Sunday, September 29, 2019

अमन हुआ जो मुक्त वही है



जब तक मन संकुचित है वह डोलेगा ही, ऐसा मन अशांति का ही दूसरा नाम है. जो मन दिखावा करता है, तुलना करता है, वह उद्ग्विन हुए बिना नहीं रहेगा. स्वार्थ से भरा हुआ मन भी अकुलाहट से भर जाता है. विशाल मन का अर्थ है अमनी भाव में आ जाना. संत कहते हैं अमन हुए बिना समाधान नहीं मिलता. क्योंकि मन होने का अर्थ ही है अहंता का होना, जो है वह अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिए अन्य का विरोध करेगा ही, इसीलिए सिर काटने और घर जलाने की बात कबीर कह गये हैं. मन के मिटे बिना आत्मिक शांति का अनुभव नहीं किया जा सकता. चेतना जब पूर्ण विश्राम में होती है, अर्थात समाधि में होती है, तब मन खो जाता है. जब हम विचारधारा में बह जाते हैं मन के प्रभाव में होते हैं, जब हम विचार के साक्षी होते हैं, अप्रभावित बने रह सकते हैं. किंतु समाधि का अनुभव शून्यता में ही किया जा सकता है.

Monday, September 23, 2019

जिस अंतर में प्रेम जगा हो


हम सबने सुना है परमात्मा प्रेम है, इसका अर्थ हुआ जो नास्तिक हैं उनके जीवन में प्रेम नहीं है, पर ऐसा तो जान नहीं पड़ता. प्रेम तो जीव-जन्तुओं में भी होता है, हर मानव का पोषण प्रेम से ही होता है. परमात्मा जिस प्रेम से बना है, वह खालिस है, शुद्ध है, ऐसा स्वर्ण है जिसमें कोई मिलावट नहीं है, और संसार में जिसे हम प्रेम कहते हैं वह मोह, क्रोध, ईर्ष्या जैसे अवगुणों से मिश्रित है. परमात्मा सबसे समान प्रेम करता है, हम केवल अपनों को ही करते हैं, अपनों की परिभाषा किसी के लिए सारा जगत होती है, किसी के लिए उसका देश होती है, किसी के लिए मात्र उसका परिवार होती है तो किसी के लिए केवल उसकी देह और मन ही होती है. परमात्मा जिस प्रेम का नाम है वह अनंत है, उसमें सरलता है, सहजता है. वह सदा है, प्रतिपल उसके बढ़ने का अनुभव होता है. संसार का प्रेम घटता-बढ़ता रहता है. जिसने अपने मन को इतना विशाल बना लिया है कि उसमें सब कुछ समा जाये वही कोई सुहृद उस परम प्रेम का अनुभव करता है.  

Sunday, September 22, 2019

भवचक्र से पार हुआ जो



यह दुनिया मानो एक रंगशाला है, जिसमें अलग-अलग देश अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं, छोटे देश, बड़े देश, बीच के देश. कुछ युद्ध के लिए लालायित देश, कुछ शांति प्रिय देश....सभी की अपनी-अपनी भूमिका है जिसे वह निभा रहे हैं. निर्देशक कहीं नजर तो नहीं आता पर वह है जरूर, सभी सोचते हैं जिसमें उनका लाभ हो ऐसे कदम उठायें, उसके लिए अन्य देशों की हानि भी उन्हें मंजूर है. इस खेल-तमाशे में इतना जोश जनता के भीतर भर दिया जाता है कि अक्सर वह अपना होश ही गंवा बैठती है. अनेक कष्टों का सामना भी वह कर लेती है जब उसे राष्ट्रहित और धर्म के नाम पर भावनात्मक रूप से उकसाया जाता है. आज सारी दुनिया में यह हो रहा है, न जाने कितनी बार मानव सभ्यता अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँची पर इसी उन्माद के कारण उसका विनाश हुआ. यहाँ भीड़ को प्रेरित करके कुछ भी कराया जा सकता है, व्यक्ति की बात कौन सुनता है. जब कोई एक देश, दूसरे के तेल संस्थानों पर बेवजह हमला कर देता है, और कोई इसकी जिम्मेदारी भी नहीं लेता, तो यही लगता है कि मानव की बुद्धिहीनता की कोई सीमा नहीं है. यहाँ ज्ञान भी अनंत है और अज्ञान भी, यहाँ एक ही सम्प्रदाय के लोग आपस में तो लड़ते रहते हैं पर दूसरे सम्प्रदाय  के खिलाफ बोलने से भी गुरेज नहीं करते. संत कहते हैं, सम्प्रदाय छिलका है धर्म भीतर का फल है, पर ये छिलके पर ही अटके हुए हैं, वास्तविक धर्म से तो इनका अभी वास्ता ही नहीं पड़ा शायद इसी को हमारे शास्त्रों में लीला कहा गया है.

Friday, September 20, 2019

तू ही जाननहार जगत में



जगत में दो ही तो हैं एक नाम-रूप का अनंत विस्तार और दूसरा उसे जानने वाला, एक दृश्य दूसरा दृष्टा. हम यदि दृश्य के साथ एक होकर स्वयं को देखते हैं तो सदा विचलित रहते हैं, क्योंकि दृश्य सदा ही बदल रहा है. साथ ही जानने वाले से हम विलग ही रह जाते हैं. यदि द्रष्टा के साथ एक होकर रहते हैं तो दृश्य हम पर प्रभाव नहीं डालता, पर दृश्य की असलियत को हम जान लेते हैं. जो सदा बदलने वाला है उसकी मैत्री हमें कठिनाई में डाल दे इसमें कैसा आश्चर्य?. जिसका स्वभाव ही अचल है उसका सान्निध्य पाना ही योग में स्थित रहना है.

Thursday, September 19, 2019

ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या



संत कहते हैं, जैसे सागर, लहरें, फेन, बुदबुदे सभी पानी से बने हैं, पानी ही हैं, वैसे ही प्रकृति, ईश्वर, जीव सभी ब्रह्म से बने हैं, ब्रह्म ही हैं. जीव प्रकृति के तीन गुणों के अधीन रहकर कर्म करता है. यदि वह चाहे तो गुणातीत होकर ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर सकता है अथवा प्रकृति के साथ एक होकर सुख-दुःख के झूले में डोलता रह सकता है. जीव जब स्वयं को देह मानता है तो वह जरा-मरण के भय से मुक्त नहीं हो सकता, जैसे सागर यदि स्वयं को लहर माने तो वे पल-पल में मिटने वाली है. जीव यदि स्वयं को प्राण मानता है तो बुदबुदों की तरह उसका अस्तित्त्व आज है कल नहीं रहेगा. यदि मन मानता है तो सुख-दुःख से बच नहीं सकता, जैसे सागर यदि स्वयं को फेन माने तो नष्ट होगा ही. जीव यदि स्वयं को ब्रह्म मानता है तो उसका विनाश नहीं हो सकता, वह सदा एकरस, मुक्त, आनंदित रह सकता है, जैसे सागर यदि स्वयं को पानी ही माने तो उसका न कभी कुछ बना न ही बिगड़ा. जो सदा रहता है वह सत्य है, जो आज है कल नहीं रहेगा वह मिथ्या है, ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या का यही तात्पर्य है.

खिला रहे जब मन का फूल



सृष्टि में हर शै एक-दूसरे से जुड़ी है. कोई यहाँ अकेला नहीं है. यदि कोई वास्तव में अपने भीतर एकांत का अनुभव कर लेता है तो उसी क्षण वह सारी सृष्टि से जुड़ जाता है. हम जो अकेलापन अनुभव करते हैं, वह खुद की बनाई हुई सीमाएं हैं जो हमें अपने वातावरण से तोडती हैं, एक सिकुड़े हुए मन को ही अकेलेपन का भय होता है एक खिला हुआ मन सहज ही सबसे अपनेपन का अनुभव करता है. दुःख मन को सीमित करता है और ख़ुशी उसे फैलाती है. पूजा में हम फूल चढ़ाते हैं इसका तात्पर्य है मन भी फूल की तरह खिला रहे. जीवन में प्रतिपल कुछ न कुछ ऐसा घटता है जो हमारे अन्य्कूल नहीं है, किंतु जो मन उसे भी ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकार कर लेता है, वह उस भीतरी एकांत से जुड़ने की कला सीख लेता है. ऐसा मन समता को प्राप्त होता है.

Sunday, September 8, 2019

सहज हुए से मिले अविनाशी




जीवन जितना सरल है उतना ही जटिल भी. जिसने यह राज समझ लिया वह सरलता और जटिलता दोनों से ऊपर उठ जाता है. जिस क्षण में जीवन जैसा मिलता है, उसे वह वैसा ही स्वीकार करता है. वन में जहरीले वृक्ष भी हैं और रसीले भी, गुलाब में कंटक भी हैं और फूल भी, यदि हम एक को स्वीकारते हैं और दूसरे को अस्वीकारते हैं तो मन सदा एक संघर्ष की स्थिति में ही बना रहता है. ध्यान में जाने का पहला मन्त्र है मन को सभी धारणाओं से मुक्त कर लेना. जो जैसा है वैसा ही स्वीकार कर लेना. सभी द्वन्द्वों के साक्षी बनकर ही पूर्ण विश्राम का अनुभव किया जा सकता है. जहाँ कोई अपेक्षा नहीं, वहीं पूर्ण स्वतन्त्रता है, स्वतन्त्रता हर आत्मा की आन्तरिक पुकार है. मन का सारा तनाव परतन्त्रता से ही उत्पन्न होता है. हम कुछ चाहते हैं पर कर नहीं सकते, यही संघर्ष भीतर चलता रहता है. हर इच्छा हमें गुलामी की ओर धकेलती है. जगत हमें कुछ देता है तो उसकी कीमत भी वसूलता है, यह चक्र न जाने कब से चल रहा है, संत और शास्त्र हमें एक नये जीवन की झलक दिखाते हैं, जिसमें सहजता है, सरलता है आनंद है पर उसके विपरीत कुछ भी नहीं, यहाँ पूर्ण स्वतन्त्रता है, यहाँ अनंत नीले नभ की निर्मलता का अनुभव भी सहज ही किया जा सकता है. यही ध्यान है, यही अपने स्वरूप में स्थित होना है.

Monday, September 2, 2019

सेवा का जो मर्म जान ले



परमात्मा की बनाई इस सुंदर सृष्टि में हममें से हरेक को अपनी भूमिका निभानी है. एक ही सत्ता जड़ और चेतन के अनंत-अनंत रूपों में प्रकट हो रही है. जहाँ सभी किसी न किसी तरह से एक-दूसरे पर निर्भर हैं. गणपति की लीला भी यही बताती है, उनका वाहन मूषक है, और सर्प को उन्होंने अपने उदर पर बाँधा हुआ है. मूषक सर्प का आहार है, सर्प मोर का आहार है, जो कार्तिकेय का वाहन है. वन में सभी जीव एक-दूसरे पर आश्रित हैं. एक समर्थ मानव पर अनेकों जन आश्रित होते हैं. जिस का हृदय सहज ही अन्यों की सहायता करने के लिए तत्पर हो जाता है, उसे वैसी सामर्थ्य भी अस्तित्त्व द्वारा मिलने लगती है. साधना में योग, स्वाध्याय, ईश्वर भक्ति के साथ-साथ सेवा का भी समान महत्व है, बल्कि साधना की सिद्धि के बाद तो सेवा के अतिरिक्त कुछ करने को भी साधक के पास नहीं रह जाता. गणपति उत्सव में भी अन्य सामाजिक उत्सवों व पर्वों की तरह समाज के अनगिनत जन किसी न किसी प्रकार की सेवा देते हैं. अंतर इतना ही है, एक सिद्ध व्यक्ति इस सत्य को जानकर सेवा करता है कि अपने हर सेवा कर्म में वह परमात्मा की ही सेवा कर रहा है. साधक अपने अहंकार को मिटाने के लिए सेवा करता है और अज्ञानी व्यक्ति अहंकार के पोषण के लिए सेवा करता है.