Monday, July 25, 2022

जैसे नदी मिले सागर से

मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है क्योंकि उसके पास अनंत सम्भावनाओं के रूप में चेतना का बीज है। जब तक हम सामान्य जीवन से संतुष्ट रहते हैं, यह सुप्तावस्था में पड़ा रहता है, जब भीतर स्वयं को जानने की ललक उठती है तो यह बीज अंकुरित होने लगता है। पहली बार उस आनंद की झलक मिलती है जो इस जगत का नहीं है। अलौकिक प्रेम की धीमी-धीमी आँच भीतर सुलगने लगती है और मन देह की सीमा के पार विचरने लगता है। चेतना का बीज जिसे गहराई में छिपा मानते थे अब सारे ब्रह्मांड में उसके विस्तार  का अनुभव होता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म है और असीम से भी असीम ! कर्मों के प्रति विशेष आग्रह टूटने लगते हैं, क्योंकि हर कर्म किसी न किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही किया जाता है। जीवन से अनावश्यक झर जाता है और अस्तित्त्व का जो आशय है वह हमारे होने में पूर्ण होने लगता है। जैसे कोई नदी सागर तक का मार्ग सहज ही खोजती है वैसे ही भीतर की चेतना उस परम चेतना की ओर अग्रसर हो जाती है। 


6 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (27-07-2022) को
    चर्चा मंच     "दुनिया में परिवार"   (चर्चा अंक-4503)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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  2. बहुत बहुत आभार!

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  3. जैसे कोई नदी सागर तक का मार्ग सहज ही खोजती है वैसे ही भीतर की चेतना उस परम चेतना की ओर अग्रसर हो जाती है।
    सही कहा आपने।
    बहुत सुंदर

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    1. स्वागत व आभार अनीता जी!

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  4. जीवन को लेकर बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति 👍

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    1. स्वागत व आभार शालिनी जी!

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