Thursday, August 30, 2018

एक ऊर्जा बहती भीतर


३१ अगस्त २०१८ 
संत कहते हैं, ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या...सत्य इतना सरल है कि उस पर दृष्टि ही नहीं जाती, इसलिए ब्रह्म से हम अनजाने ही बने रहते हैं. जगत इतना विषम है कि उलझा लेता है, जो उलझा हुआ है वह भला क्या समझेगा, इसलिए जगत की असलियत से भी हम अनजान ही बने रहते हैं. जगत मिथ्या है, इसका भान ही नहीं कर पाते. जीवन जो एक अवसर के रूप में हमें मिला था, एक दिन चुक जाता है और हम इस जगत से खाली हाथ ही प्रयाण कर जाते हैं, दुबारा उसी जाल में उलझने के लिए. जीवन एक ऊर्जा है, जो पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और मनुष्यों के द्वारा प्रवाहित हो रही है. वनस्पति जगत हो या जीव जगत उन्हें इसका कोई अहंकार नहीं है, पर मनुष्य को लगता है, वह इस ऊर्जा का निर्माता है. वह अपनी इच्छा से जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है, प्रकृति का दोहन करके अपने लिए सुख-सुविधाओं के अम्बार लगा सकता है. मनुष्य यदि यह समझ ले कि वह भी इस विशाल आयोजन का एक पुर्जा ही है, ऊर्जा उसके माध्यम से व्यक्त भर हो रही है, वह उसका निर्माता नहीं है. ऐसा करते ही भीतर एक परिवर्तन आता है, कुछ बनने की, कुछ प्राप्त करने की लालसा एक सहज कर्म प्रवाह में बदल जाती है. जीवन की जिस क्षण जो मांग है उतना भर होता है और शेष समय अंतर एक सहज स्थिति का अनुभव करता है.  

Wednesday, August 29, 2018

अभय हुआ जो वही मुक्त है


२९ अगस्त २०१८ 
परमात्मा हमें हर कदम पर आगे बढ़ने के लिए कितने ही अवसर देता है. हम कभी जड़ता और कभी भय के कारण उनका लाभ नहीं ले पाते. यह जीवन सीखने के लिए मिला है और उस सीखे हुए को जगत के साथ व्यवहार में अपनाने के लिए भी. आत्मा का विकास हो तभी वह प्रफ्फुलित रह सकती है. जैसे कोई बच्चा यदि बिना पढ़ाये ही छोड़ दिया जाये तो वह अपना सामान्य जीवन भी ठीक से नहीं चला पाता, वैसे ही आत्मिक विकास के बिना हम भावनात्मक रूप से पिछड़े हुए ही रह जाते हैं. जीवन एक लम्बी यात्रा है, जिसमें अनेक जन्म लेते हुए हम यहाँ तक आ पहुँचे हैं. यह जन्म मंजिल नहीं है, न ही मृत्यु इसका अंतिम पड़ाव है, अभी आगे जाना है. स्वयं को जानकर यानि आत्मस्थित होकर ही हम इस यात्रा को सजगता पूर्वक कर सकते हैं. इसके लिए हर तरह के प्रमाद और भय से मन को मुक्त करना होगा, जीवन जिस रूप में भी सम्मुख आता है, उसे स्वीकार करना होगा और परमात्मा को सदा अपने निकट ही जानकर उसके प्रति श्रद्धा को जगाये रखना होगा.

Tuesday, August 28, 2018

जब जैसा तब वैसा रे


२८ अगस्त २०१८ 
जीवन जब हमारे निकट मुस्कुराता हुआ गुनगुना रहा होता है, हम किन्हीं व्यर्थ की बातों में खोये उससे नजरें नहीं मिलाते. संत कहते हैं, परमात्मा चारों ओर उसी तरह मौजूद है जैसे हवा और धूप. खिड़कियाँ बंद हों तो धूप भला अंदर आये कैसे और हवा थोड़ी बहुत आ भी गयी तो उसे ताज़ी रखने के लिए भी तो खिड़कियाँ खोलनी होंगी. हवा को कैद नहीं कर सकते न ही धूप को...उन्हें तो वे जैसे हैं, जब हैं, उसी वक्त महसूस करना है, इसी तरह परमात्मा को हर क्षण को जैसा वह है वैसा ही स्वीकार कर ही महसूस किया जा सकता है. मन पर विचारों और विकारों के पर्दे लगे हों तो उसका प्रवेश सम्भव नहीं है.

Saturday, August 25, 2018

यह राखी बंधन है ऐसा


२५ अगस्त २०१८ 
इस जगत में कोई भी हृदय प्रेम से खाली नहीं, किन्तु उसे पूर्णता से महसूस करने के पल जीवन में कम ही आते हैं. कल श्रावणी पूर्णिमा है, यानि राखी का त्योहार, जिस दिन बहनें, भाई की कलाई में रक्षा सूत्र बाँधती हैं. मस्तक पर रोली-अक्षत का तिलक और हाथ में आरती से सजी थाली, जिसमें जलता हुआ दीपक कहता है, उनके जीवन में सदा प्रकाश बना रहे. बहन के हाथ में मिष्ठान से भरी थाली और भाई के हाथ में उपहार, कितना सुंदर दृश्य उपस्थित हो जाता है. प्रेम को व्यक्त करना कितना कठिन है पर इन सारे बाहरी उपायों के द्वारा अंतर के पावन भावों को व्यक्त करना कितना सहज हो जाता है. मिठाई में यदि प्रेम की मिठास न घुली हो और उपहार भी यदि प्रेम से न दिया गया हो तो उत्सव मना ही नहीं, उत्सव की भावना भीतर जगाये बिना औपचारिकता ही निभाई गयी. इसीलिए हमारे पूर्वजों ने सभी उत्सवों को पवित्रता और उपवास से जोड़ दिया गया, सुबह स्नान आदि से शुद्ध होकर बिना मुख जुठाये बहन भाई के आगमन की राह देखती है, तो उसके अंतर में छुपी भावना हृदय में पनपने लगती है. किसी भी भाव को प्रकट होने के लिए अंतर में रिक्त स्थान तो चाहिए न, उत्सव के दिन शेष दिनों के सामान्य कार्यों से छुट्टी लेकर जब हम विशेष हर्ष का उपाय करते हैं तो उल्लास, प्रेम आदि के भाव सहज ही प्रकट होने लगते हैं.

Thursday, August 23, 2018

सुख-दुःख मन की ही कलियाँ हैं


२३ अगस्त २०१८ 
कितनी बार हमने ये शब्द नहीं सुने हैं, ‘हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं’. भाग्य का अर्थ जीवन में केवल सुखद परिस्थितियाँ आना ही तो नहीं है. जो भी हमारे साथ घट रहा है, वह सब हमारे ही द्वारा रचा गया है. सुख को तो हम स्वयं की कृति मान सकते हैं, पर दुःख का कारण  स्वयं को नहीं मानते. यही बात है कि दुःख जीवन से कभी विदा ही नहीं लेता. अनजाने में हम स्वयं ही रोज-रोज इसकी नई-नई फसल बोते रहते हैं और हर बार इसका कारण किसी न किसी पर डाल देते हैं. जीवन में किसी ने कामयाबी हासिल की तो हम उसकी मेहनत और कठोर परिश्रम के कारण उसे बधाई देते हैं, इसी तरह जब कोई अपने जीवन में असफल हुआ, अस्वस्थ हुआ और दुखी हुआ, यदि उसी क्षण वह इसकी जिम्मेदारी भाग्य पर न डालकर स्वयं पर लेने की हिम्मत दिखाए, उसी क्षण से उसका भाग्य बदलने लगता है. हमारे मन का तनाव भी खुद का बनाया हुआ है और हमारे मन का उल्लास भी हमारी ही रचना है. जीवन हर क्षण एक सा है, हमारी दृष्टि जैसी होगी वह वैसा ही दिखाई देने वाला है. किसी के पास कुछ भी न हो पर उसका मन प्रसन्न रहने की कला जानता हो तो वह अभाव का अनुभव ही नहीं करेगा. किसी के पास सब कुछ हो और मन को खिलने की कला नहीं आती हो तो वह उस सुख को भी पीड़ा में बदल सकता है.

Sunday, August 19, 2018

पल-पल सजग रहेंं जीवन में


२० अगस्त २०१८ 
जीवन हर क्षण एक सा है, एक रस, सदा जीवंत, सदा भरपूर, उस सागर की तरह जो सदा ही जल से छलकता रहता है, कभी खाली नहीं होता. हमारा पात्र कितना बड़ा है, और हम उससे क्या चाहते हैं, यह तय करता है, कि जीवन हमारे लिए कैसा है. हमें पल-पल इसे गढ़ना है, पल-पल इसे संवारना है. इसकी देने की क्षमता अपार है, पर हमारी चाह छोटी सी है. विशाल हृदय हो तभी कोई अटल जी की तरह विरोधियों के मध्य रहकर भी अपना नाम अमर कर जाता है. हर घड़ी एक अनंत को अपने भीतर छिपाए है, जैसे अति सूक्ष्म परमाणु में अपरिमित शक्ति है, बिलकुल वैसे ही. अपने सामान्य जीवन की आपाधापी में हम इस सत्य को भुला बैठते हैं, और उस अनंत से वंचित रह जाते हैं. मन सीमित से संतुष्ट नहीं होता, उसे विस्तृत हुए बिना चैन नहीं मिलता, तभी आकाश की अनंतता उसे लुभाती है. जीवन से नजर मिलनी है तो वर्तमान क्षण की गहराई में उतरना होगा और मन के प्रांगण को उसके लिए खाली कर देना होगा.

Thursday, August 16, 2018

एक युग का अवसान


१७ अगस्त २०१८ 
भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री भारतरत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी कल शाम हमारे बीच नहीं रहे. सारा देश इस महान नेता के निधन से शोक में ग्रस्त है. अटल जी की प्रशंसा किये बिना उनके विरोधी भी नहीं रह पाते थे. उनका जीवन भारत के उत्थान और विकास के लिए समर्पित था और उसमें किसी भी तरह की स्वार्थ भावना नहीं थी. उनका हृदय इतना विशाल था कि अपने विरोधियों के अच्छे कार्यों पर उन्हें बधाई देने में वे जरा भी नहीं हिचकते थे. कवि हृदय अटल जी संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देने वाले पहले भारतीय नेता थे. हर भारतीय को उनसे कुछ सीखने की आवश्यकता है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक और उत्तर-पूर्व से गुजरात तक आज हर आँख उन्हें विदाई देते हुए नम है. वह भारत को विश्व में उसका खोया हुआ गौरव दिलाने के लिए कृत संकल्प थे. भारत के इतिहास में सदा के लिए उनका नाम सुनहरे शब्दों में अंकित रहेगा.  

Wednesday, August 15, 2018

मार्ग उसे जिस पल देंगे हम


१६ अगस्त २०१८ 
आत्मा रूप से परमात्मा हरेक के भीतर समान रूप से विद्यमान है. वह हमारे कर्मों द्वारा प्रकट होना चाहता है. संत उसे मार्ग दे देते हैं और हम उसके मार्ग में अड़ कर खड़े हो जाते हैं. हमारी कामनाएं उसके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं, ध्यान की गहराई में जब मन खो जाता है, वही वह रह जाता है. प्रकृति उसे सहज रूप से अभिव्यक्त होने दे रही है, इसी लिए इतनी आकर्षक प्रतीत होती है. नन्हे पंछी और शावक भी उसी को अभिव्यक्त कर रहे हैं और सुकोमल फूल भी. मानव का मन यदि स्वच्छ पानी की तरह निर्मल और हर पात्र में ढल जाने वाला हो, नमनीय हो, तो परमात्मा उसमें से स्वयं को व्यक्त कर सकता है. हमारा स्वभाव यदि पर्वत की तरह कठोर है, झुकना ही नहीं जानता हो तो श्वास से भी सूक्ष्म परमात्मा उसमें से कैसे प्रकटेगा.

Monday, August 13, 2018

स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर


१४ अगस्त २०१८ 
कल स्वतन्त्रता दिवस मनाया जायेगा, हर कोई प्रसन्न है और अपने तरीके से इस राष्ट्रीय उत्सव को मनाने की तैयारी कर रहा है. भारत का छोटे से छोटा प्रदेश हो या सुदूर कोने में स्थित कोई गाँव हो, किसी न किसी के द्वारा तिरंगा लहराया जायेगा. नीलगगन में लहराते हुए तिरंगे को देखकर हर भारतीय का हृदय एक अनजाने उल्लस से भर जाता है. इस देश में जन्म लेना कितना सौभाग्य से भरा है, इसका अहसास होता है. चाहे कोई विदेश में हो या देश में स्वतन्त्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस पर देश की याद दिल में किसी न किसी झरोखे से आ ही जाती है. देशभक्ति का कोई गीत कहीं बजता हो या टीवी पर लाल किले से प्रधान मंत्री के भाषण की कोई बात सुनाई दे जाये, मन कृतज्ञता से भर जाता है और हृदय में देशप्रेम की एक हिलोर जगने लगती है. राष्ट्र हमें एक सूत्र में बांधता है, एक पथ पर आगे ले जाता है, हमारे सुख-दुःख साझे हो जाते हैं, सीमा पर कोई संकट हो तो करोड़ों हृदय एक साथ उसका सामना करने के लिए तत्पर होते हैं. राष्ट्र की सीमाओं में हम स्वतंत्र हैं, अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, अपने स्वप्नों को पूर्ण करने के लिए, अपने भीतर की सोयी हुई शक्तियों को जगाकर देश को हर दृष्टि से समर्थ बनाने के लिए. हर भारतीय हमारा अपना है, इस बात का अहसास विदेश में किसी भारतीय को देखकर कितनी शिद्दत से होता है. आइये इस आजादी के जश्न को मनाते हुए हम अपने उन लाखों भाई-बहनों को भी याद करें, जिन्होंने अपने श्रम और भावनाओं से इस भारत भूमि को सींचा है, उन्हें भी जो युद्ध भूमि पर शहीद हुए. देश की आजादी में अपना योगदान देने वाले सभी संतों, महापुरुषों, लेखकों, कवियों, और वीरों को नमन करते हुए आप सभी को स्वतन्त्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें !


भक्ति करे कोई सूरमा


१३ अगस्त २०१८ 
बूंद जैसे हम हैं और सागर जैसा भगवान, उससे मिलने जायेंगे तो हमें स्वयं को खोना ही पड़ेगा. बीज जैसे हम हैं और विशाल वटवृक्ष जैसा परमात्मा है, हम मिटेंगे तभी वह प्रकटेगा. मल, विक्षेप, आवरण से ढके हैं हम और वह अनंत खुले आकाश जैसा सब और व्याप्त है. हम पंचकोश में छिपे हैं. इच्छाओं और कामनाओं के दुर्ग में कैद हैं, मन है कि पीपल के पत्ते सा पल-पल डोला करता है, बात त्यागने लायक हो फिर भी उसे मन से लगाये रहते हैं. अहंकार ही दुःख का आवरण डाले रहता है पर उसे भी नहीं छोड़ते, जानते हुए भी उस मार्ग का त्याग नहीं कर पाते जिस पर चल कर सदा ही दुःख पाया है. जिसकी मंजिल अनंत आकाश है वह स्वयं को पिंजरे में कैद मानता है, यही तो माया है. सद्गुरू कहते हैं, जिस घड़ी भीतर मिटने से कोई भय नहीं रहेगा, अहंकार को विसर्जित करन सहज हो जायेगा, उसी पल सत्य में जागरण होगा.

Thursday, August 9, 2018

स्वयं के निकट रहेगा जो


१० अगस्त २०१८ 
मन सकारात्मक हो तो समस्या को नहीं उसके पीछे छिपे हल को देखता है, और नकार से भरा हो तो समस्या इतनी बड़ी दिखाई देती है कि स्पष्ट नजर आता हुआ हल भी उसे दिखाई नहीं पड़ता. जितना-जितना हम अपने केंद्र के नजदीक होते हैं, ज्ञान से जुड़े रहते हैं, परिधि पर आते ही मन डोलने लगता है, उसे हानि-लाभ की चिंता सताने लगती है. वह अपने सिवा कुछ और देख ही नहीं पाता. आज समाज में जो इतनी असंवेदनशीलता है, उसका कारण है कि हम स्वयं से बहुत दूर निकल आये हैं. केंद्र पर स्थिरता है, वहाँ आश्वासन है, भरोसा है, विश्वास है. वहाँ से परमात्मा निकट है. मन्दिरों में बढ़ती भीड़ इस बात को नहीं दर्शाती कि लोग ज्यादा धार्मिक हो गये हैं, बल्कि इस बात को ही दिखाती है कि लोगों का भरोसा स्वयं से उठ गया है. उनके घरों में रहने वाले कुल देवताओं से उठ गया है. परमात्मा के प्रति आस्था तभी हो सकती है, जब मन में शुभता के प्रति, सत्य के प्रति आस्था हो.

सत की चाह जगे जब भीतर


९ अगस्त २०१८ 
पहले हमें यह तय करना होगा कि हम चाहते क्या हैं, हमारी मूलभूत आवश्यकता क्या है ? हम यदि अपने वर्तमान जीवन और जीने के तौर-तरीकों से संतुष्ट नहीं हैं तो वह आदर्श स्थिति क्या है, जिसके सपने देखते हम नहीं थकते. यदि कोई अभाव हमें इस समय खल रहा है, और एक दिन उसकी पूर्ति हो जाये तो हम किस स्थिति में होंगे, और कैसा अनुभव करेंगे. हमें बिलकुल स्पष्ट होना होगा और अपने संकल्पों को सरल भाषा में स्वयं को बताना होगा. ऐसा तो नहीं कि हमारे भीतर विरोधी इच्छाएं पल रही हों और हर इच्छा दूसरी को काट देती हो. यदि हम स्वस्थ देह चाहते हैं, तो साथ ही व्यायाम और सात्विक भोजन भी हमारी चाह बनने होंगे, अन्यथा प्रमाद और गरिष्ठ भोजन हमारी पहली इच्छा को पूर्ण होने नहीं देंगे.

Monday, August 6, 2018

छाया को छाया भर जानें


७ अगस्त २०१८ 
एक तरफ पदार्थ है और दूसरी तरफ ऊर्जा यानि चेतना, दोनों के संयोग से एक तीसरा तत्व उत्पन्न हुआ मन, जो ऐसे ही था जैसे प्रकाश के सामने कोई वस्तु आ जाये तो उसकी छाया बन जाती हो. छाया जो प्रकाश के अनुसार बदलती रहती है, जो कभी होती है कभी नहीं होती, इसीलिए मन को चन्द्रमा के समान माना गया है, जो घटता बढ़ता रहता है और कभी-कभी समाप्त ही हो जाता है. यदि चन्द्रमा पर सूर्य का प्रकाश न पड़े और वह धरती की परिक्रमा न करे तो उसके अस्तित्त्व का सामान्य मानव को पता भी न चले. भौतिकी नियम के अनुसार पदार्थ और ऊर्जा दोनों को न ही उत्पन्न किया जा सकता है, न ही नष्ट किया जा सकता है. हम स्वयं को यदि शुद्ध पदार्थ मानते हैं, यानि अपना केवल भौतिक अस्तित्त्व मानते हैं, तो भी हमारा विनाश सम्भव नहीं है, केवल परिवर्तन होता है. पंच तत्वों से बना बच्चे का तन एक दिन वृद्ध हो जाता है और पुनः सारे तत्व अपने-अपने स्रोत में मिल जाते हैं. यदि हम स्वयं को शुद्ध चेतना मानते हैं तब भी हमारा विनाश सम्भव नहीं है. स्वयं को मन मानने से ही सारी उलझन का आरम्भ होता है. पहली बात तो यह है, मन छाया मात्र है, अर्थात उसका कोई अस्तित्त्व नहीं है, वह प्रतीत भर होता है. पदार्थ परिवर्तन शील है, उसकी छाया होने के कारण मन भी प्रतिपल बदल रहा है, इसीलिए कोई भी अपने आप में टिका हुआ नहीं लगता, केन्द्रित नहीं है. मन माया के पार जाकर ही कोई स्वयं में स्थित हो सकता है.

भीतर बाहर एक हुआ जो


६ अगस्त २०१८ 
संत कहते हैं, मनसा, वाचा, कर्मणा हमें एक होना है, जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही वाणी में प्रकटे, उसी के अनुसार हमारे कृत्य हों. तभी जीवन में सच्चा योग फलित होता है. हो सकता है हमारे भाव शुद्ध हों पर वाणी कठोर हो जाती हो, अथवा जितना कार्य हम करना चाहते हों, उतना करते न हों. हमारे संकल्प जब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं हो जाते तब तक योग जीवन में नहीं उतरा. कोई व्यक्ति बहुत श्रम करता है किंतु करते समय प्रसन्न नहीं है, अर्थात उसका मन कार्य के साथ एक नहीं हुआ. कोई ऊपर से बहुत मधुर बोलता है पर मन से उसके विपरीत सोचता है, तब भी भीतर संघर्ष बना ही रहेगा. जिस क्षण हम पूर्ण सकारात्मक हो जाते हैं, बाहर कैसी भी परिस्थिति हो मन में एक शांति का अनुभव करते हैं, तब बोलते समय वाणी की सजगता बनी रहेगी, कृत्य करने में त्रुटियाँ भी कम होंगी. जीवन का हर दिन एक नयी चुनौती लेकर आता है, बल्कि हर क्षण ही हमारे सामने एक अवसर होता है, जिसमें हम योग के पद पर स्थित रह सकते हैं अथवा उससे नीचे उतर सकते हैं.

Thursday, August 2, 2018

हर पल बने सार्थक अपना


३ जुलाई २०१८ 
सुबह से शाम तक सभी को समय एक जैसा मिला है, कोई उन्हीं क्षणों में कितना कुछ कर जाता है और कोई समय की कमी का रोना रोता रहता है. समय अति बहुमूल्य है, यह जानते हुए भी हम कितना समय व्यर्थ के कामों में गंवा देते हैं. वास्तव में जब तक हमारे द्वारा जीवन में प्राथमिकतायें तय नहीं होतीं, हमारा समय यूँही व्यय होता रहेगा. देह को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम और मन को स्वस्थ रखने के लिए ध्यान उसी तरह आवश्यक है, जैसे देह बनाये रखने के लिए भोजन, जब तक यह हम पूर्णतया स्वीकार नहीं कर लेते तब तक साधना के लिए समय निकालना जरूरी नहीं लगेगा. इसी तरह यदि कोई तय कर ले कि लेखन यदि प्रतिदिन नहीं किया जाता तो विचारों का प्रवाह रुक जाता है, उसमें सहजता नहीं रहती, तब वह उसे भी प्राथमिकता देना आरम्भ कर देगा. मात्र हमारा भौतिक अस्तित्त्व बना रहे, इतना ही तो पर्याप्त नहीं है. इस होने में निरंतर प्रज्ञा का विकास हो तभी अपने स्वरूप में हम बने रह सकते हैं.