३१ अगस्त २०१८
संत कहते हैं,
ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या...सत्य इतना सरल है कि उस पर दृष्टि ही नहीं जाती, इसलिए
ब्रह्म से हम अनजाने ही बने रहते हैं. जगत इतना विषम है कि उलझा लेता है, जो उलझा
हुआ है वह भला क्या समझेगा, इसलिए जगत की असलियत से भी हम अनजान ही बने रहते हैं.
जगत मिथ्या है, इसका भान ही नहीं कर पाते. जीवन जो एक अवसर के रूप में हमें मिला
था, एक दिन चुक जाता है और हम इस जगत से खाली हाथ ही प्रयाण कर जाते हैं, दुबारा
उसी जाल में उलझने के लिए. जीवन एक ऊर्जा है, जो पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और
मनुष्यों के द्वारा प्रवाहित हो रही है. वनस्पति जगत हो या जीव जगत उन्हें इसका
कोई अहंकार नहीं है, पर मनुष्य को लगता है, वह इस ऊर्जा का निर्माता है. वह अपनी
इच्छा से जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है, प्रकृति का दोहन करके अपने लिए सुख-सुविधाओं
के अम्बार लगा सकता है. मनुष्य यदि यह समझ ले कि वह भी इस विशाल आयोजन का एक
पुर्जा ही है, ऊर्जा उसके माध्यम से व्यक्त भर हो रही है, वह उसका निर्माता नहीं
है. ऐसा करते ही भीतर एक परिवर्तन आता है, कुछ बनने की, कुछ प्राप्त करने की लालसा
एक सहज कर्म प्रवाह में बदल जाती है. जीवन की जिस क्षण जो मांग है उतना भर होता है
और शेष समय अंतर एक सहज स्थिति का अनुभव करता है.