Friday, July 29, 2022

जीवन कैसे सरल बनेगा

हम सब यह जानते हैं कि संकल्पों से सृष्टि का निर्माण होता है। हर किसी के ज्ञान के अनुसार संकल्प उसके मन में उठते हैं।कभी-कभी हम विपरीत संकल्प भी उठा लेते हैं, कई बार अपने ही संकल्प को काट देते हैं। अहंकार वश अपने लिए हानिकारक संकल्प भी उठा लेते हैं क्यों कि मन पर हमारा वश नहीं है। सागर में निरंतर उठती लहरों की तरह वे उठते ही रहते हैं। अनजाने में हम अस्तित्त्व से विपरीत धारा में बहने लगते हैं और वहीं संघर्ष है, द्वंद्व है।सत्य क्या है हम नहीं जानते,  कल्पनाओं से अपने-अपने भगवान भी लोगों  ने गढ़ लिए हैं और उसी के नाम पर एक-दूसरे से लड़ते हैं। समर्पण, उत्साह व आनंद किसी भी भाव में हम रहें, सबमें सजगता आवश्यक है। सजग होकर ही हम सही संकल्प का चुनाव अपने लिए कर सकते हैं। होश में जीना ही आत्मा में  होना है, वही स्थितप्रज्ञता है। होश में होना ही अपने आप में होना है,  बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने भीतर संकल्प को उठते हुए देखना यदि आ जाए तो जीवन बहुत सरल और निर्दोष बन जाता है। 


Monday, July 25, 2022

जैसे नदी मिले सागर से

मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है क्योंकि उसके पास अनंत सम्भावनाओं के रूप में चेतना का बीज है। जब तक हम सामान्य जीवन से संतुष्ट रहते हैं, यह सुप्तावस्था में पड़ा रहता है, जब भीतर स्वयं को जानने की ललक उठती है तो यह बीज अंकुरित होने लगता है। पहली बार उस आनंद की झलक मिलती है जो इस जगत का नहीं है। अलौकिक प्रेम की धीमी-धीमी आँच भीतर सुलगने लगती है और मन देह की सीमा के पार विचरने लगता है। चेतना का बीज जिसे गहराई में छिपा मानते थे अब सारे ब्रह्मांड में उसके विस्तार  का अनुभव होता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म है और असीम से भी असीम ! कर्मों के प्रति विशेष आग्रह टूटने लगते हैं, क्योंकि हर कर्म किसी न किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही किया जाता है। जीवन से अनावश्यक झर जाता है और अस्तित्त्व का जो आशय है वह हमारे होने में पूर्ण होने लगता है। जैसे कोई नदी सागर तक का मार्ग सहज ही खोजती है वैसे ही भीतर की चेतना उस परम चेतना की ओर अग्रसर हो जाती है। 


Friday, July 22, 2022

पर्यावरण जो करे सरंक्षित

जलवायु परिवर्तन के कारण आज विश्व का तापमान बढ़ रहा है।  जंगल जल रहे हैं , साथ ही  जल रहे हैं हज़ारों निरीह जीव। प्रकृति आज विक्षुब्ध प्रतीत होती है। मानव की बढ़ती हुई लिप्सा के कारण क्रुद्ध भी। आज मानव ने सुविधाओं के अम्बार लगा दिए हैं पर किस क़ीमत पर ? सूर्य की ऊर्जा ग्रीन गैसों की बढ़ती हुई मात्रा  के कारण बाहर नहीं जा पाती, इसलिए मौसम में असमय बदलाव हो रहे हैं। ईश्वर को नकारने का भाव मानव को स्वयं से भी दूर ले जा रहा है। सत्य की राह पर चलने के लिए उसे मानना तो पड़ेगा। अपने ज़मीर को भुलाकर युद्ध की आग में भी कुछ देश जल रहे हैं। अपने ही नागरिकों को भीषण दुःख में झोंकते हुए शासकगण एक बार भी नहीं सोचते। हथियारों की दौड़ में न जाने कितने  देश ग़लत नीतियों को अपना रहे हैं। जैविक और रासायनिक हथियारों पर शोध चल रही है यह जानते हुए भी कि इसके दुष्परिणाम इसी धरती के वसियों को भुगतने पड़ेंगे। प्रकृति के सामान्य नियमों को तोड़ते हुए मानव आज परिवार को भी जोड़ पाने में सक्षम नहीं रह गए हैं। किसी नीति, धर्म या परंपरा को न मानने का प्रण लेते हुए मानव को क्या दानव की वृत्ति अपनाने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। तभी शायद जंगलों में आग लगी है, युद्ध ख़त्म होने को नहीं आ रहा, कोरोना नियंत्रित होने का नाम नहीं ले रहा। विश्व जैसा आज दिशाहीन हो गया है। किंतु अस्तित्त्व आज भी अपने गौरव में मुस्का रहा है। यदि अब भी हम सजग हो जाएँ; अपने भीतर उस एक्य को महसूस करें जिससे यह कण-कण बना है; उस तत्व को नमन करें तो  कुछ अवश्य बचाया जा सकता है। एक बार फिर सादा जीवन और उच्च विचार की जीवन शैली को अपनाकर हम अपनी धरती को विनाश से बचा सकते हैं। 


Monday, July 18, 2022

अंतर में जब ध्यान सधे

महाभारत के शांति पर्व में मनु द्वारा बृहस्पति को दिया गया सुंदर उपदेश है जिसमें जीवन को सुखपूर्वक जीने का सुंदर मार्ग बताया गया है। प्रत्येक मानव को शारीरिक या मानसिक कष्टों का सामना जीवन में करना पड़ सकता है। यदि उन्हें  टालने का कोई उपाय दिखायी न दे तो शोक न करके उस दु:ख के निवारण का प्रयत्‍न करना चाहिये।उसे चाहिए कि कष्ट से होने वाले दुःख का चिंतन करना छोड़ दे। चिंतन करने से वह और भी बढ़ता है। शरीर के रोगों को दूर करने के लिए आवश्यक औषधियों का आश्रय लिया जा सकता है। मानसिक दुःख को बुद्धि और विचार द्वारा दूर करे। जगत अनित्य है, यह जानकर इसमें आसक्त नहीं होना है। जो मनुष्‍य सुख और दु:ख दोनों को छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्म को प्राप्‍त होता है। अत: ज्ञानी पुरुष कभी शोक नहीं करते हैं। विषयों के उपार्जन में दु:ख है। अत: उनका नाश हो जाये तो चिन्‍ता नहीं करनी चाहिये।इसमे संदेह नहीं कि जीवन में सुख की अपेक्षा दु:ख ही अधिक है।परंतु जब साधक सबके आदिकारण निगुर्ण तत्त्व को ध्‍यान के द्वारा अपने अन्‍त:करण में प्राप्‍त कर लेता है, तब कसौटी पर कसे हुए सोने के समान ब्रह्म के यथार्थ स्‍वरूप का ज्ञान होता है।जब  बुद्धि अन्‍तर्मुखी होकर हृदय में स्थित होती है, तब मन विशुद्ध हो जाता है।​​ इस स्थिति में वह जगत में कमलवत रहता है। 


Friday, July 8, 2022

करे संचयन ऊर्जा का जो

कृष्ण हमारी आत्मा हैं और अष्टधा प्रकृति ही मानो उनकी आठ पटरानियाँ हैं। रानियाँ यदि कृष्ण के अनुकूल रहेंगी तो स्वयं भी सुखी होंगी और अन्यों को भी उनसे कोई कष्ट नहीं होगा। इसी तरह मन, बुद्धि, अहंकार और पंच तत्व ये आठों यदि आत्मा के अनुकूल आचरण करेंगे तो देह भी स्वस्थ रहेगी और जगत कल्याण में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी। आत्मा ऊर्जा का स्रोत है। मन से संयुक्त हुईं सभी इंद्रियाँ ऊर्जा का उपयोग ही करती हैं, मन यदि संसार की ओर ही दृष्टि बनाए रखता है तो अपनी ऊर्जा का ह्रास करता है. बुद्धि यदि व्यर्थ के वाद-विवाद में अथवा चिंता में लगी रहती है तब भी ऊर्जा का अपव्यय होता है। जैसे घर में यदि कमाने वाला एक हो और उपयोग करने वाले अनेक तथा सभी खर्चीले हों तो काम कैसे चलेगा. मन को ध्यानस्थ होने के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता है, तब ऊर्जा का संचयन भी होता है. यदि दिवास्वप्नों में या इधर-उधर के कामों में वह उसे बिखेर देता है तो मन कभी पूर्णता का अनुभव नहीं कर पाता. उसे यदि एक दिशा मिल जाए तभी वह संतुष्टि का अनुभव कर सकता है, वरना जो ऊर्जा हम नित्य रात्रि में आत्मा के सान्निध्य में जाकर गहन निद्रा में प्राप्त करते हैं, दिन में जल्दी ही खत्म हो जाती है, और साधना, अन्वेषण या सृजन जैसा कोई महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए हमारे पास शक्ति ही नहीं होती।  


Monday, July 4, 2022

रस की धार बहे जब उर में

मन द्वंद्व का ही दूसरा नाम है। देह जड़ है, वह जैसी है वैसी ही प्रतीत भी होती है। देह स्वयं को स्वस्थ रखने का उपाय भी जानती है यदि हम उसे उसकी सहज, स्वाभाविक स्थिति में रहने दें। किंतु मन में लोभ है, जो अनावश्यक पदार्थों से तन को भरने पर विवश करता है। क्रोध में हानिकारक रसायनों को तन में छोड़ता है।  योग, व्यायाम व प्राणायाम के द्वारा तन व मन दोनों को स्वस्थ किया जा सकता है पर मन इसे भी अभिमान का विषय बना लेता है। हम आत्मा के आकाश में उड़ना तो चाहते हैं पर विकारों  की ज़ंजीरें पैरों में बांधे रहते हैं, यह दोहरापन ही द्वंद्व है जो मानव को चैन से नहीं रहने देता। लगता है वह दोनों पाँव धरा में धँसाए है और दोनों हाथ ऊपर उठकर परमात्मा को पुकारता है। जब तक वह अपनी पकड़ नहीं छोड़ता परमात्मा का सान्निध्य मिले भी तो कैसे ? मन के गहरे गह्वर को रूखा-सूखा दर्शन नहीं भर पाता, इसे तो केवल भक्ति के रस ही भरा जा सकता है. ईश्वर के प्रति अटूट, एकांतिक प्रेम ही हमारे मन को विश्राम देता है और रस की ऐसी धार बहाता है, जो उत्साह और उमंग के फूल खिलाती है. जीवन में उत्साह हो, सृजन की क्षमता हो, अनंत आनंद हो, बेशर्त प्रेम हो और कृतज्ञता हो तो तृप्ति की वर्षा होती ही है. परमात्मा के प्रति प्रेम एक निधि है. भक्ति योग से बढ़कर कुछ नहीं.