Sunday, June 29, 2014

एक ऊर्जा भीतर पलती

दिसम्बर २००६ 
संतजन कहते हैं, मनोरंजन पर आत्म रंजन का, भोग पर योग का, राग पर विराग का तथा अज्ञान पर ज्ञान का अंकुश रहना चाहिए. अंकुश ढीला पड़ भी जाये तो बस उतनी देर जितनी देर एक लहर पानी में उठे और गिरे. आत्मा के स्तर पर सभी प्राणी एक दूसरे से जुड़े ही हैं, यह बात जब एक बार अनुभव के स्तर पर जान ली जाती है तो सदा के लिए शांति की एक कुंजी हमारे हाथ लग जाती है. इस ज्ञान के बाद आत्म रंजन, योग और विराग स्वत ही मिल जाते हैं. हम जब किसी न किसी उद्देश्य पूर्ण कार्य में लगे रहते हैं तो भीतर एक ऊर्जा स्वयं ही निर्मित होती है, और जब जीवन में कोई ध्येय न हो तो वह ऊर्जा मंद पड़ जाती है. यही ऊर्जा योग है. 

Saturday, June 28, 2014

सत्य वही जो मुक्त करे

दिसम्बर २००६ 
ज्ञान हमें मुक्त कर देता है, भीतर से मुक्तता अनुभव में आते ही सारा जगत एक अनोखे प्रकाश से भर गया प्रतीत होता है. आत्मज्ञान पाकर ही मानव वास्तव में स्वयं को पहचानता है. उसके पूर्व तो वह अपनी क्षमता से कहीं निम्न स्तर पर जीता है. एक दासता का जीवन, मन की दासता, इन्द्रियों की दासता, धन, यश, मोह, क्रोध, और अहंकार की दासता, इनके अलावा मन की और कई सुप्त प्रवृत्तियों की दासता वह सहता है. किन्तु जब सत्य का बोध होता है मात्र उसकी झलक भर मिलती है तो जैसे कोई पर्दा उठ जाता है. वह स्वयं को कितना हल्का महसूस करता है. अनंत आकाश में निर्विरोध उसका गमन होता है.


Friday, June 27, 2014

बुरा जो देखन मैं चला


दूसरों के दोष देखने से हमारा स्वयं का दोष दृढ हो जाता है क्योंकि हम अन्यों में दोष तभी देख सकते हैं जब वे पहले हम में हों. भक्ति करने की पहली शर्त है कि अंतकरण  शुद्ध हो, मन निर्मल हो. यह जगत ईश्वर का बनाया है, इसलिए कि हम अपने शरीर को रख सकें, शरीर के उपयोग के लिए यह बना है न कि उपभोग के लिए. हम इसमें आनन्द ढूँढ़ रहे हैं, इन भौतिक वस्तुओं में आनंद नहीं है, बल्कि इसके पीछे छिपे चैतन्य में आनन्द है. जैसे पारस यदि डिबिया में बंद हो तो वह लोहे को सोने में नहीं बदल सकता. सबके भीतर चैतन्य छिपा है उसे उजागर करना है. यहाँ कोई भी दोषी नहीं है, सभी एक नाटक का पात्र बने हुए अपना अपने रोल निभा रहे हैं. हम कई जन्मों में यह ज्ञान सुन चुके हैं पर हृदय में धारण नहीं कर पाए. कभी बौद्धिक व्यायाम के लिए, कभी यश के लिए, कभी दिखावे के लिए हम आज तक भक्ति करते आये हैं. 

Thursday, June 26, 2014

वही नूर झलके सबमें

दिसम्बर २००६ 
जीवन में यदि योग हो, ईश्वर की लगन हो, सद्गुरु का अनुग्रह हो और मन में समता हो तो परमात्मा को प्रकट होने में देर नहीं लगती, वह तत्क्ष्ण प्रकट हो जाता है. प्रभु का स्मरण यदि स्वतः ही होता हो, मन उसके बिना स्वयं को असहाय अनुभव करता हो, वैराग्य सहज हो जाये तो हमारी पात्रता के अनुसार ईश्वर प्रकट हो जाता है. जो विराट है इतने बड़े ब्रम्हाण्ड का मालिक है, वह एक साधक के छोटे से उर में प्रकट हो जाता है. भक्ति विराट को लघु, असीम को ससीम बनाने में सक्षम है और लघु को विराट व ससीम को असीम बनाने में भी. ऐसी भक्ति ही साधक का ध्येय है, साध्य है. देह और बुद्धि की सार्थकता इसी में है कि इसमें चैतन्य प्रकटे. सजगता साधना की पहली और अंतिम सीढ़ी है, बिना सजग रहे हम कहीं नहीं पहुंच सकते.


Wednesday, June 25, 2014

भोले भाव मिले गोपाला

अगस्त २००६ 
हमारा अंतर्जगत अति विशाल व सूक्ष्म है और उसमें प्रतिपल कितना कुछ घटता रहता है. इसका मूल तत्व मन नहीं भाव है, भाव की संवेदना बहुत दूर तक जाती है, जहां मन नहीं पहुँचता, बुद्धि नहीं पहुंचती, वहाँ भाव के सूक्ष्म कण पहुंच जाते हैं. मन व बुद्धि भी अंतर्भाव से प्रभावित होते हैं, अतः इसकी शुद्धि का सदा ध्यान रखना होगा. भीतर की यात्रा पर जब साधक जाता है तो उसे विचारों के पार भावों के सूक्ष्म लोक में प्रवेश करना होता है. भाव धारा को बदले बिना विचार धारा बदली नहीं जा सकती और विचारों पर ही कर्म आधारित हैं, तथा कर्मों पर हमारा भविष्य, अतः भाव शुद्धि के बिना हम सुखद भविष्य की आशा नहीं रख सकते. 

Tuesday, June 24, 2014

दिप दिप जलती ज्योति भीतर

जुलाई २००६ 
सबसे कीमती वस्तु इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में एक ही है और वह है परम चेतना और वह चेतना इस सृष्टि के कण-कण में समायी है, जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया है, जो इसके नियम चला रही है, जिसने ये नियम बनाये, जो स्वयं भी उन्ही का रूप हो गयी, उसी में समा गयी, वही जानने योग्य है वह चेतना अविनाशी है. जो चेतना हम भीतर अनुभव करते हैं उसी का अंश है. हमारा मन उसी से बना है, पर जानता नहीं और कल्पनाओं में डूबा रहता है. जीवन में उत्सव तभी हो सकता है जब इस सत्य का अनुभव हो जाये.


Monday, June 23, 2014

जीवन नया बनाया उसने

जुलाई २००६ 
सद्गुरु जीवन में एक क्रांति ला देते हैं, हमारी पुरानी सारी मान्यताओं को छुड़ाकर हमें नया बना देते हैं. साधना के पथ पर चलते हुए हम नये से हो जाते हैं और प्रतिक्षण बढ़ते रहते हैं. हमारे भीतर की जड़ता समाप्त हो जाती है. हम आत्मा में रहें तभी वृद्धि को प्राप्त होते हैं, मन तो जड़ है, वह सिकुड़ना जानता है, मन रक्षात्मक है, आत्मा प्रेमात्मक है, वह विस्तार को प्राप्त होती है.


Saturday, June 21, 2014

मूल को जिसने जाना है

जुलाई २००६ 
हमारा ध्यान मूल पर नहीं जाता, पदार्थ पर जाता है, चेतना भीतर जल रही है, उस पर ध्यान जाने से ही सारी समस्याएँ समाप्त हो सकती हैं. चेतना की मलिनता और शुद्धि पर ध्यान नहीं जाने से ही हम परेशान रहते हैं, बाहर अनेक समस्याएं हैं पर सबसे बड़ी समस्या भीतर की है. हम प्रतिबिम्बों के पीछे भागते हैं, परछाईं पर हमारा ध्यान है जिसकी वह परछाई है वह सुधर जाये तभी परछाई सुधर सकती है. वस्तुएं हमें सुविधा तो दे सकती हैं सुख नहीं, सुख भीतर से आता है. हमारे भीतर जो उलझन है वह इसलिए कि हमें अपने मूल तक पहुंचना नहीं आता, हम छोटे से समाधान को समग्र मानकर भ्रान्ति में फंस जाते हैं. चेतना का विकास ही हमारे जीवन को पूर्णता प्रदान कर सकता है. 

Wednesday, June 18, 2014

भक्ति का जब दीप जलेगा

जुलाई २००६
ब्रह्म साकार भी है निराकार भी, वह परमात्मा के रूप में हमारे हृदयों में रहता है. हमारे मन का आधार भी वही है. मन जब कृष्ण समाहित होता है तो वह भीतर-बाहर उसे ही देखता है. मन के पार दोनों एक ही हैं. पर साधक यहीं आकर ठहर नहीं जाता, इसके बाद भक्ति के फूल खिलाता है. भक्ति के बाद ही जीवन में रस मिलता है, आनन्द प्रकट होता है, उल्लास प्रकटता है. उसकी व्यापकता का, भव्यता का ज्ञान होने के बाद ही भीतर कृतज्ञता का भाव उमड़ता है. धन्यभागी होने का भाव जगता है और तब जीवन में पूर्णता आती है. इस अनंत ब्रह्मांड को जो संकल्प रूप से रचते हैं वह परमात्मा हमारे आराध्य हैं यह भाव जगते ही मन प्रेम से झुक जाता है.                                                                                                       

धर्म वही जो मुक्त करे

जून २००६ 
सद्गुरु कहते हैं, जो भीतर गया वह भी तर गया, अपने में शिफ्ट होकर ही कोई तर सकता है. मुक्ति का आनंद न तो गिफ्ट में मिलता है न ही किसी के द्वारा दी लिफ्ट में मिलता है, वह तो अपने में शिफ्ट होने पर मिलता है. जीवन में मुक्ति की साधना करनी है तभी हम स्वयं में आ सकते हैं, यानि पहले देहस्थ फिर मनस्थ और अंत में आत्मस्थ. अभी तो हमारा मन चौबीस घंटे बाहर ही भागता रहता है. यद्यपि हम जो भी करते हैं मुक्ति के लिए ही करते हैं पर उसका अंत बंधन में होता है. हमारा प्रेम भी बंधन हो जाता है और ज्ञान भी. स्वयं में गये बिना मोक्ष सम्भव नहीं है.                                                                                                                    

Tuesday, June 17, 2014

लघुता में है छिपा महान

अप्रैल २००६ 
अस्तित्व सूक्ष्म है, उससे परिचय हो जाये तो हम सूक्ष्मतर आत्मा के स्वरूप में रहने लगते हैं, तब हम लघुत्तम पद में आने लगते हैं. क्रिया से अहंकार होता है, पर यह ज्ञान क्रिया से नहीं मिलता, ज्ञान से ही मिलता है. कर्म हमें पहचान देता है, पर वह पहचान अहंकार जनित होने के कारण सुख-दुःख से प्रभावित होती रहती है. ज्ञान से मिली स्वयं की पहचान स्वभाव जनित है अतः कभी बदलती नहीं, यह हमें जगत से तोडती नहीं, विशिष्ट नहीं बनाती वरन सारी दुनिया तब अपनी हो जाती है. कोई विरोध नहीं रहता. छोटा ‘मैं’ एक विशाल ‘मैं’ में बदल जाता है जो पूर्ण है. 

Monday, June 16, 2014

सुरभि समान सहज सुख राशि

अप्रैल २००६ 
सच्चा सुख वह है जो शाश्वत है. वह व्यक्ति, वस्तु, स्थान से मिल ही नहीं सकता क्योंकि ये सभी प्रतिपल बदल रहे हैं. जब तक हमारी दृष्टि में द्वैत है, वह सुख हमें नहीं मिल सकता. अद्वैत का अनुभव होते ही दोष दृष्टि मिट जाती है, मन व वाणी का तप तब सहज ही घटता है. तब यह प्रतीति होने लगती है कि जीवन प्रभु के प्रेम से भरपूर है, उसी तरह जैसे फूलों में खुशबू. एक अखंड शांति तब साये की तरह हर क्षण साथ रहती है.


Saturday, June 14, 2014

द्रष्टा से जो जुड़ जाता है

अप्रैल २००६ 
मन की कल्पना ही हमें सुख-दुःख देती है, जो इस मन को कभी स्थिर कभी चलायमान देखता है, वही तत्व जानने योग्य है. जो हर एक के पीछे सामान्य सत्ता के रूप में स्थित है उससे जुड़े रहें तब प्रभु हमें बुद्धियोग देते हैं. उस जानने वाले को जानकर ही सन्त सहज हो जाते हैं और हमें भी वैसा ही बनाने का प्रयत्न करते हैं. हम जितने-जितने सरल व सहज होते हैं, उतने-उतने ही दुखों से दूर होते जाते हैं, जब हम सारे आग्रह छोड़ देते हैं तो जीवन अपने आप चलने लगता है. सारे कार्य तो वैसे भी हो रहे हैं, हम व्यर्थ ही स्वयं को कर्ता मानकर अभिमान का भार ढोते हैं. 

Friday, June 13, 2014

जिसकी डोरी उसके हाथ


यदि कोई साधना के पथ पर चलना चाहे तो ईश्वर उसके लिए सुविधा कर देते हैं. परमात्मा और सद्गुरु हर पल साधक को अपनी नजर में रखते हैं. एक पल के लिए भी वह उनसे जुदा नहीं है. उसके भीतर के अज्ञान को मिटाने के लिए भी वह तरह-तरह की परिस्थितयां जीवन में भेजते रहते हैं. हृदय में जब तक कोई भी कामना शेष रहे तब तक हम सत्य का अनुभव नहीं कर सकते, तो वह उसकी शुभकामना की पूर्ति करने में भी बाधा खड़ी कर देते हैं. साधक को अपने अंतर को पूर्णतया खाली करना है, सारे राग मिटाने हैं, जगत के माध्यम से जीवन में ऐसे कितने ही पल आते हैं जब उसे यह जांचने का मौका मिलता है कि भीतर समता बनी है या नहीं. ईश्वर के रूप में ही वह सुखद या दुखद परिस्थिति को स्वीकारता है. अपने जीवन की पूरी बागडोर प्रभु के हाथों में सौंप देना ही समपर्ण है. जहाँ भेद है वहाँ समपर्ण है ही नहीं. ध्यान में जो एकता अनुभूत हो ती है वही एकता यदि हर समय अनुभव करें तो बाह्य परिस्थिति हमें विचलित नहीं कर सकती. 

Thursday, June 12, 2014

हर पल कोई साथ सदा है

अप्रैल २००६ 
एक समय ऐसा आता है, जब साधक को लगता है कि उसके जीवन की कहानी का सूत्रधार कहीं बैठ-बैठा इसके पन्नों को खोल रहा है, बाद में कुछ घटने वाला है इसके लिए वह पहले पृष्ठभूमि तैयार करता है. सदा ही ऐसा होता आया होगा पर पहले सजगता नहीं थी. ईश्वर को अपने भक्तों का अहंकार जरा भी पसंद नहीं है, प्रकृति को भी हमारा प्रमादी रहना पसंद नहीं है, तभी तो उसके नियमों के विपरीत चलने पर हमें उसका परिणाम भुगतना ही पड़ता है. जो हम दूसरों के साथ करते आए हैं, वही जब खुद के साथ घटने लगता है तभी हम सीखते हैं.  


Wednesday, June 11, 2014

बिन विवेक नहीं होए प्रतीति

अप्रैल २००६ 
चंचल बालक की तरह मन संकल्प-विकल्प करता है पर समझदार माँ की तरह बुद्धि उसे सम्भालती है, मन एक निरंकुश अश्व की तरह छलांगे मरना चाहता है पर सवार की तरह बुद्धि उसे सही रास्ते पर लाकर नियमित चाल से चलना सिखाती है. साधक अपने मन अथवा विचारों का ही तो प्रतिबिम्ब है. मन एक आईने की तरह होता है जिसमें विचार झलकते हैं, यदि बुद्धि का साथ हो तो मन का दर्पण उजला रहता है अथवा वह धुंधला जाता है और वह अपने आप को ही नहीं पहचान पाता, सब अस्पष्ट हो जाता है. और ऐसा मन लिए वह नये संकल्प करता है और धीरे-धीरे एक ऐसे कुचक्र में फँसता जाता है जिसमें से निकलना कठिन होता जाता है, विवेक को प्रश्रय दिए बिना उद्धार नहीं होता.   

Tuesday, June 10, 2014

चलती रहे साधना प्रतिपल

अप्रैल २००६ 
साधना के बाद मन पहले के जैसा नहीं रहता, जो हर वक्त बीच में अपनी टांग अड़ाता था, अब कहना मानता है. आखिर मन है क्या, कुछ आशा कुछ निराशा, पर जब हम अपने सही स्वरूप में होते हैं तो कुछ पाने की आशा नहीं, कुछ खोने की निराशा नहीं, पीड़ा भी तब सात्विक हो जाती है, वह यह कि साधक को सेवा के पर्याप्त अवसर नहीं मिले. ईश्वर से निकटता का अनुभव होने लगता है, उसका प्रेम ही स्वयं को समर्पित करने को प्रेरित करता है. वह जीवन को पूरी गहराई से जीना चाहते हैं, सच्चाई से भी. हमारे वचनों, कर्मों और विचारों में एकता आने लगती है. हम अपने प्रति सच्चे होने लगते हैं. सत्य की ही जय होती है, साधक हर कीमत पर सत्य का ही आश्रय लेना चाहता है, अपने जीवन के हर मोड़ पर.


भीतर का जब दीप जलेगा

अप्रैल २००६ 
प्रकृति के नियमों के अनुसार यदि कोई जीता है तो जीवन एक उत्सव बन जाता है और उसका हर क्षण एक अमूल्य अनुभव ! हम इस धरा पर मानव देह पाकर एक अनोखी यात्रा पर निकले हैं. जब यहाँ आये थे तब निर्दोष थे, जगत के प्रभाव में आकर दिन-प्रतिदिन अपने मूल स्वभाव पर आवरण चढ़ाते गये, असहज होकर जीने लगे और परिणाम यह हुआ, अपने भीतर एक दर्द और भय को जगह देते गये. हमारे सारे कृत्यों का साक्षी बन कर परमात्मा सदा हमारे साथ है, हम ऊपर-ऊपर से स्वयं को जो भी दिखाएँ, भीतर जो सही है वह सही है, जो गलत है वह गलत है. भय और दर्द के कारण भीतर का प्रेम, जो हमारा सहज स्वभाव है, व्यक्त होने से रह जाता है, सत्य, करुणा तथा अपनत्व हमारा मूल स्वभाव है, इसके विपरीत जो भी है, वह झूठ है, ओढ़ा हुआ है, उससे मुक्त हुआ जा सकता है.


Monday, June 9, 2014

मनवा शीतल होए

अप्रैल २००६ 
किसी ने हम पर क्रोध किया और हम जल गये तो इसका अर्थ है नियति ने हमारे घड़े को खाली करना चाहा था पर हम खाली न हुए. मन घट के समान है, ऐसा मन जो परमात्मा द्वारा सहेजा गया है, वह नहीं जलता, न अपने न दूसरों के क्रोध की अग्नि में. वह खाली है और वही शीतल जल से भरा जाता है, कुम्हार द्वारा तपाये घड़ों में भी जो जल जाता है वह व्यर्थ हो जाता है, जो नहीं जलता वही काम में आता है. सन्त यह भी कहते हैं, जो तप गया वह कांच, जो नहीं तपा वह हीरा है.


Friday, June 6, 2014

बहा करे शुभ धारा मन की

अप्रैल २००६ 
ध्यान करने से विश्रांति मिलती है, और विश्रांति से सद्कार्यों के लिए सामर्थ्य उत्पन्न होता है. किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए आवश्यक है भीतर उदारता हो, मन अपने अवगुण तथा अन्यों के गुणों का पारखी हो. जीवन तब अपने आप ही सार्थक प्रतीत होगा. जब मन कमजोर होता है उसकी जड़ में नकारात्मक वृत्तियाँ होती हैं, प्रवाह रुक जाता है, उन्हें सद्विचारों के पानी से बहाकर पुनः प्रवाह को जारी रखना होगा. जीवन में सुख है या दुःख यह मानव के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है, एक ही स्थिति को कोई दो तरह से अनुभव कर सकता है.. सद्कार्य का परिणाम सद ही होता है. जीवन को चाहे तो फूलों सा सजा ले, चाहे तो धूल सा पैरों के तले रौंद दे, अच्छे काम के लिए किया गया प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता और अच्छे कार्य की प्रेरणा सद्विचारों से ही मिलती है.



Tuesday, June 3, 2014

हर घड़ी पलकें बिछाये

अप्रैल २००६ 
साधक के हृदय में जब यह भाव जगने लगता है कि कौन सा वह पल होगा जब उसे परम अनुभव होगा, वह उससे मिलेगा जिसकी खबर तो आती है, जिसके चर्चे तो उसने बहुत सुने हैं, जिसकी झलक तो उसने बहुत देखी है पर जो अभी उससे छिपे हैं, वह तब कहीं फंसना नहीं चाहता. वह कहीं भी भटकना नहीं चाहता, वह हर घड़ी स्वयं को मुक्त रखता है ताकि उनका स्वागत कर सके. वह अपना हृदय उनके स्वागत में खाली रखना चाहता है, वह कोई चांस नहीं ले सकता, पहले ही इतना समय निकल गया है.  

एक सूत्र में जग पोया है

अप्रैल २००६ 
जब हम सुख के पीछे दौड़ते हैं तो दुःख पीछा करता है और जब ज्ञान के पीछे दौड़ते हैं तो आनन्द पीछे आता है. ज्ञान क्या है? एक ही चैतन्य सत्ता सबके भीतर व्याप्त है, वही जड़ में है वही चेतन में, मूलतः सभी एक ही तत्व से बना है. हमें भिन्नता को नहीं सबके भीतर व्याप्त सामान्य सत्ता को ही देखना है, वह सत्ता जो आनंद मयी, करुणा मयी तथा ज्ञानमयी है. सारे सद्गुण उसी में निवास करते हैं. सभी प्राणी भीतर से शुद्ध हैं, यदि किसी के प्रति हम दोष दृष्टि रखेंगे तो स्वयं को भी दोषी ही मानेंगे, तब अपने भीतर प्रवेश सम्भव ही नहीं होगा. वह परमात्मा जब पूर्ण है तो उसका जगत भी पूर्ण ही है. जो भी कमी है वह ऊपर-ऊपर है.  

Monday, June 2, 2014

तेरा साहिब घट के भीतर

अप्रैल २००६ 
प्रेम से प्रभु प्रकटता है, प्रेम विश्वास से, विश्वास ज्ञान से, ज्ञान श्रद्धा से, श्रद्धा समता से और समता सत्य से और सत्य प्रभु ही है. हमारा हृदय जब समता से भर जाता है तब ही मानना चाहिए परम में हमारी स्थिति है, वह हम सभी के भीतर अनंत सुख के रूप में विद्यमान है. जब तक उसका ज्ञान नहीं होता तभी तक सारी बेचैनी है, उसके बाद तो मन मस्ती में डूब जाता है. हमारे भीतर जो मोती भरे छिपे हैं, जो अमृत भरा है उसे ध्यान की डुबकी लगा कर हम पा सकते हैं. भीतर उसका प्रकाश है, संगीत है, ऊर्जा है, आनंद है उस सारी सम्पत्ति को हम सहज ही पा सकते हैं. जगत के अभाव नित्य हैं, परमात्मा का भाव नित्य है. हमें भाव चाहिए, अभाव नहीं.