न औरों से, तो वहाँ प्रेम टिकता है और जो हमारे पास ज्यादा हो वही तो हम बाँट सकते हैं. परमात्मा के नाम का उच्चारण इसमें सहायक होता है. वह हमारे साथ है इस का दृढ़ विश्वास हमें हर द्वंद्व से मुक्त करता है.
Wednesday, December 21, 2011
उपवास कैसा हो
अगस्त २००२
आज एकादशी है, यानि पाक्षिक उपवास का दिन. सही मायने में उप-वास (निकट वास ) तभी होगा जब मन भगवद् भाव से परिपूर्ण रहे, यानि ईश्वर के निकट वास करे. भगवद् प्रेम की एक बूंद भी मन को भरने के लिये पर्याप्त है, वही मन जो संसार भर की वस्तुएं पाकर भी अतृप्त ही रहता है. ईश प्रेम में पूर्णता है, ज्ञान और आनंद का स्रोत भी वही है. उसका विस्मरण ही विकारों को हम पर अधिकार करने में सक्षम बनाता है, वरना तो दुःख हमें छू भी नहीं सकता. ऐसा प्रेम यदि हृदय में हो तो सृष्टि में कुछ भी अनचाहा नहीं रह जाता. सभी अपने हो जाते हैं. सभी के प्रति यदि समता का भाव रहेगा तो विषाद का स्थान कहाँ है ? न बाहर न भीतर, क्योंकि दोनों जगह तो वही है.
Sunday, December 18, 2011
स्वर्ग का राज्य
अगस्त २००२
जीवन रूपी साज से सुमधुर स्वर कैसे निकालें, इसका बोध हमें करना है, जीवन रूपी नौका में दुःख रूपी जल भरने न पाए इसका भी ज्ञान हमें लेना है और इस जग रूपी तलैया में कमलवत कैसे रहा जाये इसकी कला सीखनी है तभी हम उस स्वर्ग के अधिकारी हो सकते हैं जिसके बारे में ईसा ने कहा था कि वह हमारे भीतर है. ध्यान के समय जब मन टिक जाता है तो उसके ऊपर की परतें एक एक कर उतरने लगती है. ‘मैं’ और ‘मेरे’ की कल्पनाएँ और अहं का भारी गट्ठर जो हमने लाद रखा है, जो जीवन रूपी नदी के चिकने पत्थरों पर पांव टिकाने से हमें रोकता है, हम फिसलते ही चले जाते हैं, उसे भी उतार फेंकना है. मन शीशे सा पारदर्शी हो जाये, बिल्कुल हल्का तो परमात्मा की झलक अपने आप मिलने लगती है. हम व्यर्थ ही इतने सारे सवालों और जवाबों से मन को ढ़के रहते हैं, मूल तक पहुँच ही नहीं पाते. अपनी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों की रस्सी गले में बांध रखी है, इन्हें कोई ठेस पहुंचाए तो हम कैसे तिलमिला उठते हैं, अपने अनुकूल कोई बात न हो, तो मन कैसे बुझ जाता है. समता का भाव टिकाना हो तो सत्संग ही काम आता है. धर्म की रक्षा करें तो धर्म हमारी रक्षा करता है. फिर भी यदि विफलता आती है तो उसका स्वागत भी उसी तरह करना है जैसे सफलता का करते हैं. हर हाल में अपने मन की सौम्यता बनाये रखनी है. संसार को अपेक्षा से नहीं देखना है, पर उपेक्षा भी नहीं करनी है. उदासीनता होनी चाहिए उदासी नहीं. यही जीवन जीने की कला है.
Thursday, December 15, 2011
अस्तित्त्व का उपहार
अगस्त २००२
क्रोध वह है जो हमारे व्यक्तित्व को मिटा दे, कामना वह है जो हमें अपने इशारे पर नचाये, मोह वह है जो हमारा विवेक छीन ले. एक इच्छा पूरी होते ही दूसरी सर उठा लेती है जो बाधा बने उसके प्रति क्रोध, क्रोध से सम्मोहन, फिर समझ भी चली जाती है. तब मन का चैन, शांति, सुख सब विदा हो जाते हैं. कामना यदि सात्विक हो तो जीवन धारा ही बदल जाती है. जब यह ज्ञान हो कि तन साधन रूप है. नियमित जीवन, जीवन में हास्य, समय समय पर भोजन-जल, गहरी श्वास तथा नींद इसे स्वास्थ्य प्रदान करते हैं. मुस्कुराते, गुनगुनाते, तथा सबके भीतर तरंग पैदा करते हुए जीना ही सहज जीवन है. मन का स्नेह, बुद्धि का विचार, तथा आत्मा का स्वरूप सभी कुछ अस्तित्त्व का दिया हुआ है. जब तक हमारे पास है इसकी कद्र करनी है. उसकी आराधना करने के लिये हम उसी के प्रसाद का ही तो उपयोग करते हैं. तन का बल हो या मन का, हमें उपहार रूप में मिला है, इसका दुरूपयोग करने का भला हमें क्या अधिकार है.
Wednesday, December 14, 2011
प्रेय और श्रेय
अगस्त २००२
मन जब भी उद्विग्न होता है कारण वही एक ही होता है. भीतर कोई इच्छा जन्मती है और जब तक वह पूरी नहीं होती मन कुरेदता रहता है. मन को अच्छी न लगे कोई ऐसी बात कह दे तो उसे ही समझाने लगता है. कोई बाधा बने तो क्रोध भी आता है. अर्थात मन पर हमारा नियंत्रण नहीं है, इसी बात की कसक भीतर रहती है. प्रेय और श्रेय दो प्रकार के कर्म हैं. प्रेय, जो क्षणिक सुख देते हैं, जो कार्य हमें प्रिय हैं चाहे वह श्रेष्ठ न भी हों, श्रेय वे हैं जो आरम्भ में सुखद न लगते हों पर अंततः सुखद होते हैं, जिन्हें कर के हमें कभी पछताना नहीं पड़ता. भक्त व साधक को तो श्रेय कार्य ही करने हैं, सजग रहना है. किसी के दोष देखना व समझाना भी छोड़ना होगा. व्यर्थ का चिंतन, व्यर्थ की वाणी, व्यर्थ के कार्यों से भी स्वयं को दूर करना होगा. क्योंकि मन को तृप्त करना वैसा ही है जैसे अग्नि को ईंधन देना. ईश्वरीय मार्ग पर चलने की इच्छा ही अपने आप में तृप्तिदायक है, आरम्भ में मध्य में और अंत में भी यह सुखद है. यह हमें मुक्त करती है, जैसे वह परमात्मा मुक्त हैMonday, December 12, 2011
परिपक्वता
अगस्त २००२
हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम हो तो धीरे-धीरे वही भक्ति में बदल जाता है. ईश्वर के साथ हमारा अनन्य सम्बन्ध है, इसका भास होने लगता है. प्रेम हमें हल्का करता है, द्वेष, ईर्ष्या व अहंकार हमें भारी बनाता है. प्रेम हमें विश्वासी बनाता है. जीवन क्षणभंगुर है, यह भान सदा बना रहे तो हम अपने अमूल्य जीवन के एक पल को भी प्रेमविहीन न होने दें, क्योंकि वास्तव में हम उन्हीं क्षणों में जीवित हैं, शेष समय तो हम व्यर्थ ही करते हैं. जैसे पका हुआ मन स्वयं ही झर जाता है, ऐसे ही परिपक्व मन स्वयं ही झुक जाता है, अपरिपक्व मन ही हठी होता है.
गुरुद्वार
अगस्त २००२
सदगुरु वास्तव में उसे ही मिलते हैं, जिसका हृदय उनकी कद्र जानता है. वास्तव में वह क्या हैं?, कौन हैं? कोई नहीं जानता. उनकी कृपा का एक अंश ही मिल जाये तो साधक का मार्ग प्रशस्त हो जाता है. लेकिन उसे पाने के लिये अहं को पूरी तरह नष्ट करना होगा. गुरु द्वार पर अकिंचन बन कर ही जाना होगा. उन्हें अहं तोड़ना आता है और जब वह ऐसा करें तो वहाँ से भाग आने के सिवा कुछ और भी करना सीखना होगा. अहं और ममता के दो ताले हैं जिन्हें खोले बिना हम ईश्वर तक नहीं पहुँच सकते. पर जहाँ प्रेम होता है वह तत्क्षण जवाब देते हैं. हृदय के सच्चे प्रेम को वह अस्वीकार नहीं कर पाते और धीरे-धीरे साधक के हृदय से अहंकार व ममता नष्ट होने लगते हैं.
Saturday, December 10, 2011
सहज आनंद
जुलाई २००२
परमात्मा सब कारणों का कारण है, यह बात जब हमें पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है तभी पूर्ण समर्पण संभव है. और तब हमारी कोई निजी इच्छा नहीं रह जाती. हमारे निज का सुख-दुःख, राग-द्वेष अर्थात पसंद-नापसंद का कोई महत्व नहीं रह जाता. हम उसी की इच्छा को सर्वोपरि मानते हैं, और उसकी इच्छा क्या है इसका पता भी वही हमें बताता है, कोई भी ऐसा कार्य जिससे हमारे सहज सुख, स्वाभाविकता में अंतर आये वह उसके विपरीत है. अपने सहज आनंद में रहते हुए हम उसके साथ रहते हैं. जब भी हम अपनी इच्छा पूर्ति में लग जाते हैं नीचे के स्तर पर आ जाते हैं और इसी से क्रोध, मोह आदि विकारों के शिकार बन जाते हैं. तो जीवन मुक्ति का अर्थ हुआ कामनाओं से मुक्ति, जिसे कुछ नहीं चाहिए उसे कोई दुःख नहीं दे सकता, मान की इच्छा, सुख की इच्छा, स्नेह पाने की इच्छा में यदि अवरोध आये तो क्रोध का जन्म होता है. ईश्वर को यदि हृदय में बसाना है तो मन को शुद्ध सत्व में रखना ही होगा. निरंतर परमात्मा से जुड़े रहकर हम उसी के स्तर पर जीते हैं, जहाँ कोई भय नहीं, भय भी कामना से ही होता है. द्वन्द्वातीत और गुणातीत होना है तो मूल से जुडना होगा. शेष वह स्वयं ही कर लेता है.
Thursday, December 8, 2011
अहंकार
july 2002
बचपन में एक गीत सुना था “तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर देख चाँद की ओर” ! हमारे मन की गठरी में भी कई चोर लगे हैं. इच्छा, झुंझलाहट, मोह, सम्मान पाने की चाह, स्नेह पाने की चाह, ये सभी चोर ही तो हैं. इच्छा पूरी न हो तो क्रोध आता है, क्रोध, अहंकार को चोट लगने से हुई पीड़ा के कारण आता है. अहंकार एक गांठ है जो ऐसे ही चुभती है जैसे किसी के जूते में कंकर हो और पैर में गड़े. तभी तो यदि इच्छा पूरी हो जाये तो अहंकार को दृढ़ता मिलती है. एक साधक को जीवन में जो भी, जब भी मिलता जाये, चाहे वह अनुकूल हो या प्रतिकूल उसे अपने विकास में साधित करते जाना है. ईश्वर प्राप्ति की इच्छा बनी रहे तो शेष स्वयं ही छूटती चली जाती हैं.
Wednesday, December 7, 2011
सत्य और शुभ
जुलाई २००२
ईश्वर हमारा अंतरंग है. उसकी उपासना करने के लिये विधि-विधान की नहीं भाव भरे हृदय की आवश्यकता है. सहज रूप से जब अंतर में उसके प्रति प्रेम की हिलोर उठे तो उसी क्षण पूजा हो गयी, फिर धीरे-धीरे यह प्रेम उसकी सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के प्रति उत्पन्न होने लगता है. शुद्ध प्रेम के कारण ही परमात्मा भक्त के कुशल-क्षेम का वहन करते हैं. मन विश्रांति का अनुभव करता है, हमारा सामर्थ्य बढ़ता है. सत्य और शुभ के प्रति सहज प्रेम ही ईश्वर की राह में उठाया पहला कदम है.
Tuesday, December 6, 2011
चंचल है मन
भगवद् गीता में अर्जुन ने कहा है, वायु को वश में करना सरल है, पर हे केशव ! इस मन को वश में करना कठिन है. मन अति चंचल है. दरअसल मन एक छोटे बालक की तरह व्यवहार करता है. उसे उसी तरह मनाना, पुचकारना तथा कभी-कभी फटकारना भी पड़ता है. साधक का ध्येय है अनवरत चलती विचारों की श्रंखला को तोड़ना, क्योंकि मुक्त तभी हुआ जा सकता है. सो ध्यान में हर क्षण मन पर नजर रखनी होगी, कि कहीं कोई बिन बुलाए मेहमान की तरह कोई विचार तो प्रवेश नहीं कर रहा. उसे क्षण भर देखें तो जैसे सागर में उठी लहर स्वयं शांत हो जाती है, वह विचार स्वयं शांत हो जाता है. पर देखना पड़ेगा, अन्यथा पता ही नहीं चलता और एक से दूसरा शुरू होते-होते श्रंखला सी बन जाती है.
Saturday, December 3, 2011
सतत् साधना
जुलाई २००२
सात्विक साधक लाख कठिनाइयाँ आने पर भी अपने पथ से विचलित नहीं होता. ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम, गुरु के प्रति अनन्य श्रद्धा तथा सभी प्राणियों के प्रति समभाव उसके हृदय में बने ही रहते हैं. सुख-दुःख जो प्रारब्ध के अनुसार मिलने वाले हैं उसको विचलित नहीं कर पाते. द्वन्द्वातीत होने में वह सफल हो, ऐसा ही उसका लक्ष्य रहता है. हमें भी स्थितप्रज्ञ होने के लिये ऐसा ही साधक बनना है. हृदय कोमल हो, प्रेम की धारा उसमें कभी सूखने न पाए, साथ ही यह ज्ञान भी जाग्रत रहे कि आनंद स्वरूप ईश्वर को पाना ही एकमात्र लक्ष्य है. उस परम लक्ष्य को पाये बिना हम चैन से न बैठें. हमारी पूजा, ध्यान, भक्ति व सेवा का केंद्र एकमात्र वही एक हो. रज व तम तब स्वतः विलीन होते जायेंगे, वासनाएं क्षीण होते-होते नष्ट हो जाएँगी, और एक दिन हम अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होंगे.
Thursday, December 1, 2011
परम लक्ष्य
जुलाई २००२
ईश्वर के प्रेम में रंगने की चाह हो तो जीवन से प्रमाद, आलस्य, व अधिक निद्रा विदा हो जानी चाहिए. हम जितनी ऊँची वस्तु पाना चाहते हैं कीमत भी उतनी ही देनी पड़ती है. ब्रह्म ज्ञान अथवा आत्मसाक्षात्कार जैसे अमूल्य खजाने की प्राप्ति हेतु जितनी कीमत देनी पड़े कम है. एक दिन भी हम चूकने न पाएँ. कैसी भी व्यस्तता हो पर ‘ध्यान’ से हम च्युत न हों. सजगता नहीं छूटे. जीवन को हर दिन एक नए उत्साह के साथ जियें मानो आज ही वह दिन हो जब परम सत्य के दर्शन होने वाले हैं. जीवन संयमित हो, बिखरी हुई वृत्तियों को मोक्ष की तरफ ले जाना ही एक मात्र लक्ष्य हो. आत्मभाव में रहना, आत्मतृप्ति व आत्मप्रकाश पाना ही ध्येय हो जाये. इस सरकते हुए अनित्य संसार में नित्य तत्व का ज्ञान हो जाये. नश्वरता में शाश्वत के दर्शन होने लगें. मृत्यु का जाल हमें जकड़ न पाए, शुद्ध, नित्य, चेतन तत्व का अनुभव जीते जी हो जाये. साथ ही भक्ति से प्राप्त होने वाला शुद्ध सात्विक आनंद हमारे जीवन से कभी लुप्त न होने पाए, सदगुरु की कृपा के पात्र हम बने रहें.
Wednesday, November 30, 2011
अहंकार
जुलाई २००२
यह जो भीतर हल्की सी चुभन कभी-कभी रह-रह कर प्रतीत होती है, वह हमारा अहंकार ही तो है. और हद यह कि यह मिथ्या अहंकार है. जब सारा जगत स्वप्नवत् है तो स्वप्न में किया गया कार्य हमें इतना प्रभावित क्यों करे. यदि हम प्रतिक्रिया वश स्वयं को अपने उच्च पद से नीचे गिराते हैं तो इसमें कोई वीरता तो नहीं. चट्टान से दृढ़ बनने का संकल्प लिया हो या पानी कि धार सा निर्मल व गतिमान, दोनों ही परिस्थितियों में बाहरी आघात हमें चोट नहीं पहुँचा सकते. पानी पर लकीर डालो तो वह मिट जाती है, चट्टान को कुछ कहो तो वह प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती. हमें कैसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़े, कोई बात नहीं. जब हम अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हैं तो अन्य कोई उपादान हमारे सुख-दुःख का कारण क्यों बने. जो मुक्त करे वही ज्ञान है. हृदय में कोई गांठ न रहे. एक-एक कर सारी गांठों को खोलते जाना है. पहले बाहर की ममता फिर देह, मन व बुद्धि के प्रति आसक्ति का त्याग. जो अहं को त्याग सके वही सच्चा साधक है
Tuesday, November 29, 2011
सत्संग की महिमा
"अन्यों का हित चिंतन करें तो हमारा सामर्थ्य अपने आप बढ़ता है, जितना-जितना हम अन्यों की प्रशंसा करते हैं उतना उतना मन शांत होता है. मान भोगने की वस्तु नहीं है, देने की वस्तु है." सत्संग में कितने व्यवहारिक उपाय मिलते हैं. इसके बिना जीवन बिना पतवार की नाव के समान है. सत्संग हमें सामान्य मानव से ऊपर उठाकर सत्य के सम्मुख लाकर खड़ा कर देता है. परनिंदा व मीनमेख निकलने के लिये मन सदा तत्पर रहता है, इस आदत से मुक्त होना स्वयं के लिये ही अच्छा है. जब भी ऐसा होने लगे तो तारीफ ही करनी चाहिए. आखिर सभी में तो वह परमात्मा है जिसकी खोज में हम लगे हैं. सभी के भीतर तो उसी परम शुद्ध, निर्मल, अविकारी चैतन्य का वास है. ऊपर तो आवरण मात्र है और सभी को एक न एक दिन मुक्त होना है. सभी उस पथ के राही हैं.
ईश्वर और जीव
जुलाई २००२
यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर में स्थित है. यह सृष्टि ईश्वर, जीव, प्रकृति, कर्म और काल से मिलकर बनी है. प्रकृति अपने गुणों के अनुसार कार्य करती है. कर्म के अनुसार हमें इस जगत में भेजा जाता है. काल सबका साक्षी है. ईश्वर को त्याग कर जीव जीने की इच्छा से आता है. उसी परमब्रह्म के अंश होने के कारण हम जीव उससे अभिन्न हैं. देहाध्यास ही हमें उससे पृथक करता है. कण-कण में वह व्याप्त है, वह अनंत है, मुक्त है, दिव्य है, चेतन है, आनंद स्वरूप है. उसे जानना ही हमारा अंतिम लक्ष्य है. उसके प्रति अगाध श्रद्धा व भक्ति ही हमें इस असार जगत में स्थिर रखती है. वह आदिदेव है, अजन्मा है, विभु है, सब कुछ उसी से हुआ है, और उसी में समा जाने वाला है. हमारा कर्तव्य यही है कि हम उसके जगत की सेवा करें, उसके लिये जियें उसे स्मरण करते हुए जियें, यही हमारा सहज स्वभाव है, उसके अंश होने के कारण उसकी ओर खिंचना एक सहज स्वाभाविक क्रिया है. हम उसे चाहते हैं. उसी की आकांक्षा करते हैं, उसके दर्शन का अनुभव करना चाहते हैं. और यहीं से भक्ति का आरम्भ होता है. भक्ति का उदय होने पर संसार धीरे-धीरे छूटने लगता है. कामनाएं निरर्थक जान पड़ती हैं. ईश्वरीय सुख अनुपम है, उसे जानने के बाद जगत के सुख अर्थहीन प्रतीत होते हैं. तब हृदय में सेवा का सामर्थ्य उत्पन्न होता है. स्व का विस्तार होता है. समभाव की उत्पत्ति होती है. यही मुक्ति है जिसे एक न एक दिन सभी को पाना है.
Monday, November 28, 2011
कृष्णं वन्दे
कृष्ण परमगुरु हैं, जो हमारे अंतर में विद्यमान हैं. हमें हर क्षण अपनी ओर खींचने का प्रयास करते हैं. उनकी मुस्कान अनोखी है, उनकी वाणी अद्भुत है जिससे वह युद्ध भूमि में मोहित हुए अर्जुन को ज्ञान प्रदान करते हैं. संसार रूपी युद्ध में हमारी बुद्धि भी मोह में पड़ी हुई है, कृष्ण हमें इससे पार ले जाने का उपाय बताते हैं. सुख-दुःख में सम रहकर, अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा मन को वश में रखकर हम स्थितप्रज्ञ बन सकते हैं. और जब मन शांत होगा तो शांत झील में चन्द्रमा की भांति आत्मा का प्रकाश मन में प्रतिबिम्बित होगा. आत्मा का अनुभव परमात्मा के निकट ले जायेगा, तो कृष्ण हमें अपने निकट बुलाते हैं और सभी को उसकी प्रकृति के अनुसार विभिन्न मार्गों में से कोई मार्ग चुनने की स्वतंत्रता भी देते हैं, भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग, राज योग, ध्यान योग आदि में किसी के भी द्वारा हम लक्ष्य की ओर कदम बढा सकते हैं. मार्ग तो हमें स्वयं ही चुनना है पर एक बार जब हम कदम बढा देते हैं तो वह हमारा हाथ थाम लेते हैं और तब तक नहीं छोड़ते जब तक हम उसे अपने मन पर अधिकार जमा लेने नहीं देते.
Friday, November 25, 2011
साधना ऐसी हो
जुलाई २००२
साधना एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है. निरंतर अभ्यास से ही हम उस लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं. मानव जन्म पाकर दुखी रहना कितनी लज्जा की बात है. जब ईश्वर हर क्षण हमारे साथ है, वह जो आनन्दमय है, रसमय है, ज्ञानमय है जिससे जुड़े रहकर हम भी निरंतर रस में डूब सकते हैं. इसके लिये हमें मन का ध्यान एक बालक की तरह करना होगा. इसे कभी रूठने नहीं देना है, क्योंकि बिना सुख के सामर्थ्य भी नहीं टिकता. धीरे-धीरे हमारा सुख बाहरी परिस्थितियों पर नहीं बल्कि हमारे सच्चे स्वरूप पर निर्भर करेगा जो सदा एक सा है, आकाश के समान मुक्त, विक्षेप रहित.
Thursday, November 24, 2011
प्रेम और सद्भावना
जुलाई २००२
उठा बगूला प्रेम का तिनका लिया उडाय
तिनका तिनके से मिला तिनका तिनके जाय
प्रेम में हम इतने हल्के हो जाते हैं कि नभ तक पहुँच जाते हैं. कृतज्ञता के भाव प्रकट होते हैं और प्रकट होता है एक ऐसा आनंद जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता. ईश्वर से हर पल एक डोर बंधी हुई महसूस होती है. इसके प्रमाण भी मिलने लगते हैं. वह अस्तित्त्व भी स्वयं को प्रकट करना चाहता है. दर्द में भी मुस्काने की कला मिल जाती है. क्रोध आने से पूर्व ही शांत होने लग जाता है. जाने कौन आकर समझा जाता है कि जो कहना चाहते हैं वह न कहकर कुछ ऐसा कहते हैं जो प्रेम को दर्शाता है. अर्थात प्रेम की पकड़ क्रोध से ज्यादा हो जाती है. सभी के प्रति मन सद्भावना से भर जाता है. कभी-कभी अश्रु भी बहते हैं पर इनमें भी कैसी प्रसन्नता है. ईश्वर भी हमारा साथ पसंद करता हुआ लगता है. हमारा साधारण मन उसके दिव्य मन के साथ एक हो जाता है.
Tuesday, November 22, 2011
प्रेम ही मुक्ति है
जुलाई २००२
इस पृथ्वी नामक ग्रह के सभी प्राणी आपस में प्रेम के सूक्ष्म तंतुओं से ही तो जुड़े हैं. यह सूक्ष्म भावना बहुत प्रबल है. यही प्रेम हमें बार-बार इस जगत में खींच लाता है. लेकिन जब इस प्रेम की धारा ईश्वर की ओर मुड़ जाती है तो मुक्त कर देती है. क्योंकि उसके सान्निध्य में रहने के लिये हमें इस तन के माध्यम की आवश्कता नहीं है. हम जहाँ कहीं भी हो उसे चाह सकते हैं, चाहें तो देह धर कर भी. लेकिन उस अवस्था में प्रेम बांधता नहीं है. स्वयं का ज्ञान ही हमारे भीतर इस प्रेम को जगाता है और ऐसा प्रेम ही भक्ति है. ऐसा प्रेम यदि अंतर में जग जाये तो जीवन उत्सव बन जाता है.
तप और समर्पण
जुलाई २००२
जीवन में यदि कोई दुःख हो तो समता भाव बनाये रखकर सहने से उसे तप बनाया जा सकता है. ऐसा तप हमारे पिछले कर्मों को काटता है. मन में निखार लाता है, कमजोरियां निकलती हैं. सेवा के द्वारा भी दुःख को काटा जा सकता है तथा सत्संग के द्वारा भी. किन्तु भविष्य में दुःख न आये इसका ध्यान भी सदा रखना है. वह पूर्ण समर्पण से ही संभव है. ज्ञान रूपी साबुन से अपने मन का वस्त्र धोना है पर इसके पूर्व ईश्वर के प्रेम रूपी जल में उसे भिगोना भी तो पड़ेगा. प्रेम व ज्ञान दोनों का सामंजस्य होगा तो हृदय में शांति की तरंग उठेगी और मस्तिष्क ज्ञान में स्थिर रहेगा.
Sunday, November 20, 2011
मन व संसार
जुलाई २००२
जिस संसार के बारे में हम सुनते हैं कि यह असार है, अस्थिर है, पल पल बदलता है, वह कहीं बाहर नहीं हमारा अपना मन ही है. क्योंकि इस बाहरी जगत को हम अपने मन के माध्यम से ही जानते हैं जिसका जैसा स्वभाव है गुण हैं प्रकृति है संसार उसे वैसा ही नजर आता है. मन जिसे अपना मानता है उसे सुखी देखना चाहता है ताकि मन को खुशी मिले. मन जो करता है अपनी तुष्टि के लिये करता है. इसी मन को यदि अपने भीतर विवेक द्वारा नित्य-अनित्य का ज्ञान होता है तब यही मन भीतर जाने लगता है यानि संसार से परे सन्यास की यात्रा आरम्भ होती है. बाहर सब कुछ वैसा ही रहता है पर भीतर एक नया द्वार खुल जाता है. तब स्वयं की तुष्टि के लिये नहीं प्रेम के लिए प्रेम होने लगता है. क्योंकि इस तथ्य का ज्ञान होता है कि जो सदा आनंद में है वही आत्मा वह स्वयं है.
Friday, November 18, 2011
प्रेम ही पूजा है
july 2002
हृदय में श्रद्धा और विश्वास की पूंजी हो तो जीवन का पथ सरल हो जाता है, मात्र सरल ही नहीं सरस भी हो जाता है. सामर्थ्य बढ़ जाता है, समर्थ वही है जो किसी भी देश, काल में अपनी आत्मा पर ही निर्भर रहे, अहंता व ममता छोड़कर श्रेय के पथ पर चले. एक बार ईश्वरीय प्रेम का अनुभव हो जाने के बाद वह कभी हमारा हाथ नहीं छोड़ता. बल्कि पग-पग पर ध्यान रखता है, इतने स्नेह से वह हमारी खोजखबर लेता है जैसे पुराना परिचित हो. इस जग में जितना प्रेम हमें मिलता है या हमारे हृदयों में अन्यों के लिये रहता है वह उसी के प्रेम का का प्रतिबिम्ब है. मनसा, वाचा, कर्मणा वह हमारे सभी कर्मों का साक्षी है. उसे अर्पित करने के लिये इस जग के सभी पदार्थ तुच्छ हैं, एक मात्र प्रेमपूर्ण हृदय ही उसे समर्पित करने योग्य है, उसकी बनायी इस सृष्टि में हर कहीं उसे ही देखने की कला ही पूजा है.
स्वाधीनता
जुलाई २००२
ध्यान का मूलमंत्र है स्वाधीनता, साधक को धीरे धीरे किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति पर निर्भर होना छोड़ते जाना होगा. पराधीनता हम स्वयं ही चुनते हैं, बंधन का दुःख भी सहते हैं. जितने जितने उदार हम होते जायेंगे, संग्रह की प्रवृत्ति घटती जायेगी, जीतेजी मुक्ति का अनुभव बढ़ता जायेगा. ध्यान का अर्थ है स्वयं पर लौट आना. जहाँ एकमात्र ईश्वर ही हमारी आशाओं का केन्द्र है. जो अखंड शाश्वत प्रेम का सागर है. जो मृत्यु के क्षण में भी हमारे साथ है और मृत्यु के बाद भी. उसकी आधीनता ही वास्तविक स्वाधीनता है.
Wednesday, November 16, 2011
आसक्ति
जुलाई २००२
हमारे दुखों का कारण है गहन आसक्ति, अन्यथा हम शाश्वत सुख के अधिकारी हैं. ईश्वर के सिवा इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं है. आसक्ति मिटते ही मन विश्रांति का अनुभव करता है. जिससे सामर्थ्य की उत्पत्ति होती है, और सहज ही हम अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हो जाते हैं व उन्हें करने में सक्षम भी होते हैं. दूसरों की पीड़ा में भागी भी हो पाते हैं. अंतर में प्रेम हो तभी यह संभव हैं, अन्यथा तो दूसरों की पीड़ा हमें ऊपर से छू कर निकल जाती है. स्वयं को यदि ज्ञान में स्थिर रखना है तो उसका लक्ष्य सबके प्रति प्रेम रखना होगा, अन्यथा यहाँ भी स्वार्थ ही है. अपनी आत्मा का विकास मात्र स्वयं के लिये, अपने सुख के लिये, नहीं, अपने ‘स्व’ का विस्तार करते जाना है, सबको अपना सा देखना है, तभी मुक्ति संभव है.
Tuesday, November 15, 2011
भक्तिभाव
जुलाई २००२
ज्ञान का अंत भक्ति है. भक्ति हमें आभामय, रसमय तथा मकरंद मय बनाती है. ईश्वर से लगी लगन तारने वाली बन जाती है. देर सबेर सत्य का साक्षात्कार हो जाता है, मोहनिद्रा से सदा के लिये जागृति हो जाती है. भक्ति वर्तमान में ले जाती है. तमस व रजस से छुडाकर सत् में टिका देती है. लेकिन सात्विक सुख से भी बंधना नहीं है. भक्त अथवा साधक के सम्मुख एक मार्ग स्पष्ट होता है बस चलने भर की देर है. प्रेम का पाथेय लिये वह उस मार्ग पर निश्चिन्त होकर चल पड़ता है.
Monday, November 14, 2011
उदारता
july 2002
जीते जी अगर परमात्म सुख का अनुभव करना हो तो पहले औदार्य सुख का अनुभव करना चाहिए. जो उदार होता है वह प्रेमी भी होता है. वह सामर्थ्य भी रखता है, सहज और सौम्य भी होता है. ईश्वर के निकट जाना है तो हम माँगने वाले नहीं देने वाले बनें. स्वार्थ ही हमें अपने सहज स्वभाव से दूर करता है. सहजता में भक्ति को प्रकट होते देर नहीं लगती. जटिल तो हमारा मन बनाता है स्वभाव को, व्यर्थ की कल्पनाओं, विचारों, भावनाओं में डूबकर. मन को यह तो पता नहीं कि कब क्या सोचना है और अगला विचार कहाँ से आने वाला है वह अपने को ही नहीं जान पाता तो संसार की समस्याओं का निदान कैसे खोज सकता है. उसके लिये तो अपने शुद्ध स्वभाव में ही लौटना होगा.
सत्यं, शिवं,सुन्दरं
जो अपने लिये सत्यं, शिवं और सुन्दरं के अलावा कुछ नहीं चाहता, प्रकृति भी उसके लिये अपने नियम बदलने को तैयार हो जाती है. जो अपने स्व का विस्तार करता जाता है, जैसे-जैसे अपने निहित स्वार्थ को त्यागता जाता है, वैसे-वैसे उसका सामर्थ्य बढ़ता जाता है. अस्तित्त्व पर निर्भर रहें तो कोई फ़िक्र वैसे भी नहीं रह जाती क्योंकि वह हर क्षण हमारे कुशल-क्षेम का भार वहन करता है. जैसे एक नन्हा बालक अपनी सुरक्षा के लिये माँ पर निर्भर करता है, हमारे सभी कार्य यदि हम उस पर निर्भर रहते हुए करेंगे तो उनके परिणाम से बंधेंगे नहीं. हम जो भी करें उसका हेतु सत्य प्राप्ति हो तो सामान्य कार्य भी भक्ति ही बन जाते हैं.
Friday, November 11, 2011
शाश्वतता
पांच शरीर हैं हमारे, पांचों के पार वह चिदाकाश है जहाँ हमें पहुंचना है. सत्य को चाहने पर ही सत्य की यात्रा होगी. परमात्मा न जाने किस-किस उपाय से हमें उसी ओर ठेल रहा है, वह हमें सुख-दुःख के द्वंद्वों से अतीत देखना चाहता है. हमारे अहं को क्षत-विक्षत करता है. हम उसे तभी जान सकते हैं जब भीतर अहं न हो. शाश्वत को जानने और मानने की मति भी वही देता है. नश्वरता को अपनाएंगे तो वही मिलेगी, और मन पुराने संस्कार जगाता ही रहेगा. जब हम उसकी निकटता में रहते हैं, उसके सामीप्य का अनुभव करते हैं, तभी आकाश की भांति पूर्ण मुक्त, स्वच्छ और अलिप्त रहेंगे.
Wednesday, November 9, 2011
समर्पण
जून २००२
आज पूर्णिमा है. हमारे हृदय गगन में भी परमात्मा रूपी चन्द्रमा का आगमन हो ऐसी कामना करनी चाहिए. मन शांत हो, ध्यानस्थ हो, परमात्मा की छवि हटे नहीं. सुमिरन अपने आप चलता रहे. सत्य को छोडकर कोई विचार मन में न टिके. एक उसी की याद हर वक्त बनी रहे और तब एक ऐसी गहराई का अनुभव होता है जैसे सब कुछ ठहर गया हो. सारा जगत स्थिर हो मन की तरह, कहीं कोई उहापोह नहीं विक्षेप नहीं. अद्भुत है वर्तमान का यह क्षण. हमारे और उसके बीच अभिमान का झीना सा पर्दा ही तो है, इसे हटा दें तो ही पूर्ण समर्पण संभव है.
Monday, November 7, 2011
परमात्मा प्रेम है
जून २००२
हर हृदय में परमात्मा का वास है. होश में रहें तो दुःख पास नहीं फटकता और यदि कोई भाव ऐसा उठा भी तो होश में उसे देखा जा सकता है साक्षी बन कर, उसी क्षण वह अपनी ऊर्जा खोने लगता है. जैसे हमें यदि अनुभव हो कि कोई देख रहा है तो हमारा व्यवहार बदल जाता है वैसे ही भीतर के भाव देखने मात्र से बदलने लगते हैं. हमारे स्वप्न भी सचेत करते हैं कि परमात्मा से जो आनंद हमें मिला है उसे छोटे-छोटे सुखों के पीछे गंवा न दें. यदि हमारी निष्ठा सच्ची हो तो परमात्मा की ओर से देरी नहीं है. वह प्रेम का इतना अधिक प्रतिदान देते हैं कि मन छलक-छलक जाता है. यह सारा विश्व उसी एक का विस्तार है. उस एक की शक्ति हर ओर बिखरी है. जिसके मूल में प्रेम है, निष्काम प्रेम. यह संसार प्रेम से ही बना है प्रेम से ही टिका है और उसी में स्थित है.
Saturday, November 5, 2011
भीतर का मौसम
जून २००२
बाहर के मौसम के मिजाज तो बदलते रहते हैं, हमें अपने अंदर वह धुरी खोज निकालनी है जो अचल है, अडिग है जिसका आश्रय लेकर हम दुनिया में किसी भी ऊंचाई तक पहुँच सकते हैं. जो मुक्त है, शुद्ध प्रेम स्वरूप है, उसी को पाने के लिये भीतर की यात्रा योगी करते हैं. स्थिर मन ही हमें उस स्थिति तक ले जा सकता है और मन की स्थिरता ध्यान से आती है. वहाँ एक बार जाकर लौटना नहीं होता, हम जीतेजी पूर्णता का अनुभव करते हैं. प्रकृति के सान्निध्य में अथवा पूजा के क्षणों में अभी भी हम कभी-कभी ईश्वर की झलक पाते हैं पर यह अस्थायी होती है, संसार पुनः हमें अपनी ओर खींच लेता है.
Friday, November 4, 2011
अनन्तता
जून २००२
ईश्वर हर क्षण हमारे साथ है. वह कितने विभिन्न उपायों से अपनी उपस्थिति जता रहा है. प्रेरणादायक वचन सुनने को मिलते हैं, सारी बातें जैसे किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हमारे जीवन में सही समय पर आने लगती हैं. वस्तुएं अपने वास्तविक रूप में प्रकट होना चाहती हैं. आवरण हटता जा रहा है. हमें पूर्ण सहयोग देना है. शुभ संकल्प करके मन को स्थिर रखना है. सत्य को धारण करने के लिये मन को खाली रखना है. कामनाएं कम हों और धीरे-धीरे समाप्त होती चली जाएँ, क्योंकि इनमें सार नहीं है. जो सुख इनसे हमें मिलता है वह क्षणिक होता है. किन्तु आध्यात्मिक सुख अनंत है. वह हमारे निकट से भी निकटतर है, केवल मिथ्या अहंकार का आवरण हमारे और उसके बीच है. हमने अपनी जो छवि अपनी दृष्टि में बना ली है वह असत् है. देह, मन, बुद्धि व अहंकार से परे हम शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मा हैं जिसमें हमें स्थित होना है.
Thursday, November 3, 2011
उसका पथ
जून २००२
आध्यात्मिक मार्ग पर चलना ही हमारी नियति है. हम सभी किसी न किसी रूप में इसी मार्ग के राही हैं. कोई अन्जाना है और कोई सचेत होकर चल रहा है. नित नए अनुभव होते हैं इस मार्ग पर, जैसे पहले से ही तय हों. कभी कभी ऐसा लगता है कि कोई आश्वासन दे रहा है कि सब कुछ सही समय पर होगा, ठीक होगा. किसी इच्छा का पूरा होना या न होना दोनों में कोई फर्क नहीं रह जाता. संसार का कोई भी सुख उतना आकर्षित नहीं करता जितना कि ईश्वर का विचार और उससे मिलने की ललक. वही जैसे हमारा मार्ग निर्देशित कर रहे होते हैं, तभी तो समय भी है, शास्त्र भी हैं, सदगुरु भी हैं सभी कुछ हमारे अनुकूल कर दिया है. जिसकी स्मृति ही मन को इतनी सौम्यता से भर देती है उसका साक्षात्कार कितना अभूतपूर्व होगा, यह बात ही पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है.
Tuesday, November 1, 2011
कर्म बंधन
जून २००२
ध्यान तभी टिकता है जब मन अन्तर मुख होता है. देह के ममत्व से ऊपर उठता है. विचार शून्यता की स्थिति तभी आती है. ध्यान बोध को जगाने के लिये है. सचेत मन को हटाने के लिये है. ध्यान से बुद्धि प्रज्ञा में बदल जाती है इसी प्रज्ञा के दर्पण में आत्मा का दर्शन होता है. ध्यान हमें मन में उठने वाले विचारों के प्रति सजग करता है. प्रत्येक कर्म पहले विचार के रूप में जन्म लेता है उसी रूप में यदि उसे शुद्ध कर लिया जाये तो कर्म भी शुद्ध होंगे और हम कर्म बंधन में नहीं पडेंगे.
Monday, October 31, 2011
मिलन और मुक्ति
जून २००२
इस सृष्टि में जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट भी होता है. यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है. इसी बात को याद रखते हुए ध्यान में भी किसी अच्छी या बुरी संवेदना को महत्व नहीं देना है, मन का समत्व भाव बनाये रखना है. इसी से आत्मिक शक्ति प्रकट होने लगती है. हमारी चेतना खुद भी तो प्रकट होना चाहती है. इस पथ पर मिलन मध्य में होता है, अंत में नहीं. साधक यदि श्रद्धा भाव से चलता रहे तो इसी जीवन में एक दिन ऐसा आता है कि ध्यान करना नहीं पड़ता टिक जाता है. अभी चाहे लक्ष्य दूर हो पर यह निश्चय होना चाहिए कि वह परमात्मा हर क्षण हमारे साथ है. अंतर में उसी का प्रकाश है. बुद्धि में उसी का उजाला है. आत्मा में उसी का प्रेम है. वह हमारे मन पर अपना पूरा अधिकार जमा चुका है, वही एक दिन हमें मुक्त भी करेगा.
Friday, October 28, 2011
आत्मा का संगीत
जून २००२
ईश्वर को जानना हो तो पहले खुद को जानना होगा, अर्थात जो आज तक हम स्वयं को मानते आये हैं, उससे अलग अपने सच्चे ‘मैं’ को जानना, मन व बुद्धि के द्वारा जो खुद को जाना है उससे भी परे जहाँ मन रहता ही नहीं, और खुद को जानने के लिये वर्तमान में रहना होगा. वर्तमान में रहने से ही ध्यान सधता है. ध्यान में हम अपने तन रूपी साज को साध कर मन के पार जाकर आत्मा का संगीत उजागर करते हैं, जिसके द्वारा ईश्वर को रिझाया जाता है.
Thursday, October 27, 2011
मौन का अनुभव
जून २००२
उस अशब्द परमात्मा को शब्दों से नहीं जाना जा सकता. वह मौन है उसे मौन में ही ढूँढना होगा. मन जब मौन होगा तब वह धीरे से आकर अपनी उपस्थिति का अहसास कराएगा. हम जितना-जितना अपने आसपास की ध्वनियों के प्रति सजग होते जाते हैं, उतना-उतना ही हमें मौन का भी अहसास होता है. दो ध्वनियों के बीच का मौन... और वह बड़ा प्रभावशाली होता है, शब्दों से कहीं ज्यादा... उस मौन में हमें अपने होने का अहसास तीव्रता से होता है. ध्वनियाँ भी तब ज्यादा स्पष्ट हो जाती हैं. मन में उठने वाला अंधड़ शांत हो जाता है. शिराएँ शांत हो जाती हैं. एक शून्य की तरफ हम चल पड़ते हैं. ऐसा शून्य जो अर्थयुक्त है, अर्थहीन नहीं. जो शून्य होते हुए भी सारे अर्थों से परिपूर्ण है. जहाँ रस है, प्रेम है, सौंदर्य है, आनंद है, अमृत है और पूर्णता है. उसे हम कुछ भी नाम दे सकते हैं उसकी शरण में जाकर हमें कुछ भी करना नहीं है. अहं से मुक्त होकर उस अशब्द की ओर जाना ही परमात्मा को जानने की ओर पहला कदम है.
Tuesday, October 25, 2011
एकै साधे सब सधे
जून २००२
कबिरा इस जग आये के अनेक बनाये मीत
जिन बांधी इक सँग प्रीत वही रहा निश्चिन्त
उस एक से जब लौ लग जाती है तो जीवन फूल की तरह हल्का हो जाता है. हम रुई के फाहे की तरह गगन में उड़ने लगते हैं. वह एक इतना प्रिय है और इतना अपना कि दिल भर जाता है. उसकी कृपा असीम है. उसका बखान करना जितना कठिन है उतना सरल भी. एक शब्द में कहें तो वही प्रेम है. अंतर की गहराई में जो प्रेम है उसके लिये और सृष्टि के लिये... वह उसी का है. हमें वहीं जाना है जहाँ न राग है न द्वेष है, न संयोग न वियोग, न दिन न रात्रि, न अच्छा न बुरा. उस अद्भुत लोक में प्रवेश करने के लिये ध्यान की आवश्यकता है. ध्यान हमारे हृदय में भक्ति भाव ही उत्पन्न नहीं करता है, हमें ईश्वर का निमित्त बनाता है. हम इस महासृष्टि में अपने योगदान को दे पाने में सक्षम होते हैं.
Monday, October 24, 2011
विवेक और संयम
जून २००२
माया रूपी रात्रि में संयम रूपी ब्रेक और विवेक रूपी लाइट लगी जीवन की गाड़ी यदि हम चलायें तो दुर्घटना से बचेंगे और ईश्वर के प्रति श्रद्धा अविचल रहेगी. कामनाओं के वेग को जो रोक सके और क्रोध को जो सही सही देख सके वही सुख-दुःख के पार आनंद को उपलब्ध हो सकता है. हमारी चेतना का विस्तार भी तभी होता है... अभी तो हम मन के छोटे से हिस्से में जीते हैं, अचेतन मन में क्या चल रहा है हमें पता ही नहीं होता तभी कुछ ऐसा हो जाता है जिसे हमने करना नहीं चाहा था. मन की गहराई में जितना-जितना प्रवेश होगा, भीतर प्रकाश बढ़ेगा अर्थात विवेक रूपी टार्च हमें मिल जायेगी.
Saturday, October 22, 2011
वर्तमान में जीना
जून २००२
जीवन कितना अनमोल है और कितना मोहक, कान्हा की वंशी की तरह, उसकी मुस्कान की तरह, उसकी चितवन की तरह. मन में कोई उद्वेग न हो, कोई कामना न हो तो मन कितना हल्का-हल्का सा रहता है. किसी से भी कोई अपेक्षा न हो स्वयं से भी नहीं बस जो सहज रूप से मिल जाये उसे ही अपने विकास के लिये साधन बना लें और आगे बढ़ते चलें. होश पूर्वक जीना आ जाये तो हमें अ पने कार्यों, वाणी तथा विचारों के लिये कभी पश्चाताप नहीं करना पड़ता है. वर्तमान में जीना ही होश में जीना है.
Friday, October 21, 2011
निर्मल ध्यान
मई २००२
ध्यान करते समय जब मन में कोई अन्य विचार आ जाता है तो ध्यान अधूरा ही है. परमात्मा का असल स्वरूप शुद्ध चैतन्यता है. जब मन इसमें एक हो जाता है तब अद्वैत का अनुभव होता है. एक विचार के अतिरिक्त कोई अन्य विचार न रहे तब चित्त में भगवद् प्रसाद भरने लगता है. इस प्रसाद के बिना हृदय की अशांति नहीं मिट सकती. यही एक मात्र औषधि है जो हमें रस सिक्त करती है. शरद काल के आकाश की तरह निर्मल चेतना भीतर प्रकट हो जाती है.
Thursday, October 20, 2011
ईश्वर अंश जीव अविनाशी
मई २००२
ईश्वर के अंश होने के कारण हम परम आनंद को पाने के अधिकारी हैं, चेतना के उस दिव्य स्तर तक पहुंचने के अधिकारी हैं जहाँ विशुद्ध प्रेम, सुख, ज्ञान, शक्ति, पवित्रता और शांति है. सम्पूर्ण प्रकृति भी तब हमारे लिये सुखदायी हो जाती है. इस स्थिति को केवल अनुभव किया जा सकता है यह स्थूल नहीं है अति सूक्ष्म है और व्यापक भी. शरद काल के चन्द्रमा की चाँदनी कि तरह. तब यह लगता है कि ईश्वर के सिवा इस जग में जानने योग्य कुछ भी स्थायी और शाश्वत है क्या... और उसे जानने की ललक ही एक अनिवर्चनीय संतोष को जन्म देती है.
Wednesday, October 19, 2011
परम और संसार
मई २००२
परमात्मा हमारे हृदय में है, वह हर पल हमारी खबर रखता है, वह जानता है कि हमारे लिये क्या अच्छा है. उसके प्रति प्रेम हमें शुद्ध करता है. हमें उच्चता की ओर ले जाता है. आत्मसंयमित करता है. तन व मन में हल्का पन लाता है, अहंकार ही हमें भारी बनाता है, अन्यथा तो भार महसूस ही नहीं होता. जब सब कुछ उसी का है, उसी की सत्ता से चलायमान है तो बीच में इस “मैं” को लाये ही क्यों. एक वही शाश्वत है शेष सभी कुछ न होने की तरफ जा रहा है. हमारी चेतना पर उसी की मोहर लगी है. संसार मोहक रूप धरकर हमारे सम्मुख आता है, ठगना ही उसका उद्देश्य है. संसार को उसके वास्तविक रूप में देखने पर उसकी पोल खुल जाती है, यह हमें, हम जैसे हैं उसी रूप में अपनाकर शुद्ध प्रेम का अनुभव नहीं कराता बल्कि हम जो हैं उसे अस्वीकारने में सहायक होता है. ईश्वर हमें, हम जैसे हैं, सहज रूप में स्वीकार करता है.
Monday, October 17, 2011
अहंकार
मई २००२
अहंकार बहुत सूक्ष्म होता है. कई बार हमें लगता है कि हम इससे मुक्त हो रहे हैं. पर इसकी जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि थोड़ा सा अनुकूल अवसर पाने पर यह अंकुरित हो जाती हैं. हमारा अहं ही ईश्वर और हमारे बीच दीवार बन कर खड़ा है. ईश्वर कितने उपायों से इसे तोड़ना सिखाते हैं पर हम उनसे ही नाराज हो जाते हैं. जीवन में जब भी हमें मानसिक उद्वेग या पीड़ा का अनुभव होता है इसके पीछे हमारा अहंकार ही जिम्मेदार है. ऊपर से तुर्रा यह कि अहं सत्य नहीं है, इसकी परत दर परत खोलते चले जाएँ तो वहाँ कुछ बचता नहीं. स्वयं को कुछ साबित करना इसी अहं का ही एक रूप है. यदि हम खाली होकर प्रभु द्वार पर जायेंगे तभी कुछ पा सकते हैं, पूर्ण विनम्र होकर ही परम को रिझाया जा सकता है.
Saturday, October 15, 2011
परम की खोज
मई २००२
हम सहज प्राप्य वस्तु को स्वयं ही दुर्लभ बनाकर इधर-उधर खोजते हैं, जैसे कि तब उसका महत्व बढ़ जायेगा, हम सहज प्राप्त ईश्वर को, आत्मा को भिन्न-भिन्न उपायों से खोजते फिरते हैं. शब्दों से और विचारों से मानसिक जुगाली का ही काम करते हैं, वह जो शब्दों से परे है, शब्दों से पकड़ में नहीं आ सकता.
Friday, October 14, 2011
परम कैसा होगा
मई २००२
परमात्मा सत्य स्वरूप है, सदा से है, सदा रहेगा. सबका आधार है, जिसकी सत्ता से हमारी धडकनें चल रही हैं, जो हमारे भीतर है. हमारे हर क्षण का साक्षी है. जो हमें सदा प्रेरित करता है. जिसका न आदि है न कोई अंत. न वह स्थूल है न सूक्ष्म. जिसे हम इन्द्रियों से देख नहीं सकते. जो मन की गहराइयों में भी अव्यक्त है. जो सुख का स्रोत है, प्रेम व ज्ञान का सागर है जो सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है. वही शब्द है वही नाद और वही प्राण है, और वही इन सबका आधार...जो सदा वर्तमान में है उसे यदि अनुभव करना है तो इसी क्षण करना होगा वह भविष्य में भी जब मिलेगा वर्तमान के पल में ही मिलेगा.
Thursday, October 13, 2011
ईश्वरीय प्रेम
मई २००२
ईष्ट, गुरु या ईश्वर के प्रति प्रेम मन से शुरू होता है और आत्मा तक पहुंचता है. उनसे मिला प्रेम या ज्ञान ही इस प्रेम को उपजाता है. कृतज्ञता और आभार की भावना भी प्रेम का ही रूप है. धीरे-धीरे यह प्रेम इतना विकसित हो जाता है कि सारी सृष्टि के प्रति बह निकलता है. जैसे प्रकृति में सभी कुछ अपने आप हो रहा है, मन सहज ही झरता, पिघलता, द्रवित होता है. तब इस प्रेम को कोई पात्र नहीं चाहिए यह खुशबू की तरह चारों ओर स्वतः ही बिखर कर न्योछावर हो जाता है.
Wednesday, October 12, 2011
साधना क्यों
मई २००२
साधक के मन में श्रद्धा हो और पूर्ण विश्वास भी कि सब कारणों के एक मात्र कारण परमात्मा ही हैं, उनकी प्रसन्नता में ही हमारी प्रसन्नता है. वह हमारे हृदय में रहते हैं और हमारे शुभ-अशुभ विचारों व कर्मों के भी साक्षी हैं, वही हमें कर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं. यदि उनकी शरण में चले जाएँ तो वह हमारा भार अपने पर ले लेते हैं और हम निश्चिंत बालक की तरह आनंद से भर जाते हैं. शरीर, मन और बुद्धि की दासता को त्याग कर यदि हम परमात्मा के प्रेम का बंधन स्वीकार करते हैं तो सारा का सारा विषाद न जाने कहाँ चला जाता है. यह विश्वास अनुभव के बिना टिकता नहीं है और अनुभव के लिये ही साधना करनी है.
Tuesday, October 11, 2011
बुद्धियोग और सजगता
मई २००२
हमारे मन पर न जाने कितने जन्मों के संस्कार हैं, जिनकी छवि इतनी गहरी है कि पल भर की असजगता हमें पुनः वहीं ले जाकर खड़ा कर देती है, जहाँ से छूटना चाहते थे. ध्यान की निर्विकारिता के पलों में यही संस्कार मिटते हैं. शुभ-अशुभ की स्मृति न रहे तो मन शांत रहेगा, अंतरंग तत्व का दर्शन होगा तो हमारी बुद्धि शुद्ध होगी. भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं कि यदि हम कर्मों को निष्काम भाव से करते हुए चित्त को उनमें लगाए रहेंगे तो वह हमें बुद्धियोग प्रदान करेंगे. सभी परिस्थितियों में समभाव बनाये रखना भी चित्त को प्रभु में लगाये रखने जैसा ही है. बुद्धियोग होने पर ही सजगता बनी रह सकती है.
Monday, October 10, 2011
ध्यान और मुक्ति
मई २००२
धरती के अंधकार, मौन और चुप्पी में ही बीज प्रस्फुटित होता है. ध्यान भी ऐसे ही घटता है, मौन मन का होना चाहिए, मन यदि व्यर्थ का प्रलाप करता रहे तो ध्यान नहीं होगा. और एक बार यदि ध्यान का अनुभव हो गया तो भीतर सुप्त प्रेम जागृत हो जाता है, वह ज्ञान जो अभी स्पष्ट नहीं है दिखाई देगा और ऐसा प्रेम हमें आनंद के उस अक्षय स्रोत से मिलाएगा जो सरस है, अनंत है. जीवन में ही मुक्ति का अनुभव साधक कर सकेगा.
Saturday, October 8, 2011
ज्ञान के मोती
मई २००२
हमारा मन ही हमें सुख-दुःख प्रदान करता है, कोई बाहरी व्यक्ति या परिस्थिति हमें हमारी इच्छा के बिना विषाद नहीं दे सकती. आंतरिक शत्रुओं को नष्ट करते ही सभी हमारे मित्र हो जाते हैं. जैसे-जैसे हम ज्ञान के सागर में गहरे उतरते जाते हैं, मोती और सुंदर होते जाते हैं. सदगुरु ज्ञान का सागर है जिसके वचन सुनहरे मोती हैं जिनकी चमक हमें धारण करनी है जिसके प्रकाश में हमारी आत्मा प्रकाशित होगी.
Friday, October 7, 2011
वह पूर्ण है
ज्ञान वहीं टिकता है जहाँ वैराग्य है. मैं कुछ हूँ तो मेरा भी कुछ होगा, यदि मैं कुछ नहीं तो मेरा भी कुछ नहीं, फिर कैसा बंधन और कैसी मुक्ति? सदगुरु कामना शून्य है, अहंकार शून्य है जो स्वयं भी वैसा हो जाता है वही ईश्वर को पा सकता है. जैसे हवा है और धूप है वैसे ही ईश्वर हमारे चारों ओर मौजूद है पर कुछ होने का भाव ही उससे दूरी बना देता है. उसे एकछत्र अधिकार चाहिए. मन यदि पूरा उसे नहीं सौंपा तो वह कुबूल नहीं करता. गुरु नानक ने कहा है पूरा प्रभु आराधिए, पूरा जाका नाम, पूरा पूरे से मिले, पूरे के गुन गाम !
Wednesday, October 5, 2011
जागृत मन
मई २००२
मन सोया है या जाग गया है इसका पता कैसे चले तो शास्त्र बताते हैं कि सजगतापूर्वक वर्तमान में रहना इसकी पहली निशानी है. भूत का पश्चाताप भीतर न चलता हो भविष्य की कल्पना में संकल्प न उठते हों जिस क्षण जो कार्य हम कर रहे हों पूर्ण रूप से मन वहीं टिका हो तो ऊर्जा बचती है. दूसरी पहचान है मन सहज ही आनन्दित हो कुछ करके या कुछ पाकर खुश होना सोये मन का काम है, समाहित मन तो भीतर अपने मूल से जुड़ा होने कारण सहज ही प्रसन्न होता है. अहंकार वर्तमान में नहीं होता अहंकार भूत या भविष्य के साथ ही जुड़ा है और दुख का कारण वही है. जो वस्तु, व्यक्ति, या परिस्थिति हमारे सामने आये सहज बुद्धि से उसके साथ व्यवहार करने के बाद यदि मन खाली रहता है तो मन जाग गया है. यदि प्रभाव में आ जाता है तो सोया है.
Tuesday, October 4, 2011
दिव्यता
मई २००२
मन को नींद से जगाना है, शोध करते-करते ही बोध होता है. मन की गांठ जब तक नहीं खुलेगी तब तक अज्ञान नहीं मिटता और अज्ञान मिटे बिना ईश्वर का अनुभव भी नहीं होता. राग, द्वेष, अहंता, ममता आदि जीव की सृष्टि में हैं ईश्वर की सृष्टि में नहीं. अपनी प्रकृति तथा स्वभाव के अनुसार हम प्रेरित हो रहे हैं और सुख-दुःख का अनुभव कर रहे हैं. अपने तुच्छ स्वभाव को दिव्य स्वभाव में बदलना ही साधना है, और यही जागरण है, जिसके बाद ही हम मानव होने की गरिमा को प्राप्त होते हैं.
Monday, October 3, 2011
आनंद
मई २००२
जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता है एक निर्दोष आनंद, एक ऐसी मुस्कान जो कोई हमसे छीन न सके. किसी को मुझसे भय न हो और किसी से मुझको भय न हो यह बहुत बड़ा गुण है. जितना-जितना हम स्वयं को व्यर्थ के संकल्पों से खाली करते जायेंगे वह आनंद जो भीतर ही है, कहीं से लाना नहीं है, भरता जायेगा, वह मुस्कान भी हमारी आत्मा प्रतिपल लुटाए जा रही है पर मन का आवरण उसे प्रकट होने नहीं देता. मन में श्रद्धा हो तो धीरे धीरे वह समाहित होने लगता है और आवरण क्षीण होने लगते हैं.
Saturday, October 1, 2011
मृण्मय और चिन्मय
अप्रैल २००२
हमारे विचारों का केन्द्र चिन्मय है अथवा मृण्मय, इस पर ही सब निर्भर करता है. हमारा मन, बुद्धि देह सभी मृण्मय हैं पर इनका प्रयोग हमें चिन्मय को जानने के लिए करना है. ऐसा कब होगा, कैसे होगा यह तो समय ही जानता है पर हमारी जीवन यात्रा यदि उस ओर हो तो आनंद हमारा सहचर बन जाता है. जैसे जल में प्रवेश करते ही उसकी शीतलता का अनुभव होता है, चिन्मय जो सत् चित् आनंद स्वरूप है उसका चिंतन करते ही उसकी हवा हमें छूने लगती है. पहले उसे स्थूल रूप में देखना है फिर सूक्ष्म भी अनुभव में आयेगा. प्रकृति में उसी का रूप छिपा है. जैसे मोती धागे में पिरोये होते हैं सारा जगत उसी में पिरोया हुआ है.
Friday, September 30, 2011
ध्यान क्या है
अप्रैल २००२
यदि मन एक ही अवस्था में टिक जाता है यही ध्यान है. यदि हम मन को प्रयास करके नहीं ठहरा रहे हैं, यह स्वतः विश्राम में है, निर्विकल्प बोध ही शेष है, यही ध्यान है और यदि कुछ देर तक मात्र बोध ही शेष रहे कोई संदेह भीतर न हो, और तब भीतर एक सहजता का जन्म होता है जिसे कोई ले नहीं सकता, यही ध्यान है.
Thursday, September 29, 2011
आनंद का स्रोत
मार्च २००२
ईश्वर के प्रति या कहें शुभ के प्रति, सत्य के प्रति या ज्ञान के प्रति जिस हृदय में प्रेम नहीं है वह शुष्क मरुस्थल के समान है जहां झाड़-झ्न्काड़ के सिवाय कुछ नहीं उगता, जहां मीठे जल के स्रोत नहीं हैं. जहां तपती हुई बालू है जिसपर दो कदम चलना भी कठिन है. जो मरुथल स्वयं को भी तपाता है और अन्यों को भी. जिस हृदय में भगवद् प्रेम है वह अपने भीतर स्थित उस आनन्द के स्रोत से जुड जाता है जो है तो सब के भीतर पर अनछूया ही रह जाता है.
Tuesday, September 27, 2011
श्रद्धा और मन
मार्च २००२
हम अपना कीमती सामान सम्भाल कर रखते हैं, पर अपने इकलौते मन को इधर-उधर रखने में नहीं हिचकिचाते. मन की तिजोरी है परम के प्रति श्रद्धा भाव, उसमें मन पूरी तरह सुरक्षित रहता है और बुद्धि को क्यों खुला छोड़ दें उसे भी परम को अर्पित कर दें तो हम पूर्णतया सुरक्षित हो जाते हैं. अन्यथा मन व बुद्धि को चुराने के लिए सारा जगत है, या तो मन चंचलता के कारण स्वयं ही भटक जायेगा. इसलिए अपना मन व बुद्धि ईश्वर के पास रख देने में ही लाभ है. कोई भी अन्यथा भाव तब मन में टिक ही नहीं पाता, परम की स्मृति उसे हटा देती है.
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