Wednesday, July 31, 2019

मन तू ज्योति स्वरूप



मानव मस्तिष्क में अद्भुत क्षमता है. आज वैज्ञानिक अंतरिक्ष के रहस्यों को जानने के लिए तत्पर हैं, संचार के साधनों में अत्यधिक वृद्धि हो चुकी है. भारत का पुरातन इतिहास उठाकर देखें तो ऐसे कई आश्चर्यजनक विवरण मिलते हैं उस काल में ऋषियों ने बिना अंतरिक्ष में गये धरती के गोल होने तथा सूर्य की परिक्रमा करने की बात ज्ञात कर ली थी. सौर मंडल के कितने ही रहस्य उन्हें पता थे. धरती तथा अन्य ग्रहों की सूर्य से दूरी का जो अनुमान उन्होंने लगाया था वह आधुनिक विज्ञान से मेल खाता है. इसी प्रकार जड़ी-बूटियों का ज्ञान उन्हें प्रयोगशाला में जाकर नहीं मन की शक्ति से ही हो जाता था. जब संसार का रचियता स्वयं मानव के इस मन में बैठा है तो भला यह सम्भव भी क्यों न होता. आज छोटी-छोटी बातों के कारण जो युवा आत्महत्या की बात सोचने लगते हैं, उन्हें अपने मन की इस अद्भुत क्षमता का कोई ज्ञान ही नहीं है. भारत में जन्म लेकर अध्यात्म का ज्ञान न होना आज के युवाओं के जीवन में सबसे बड़ी कमी है.

Monday, July 29, 2019

भीतर बाहर एक हुआ जो


एक जीवन बाहर है और एक जीवन भीतर है. साधना का लक्ष्य है दोनों में समरसता लाना. हम घर में रहते हैं और बाहर भी जाते हैं. साधना का लक्ष्य है दोनों जगह हमारे मन का भाव रसमय बना रहे. यदि भीतर अशांति है तो लाख न चाहने पर भी हमारे व्यवहार में वह झलक ही जाएगी. यदि भीतर शांति है तो बाहर के शोरगुल में भी हमारा व्यवहार सौम्य बना रह सकता है. साधक के जीवन में एक दिन ऐसा भी आता है जब भीतर और बाहर का सारा भेद खो जाता है, तब उसके व्यवहार में सहजता प्रकट होती है. उसी दिन वह अपनी दृष्टि में प्रामाणिक होता है, और जगत में उसके लिए कोई पराया नहीं रह जाता. संत व शास्त्र बताते हैं इसके लिए स्वयं को जानना पहला कदम है. ध्यानपूर्वक जब हम अपने मन को देखना आरंभ करते हैं तो वह सारी चतुराई छोड़ने को तैयार हो जाता है. पहले पहल विकार प्रबल होते हुए लगते हैं पर धैर्यपूर्वक उनका दर्शन करने से वे अपना असर खोने लगते हैं. मन की गहराई में छिपा रस प्रकट होने लगता है और सहज ही बाहर जीवन बदलने लगता है.  

Sunday, July 28, 2019

गुरू की महिमा कौन बखाने


शब्द अधूरे हैं, अल्प सामर्थ्य है शब्दों में. भाव गहरे हैं, अनंत ऊर्जा है भावों में, किंतु गुरू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी हो तो भाव भी कम पड़ जाते हैं. वहाँ तो मौन ही शेष रहता है. जब उसके हृदय से साधक का हृदय जुड़ जाता है तो मौन में ही संवाद घटता है. गुरू के शब्द और कर्म प्रेम से ही उपजे हैं. वह नित जागृत है, करुणा, प्रेम और जीवन के प्रति उत्साह के भाव उसके हृदय में लबालब भरे हैं. उसका ज्ञान एक पवित्र जल धारा की तरह साधकों के मनों को तरोताजा कर देता है. उसके हृदय का वृक्ष शांति, सुख और आनंद के फलों से लदा है, जो वह बेशर्त प्रदान करता है. उसकी आँखों में प्रेम की मस्ती है, आत्मा में बेशकीमती खजाना है, जो वह लुटा रहा है. वह साधकों के अंतर में साधना का बीज बोता है, जो भी व्यर्थ है उसे उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित करता है, जो भी अच्छा है, उसे बाड़ लगाकर सहेजने के लिए कहता है. उसके भीतर से जो स्वर्गिक संगीत निकलता है, उसे सुनकर साधक जीवन के सुन्दरतम रूप को देखते हैं. उसकी आत्मा के प्रकाश में भीग कर उनमें भी भीतर जाने की ललक जगती है, पावों में पंख लग जाते हैं, मन जीवन के प्रति तीव्र चाह से भर उठता है.

निज स्वरूप है सदा असंग



स्थूल देह हमारा घर है. प्राणमय कोष ऊर्जा है. मनोमय कोष संचार का साधन है, विज्ञान मय कोष  कर्ताभाव को उत्पन्न करता है. आनन्दमय कोष में स्थित रहने पर सहज ही सुख का अनुभव होता है, किंतु यह भी अज्ञान जनित सुख है. देह भाव से मुक्त हुए तो, जरा-रोग का भय नहीं रहता. प्राणमय कोष से मुक्त हुए तो भूख-प्यास का भय नहीं रहता. विज्ञानमय कोष से मुक्त हुआ साधक कर्त्ता भाव से मुक्त हो जाता है. हम इनके माध्यम से प्रकट हो रहे हैं, इन्हें प्रकाशित कर रहे हैं, न कि हम ये हैं. मन, बुद्धि आदि को 'स्वयं' मानना ही माया है. जैसे पानी समुद्र या लहरों का साक्षी नहीं है, समुद्र व लहरें उसकी उपाधियाँ हैं, वह अपने आप में निसंग है, वैसे ही आत्मा अपने आप में पूर्ण है. जैसे कोई पक्षी दर्पण के सामने खड़े होकर प्रतिबिम्ब से प्रभावित हो जाता है, वैसे ही हम मन, बुद्धि आदि से प्रभावित हो जाते हैं. जितना-जितना हम विश्राम में रहते हैं, उतना-उतना अपने स्वरूप के निकट रहते हैं.

Friday, July 26, 2019

सत के पथ पर चलना होगा



मानव जीवन सत्य से मिलने का एक अवसर है. शास्त्रों में सत्य की परिभाषा दी गयी है, जो सदा से है, सदा रहेगा, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता पर जो सारे परिवर्तनों का आधार है. यदि हम अपने जीवन पर दृष्टि डालें तो शैशवावस्था नहीं रही, किशोरावस्था भी चली गयी, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था भी टिकने वाली नहीं हैं. एक दिन यह तन भी नहीं रहेगा, अर्थात देह की अवस्थाएं सत्य नहीं हैं. जो इन सभी अवस्थाओं को देखने वाला था, वह सदा रहेगा. इसी तरह उदासी आई और चली गयी, ख़ुशी के पल आये और चले गये. हम सबका अनुभव है कि सुख-दुःख ज्यादा देर टिकते नहीं हैं, इनका आधार मन भी सदा अपने रंग-ढंग बदलता रहता है. यदि कोई इस मन की मानकर चलेगा तो सत्य से दूर ही रहेगा. शास्त्र और गुरूजन जो मार्ग दिखाते हैं, उस साधना के मार्ग पर चलकर ही हम मन के पार जाकर उसके आधार की झलक पाते हैं. यह सत्य से हमारा प्रथम मिलन होता है. जब इस ज्ञान का जीवन में प्रयोग आरम्भ हो जाता है, तब इसमें हमारी स्थिति दृढ़ होने लगती है और जीवन से असत्य का लोप होने लगता है.

Saturday, July 20, 2019

बार-बार खुद को पाना है



जीवन एक अनवरत बहती धारा की तरह एक चक्र में प्रवाहित हो रहा है. सागर में मिलने की लालसा लिए नदी दौड़ती जाती है पर वायु उसे आकाश को लौटा देता है, बादलों के रूप में बरसती है तो फिर नदी बनकर एक यात्रा पर निकल जाती है. सागर में खुद को खोकर बादलों के द्वारा पुनः खुद को पाना क्या यही नदी का लक्ष्य नहीं है. मन रूपी धारा भी आत्मा के सागर में लौटना चाहती  है, सुख-दुःख के दो किनारों के मध्य से बहती हुई स्वयं तक लौटने की उसकी यात्रा ही तो जीवन है. कोई स्वयं तक पहुँच भी जाता है तो किसी न किसी कामना की वायु उसे पुनः एक नयी यात्रा पर ले जाती है. इस तरह न जाने कितने ही जन्मों में मानव ने संतों के चरणों में बैठकर आत्मअनुभव किया होगा, किंतु इस धरती का आकर्षण उसे हर बार मुक्ति के द्वार से यहीं लौटा लाया होगा. आत्मा में स्वयं को खोकर जगत में खुद को पाने की यात्रा क्या यही तो जीवन का रहस्य नहीं है ?


Tuesday, July 16, 2019

सदा वसंत रहे जब मन में



एक जीवन है हम सबका जीवन, यानि सामान्य जीवन, जिसमें कभी ख़ुशी है कभी गम हैं. इस जीवन में जिन खुशियों को फूल समझकर हमने ही चुना था वे ही अपने पीछे गम के कांटे छुपाये हैं यह बात देर से पता चलती है. इस जीवन में छले जाने के अवसर हर कदम पर हैं, क्योंकि यहाँ असलियत को छुपाया जाता है, जो नहीं है उसे ही दिखाया जाता है. एक और जीवन है ज्ञानीजन का जीवन, जिसमें सदा वसंत ही है, जिसमें खुशियों के फूलों को चुनने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि वे स्वयं ही फूल बन जाते हैं, ऐसे फूल जिनमें कोई कांटे नहीं होते. उस जीवन में कोई छल नहीं होता क्योंकि भीतर और बाहर वे एक से हैं. वे वास्तविकता को जान कर सहज रहना सीख जाते हैं, कोई दिखावा, दम्भ या पाखंड, बनावट उन्हें छू भी नहीं पाती. जीवन जैसा उन्हें मिलता है उसे वैसा ही स्वीकार करने की क्षमता वे अपने अंदर जगा लेते हैं. वे वर्तमान में रहते हैं और अतीत के भूत से पीछा छुड़ा लेते हैं. भविष्य के दिवास्वप्न भी उन्हें नहीं लुभाते क्योंकि जीवन की क्षण भंगुरता का उन्हें हर समय बोध रहता है, जिस कल के लिए हम संग्रह करते हैं, और वर्तमान में कष्ट उठाते हैं, उस कल को वे कल पर ही छोड़ देते हैं. वह कल भी उनके लिए इस वर्तमान की तरह सुंदर ही होगा ऐसा उन्हें यकीन रहता है. ऐसे ही जीवन से हमारा परिचय कराने के लिए परमात्मा ने गुरू और शास्त्र का निर्माण किया हैं.

गुरू मेरी पूजा गुरू भगवंता



आज गुरू पूर्णिमा है, अतीत में जितने भी गुरू हुए, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन. शिशु का जब जन्म होता है, माता उसकी पहली गुरू होती है. उसके बाद पिता उसे आचार्य के पास ले जाता है, शिक्षा प्राप्त करने तक सभी शिक्षक गण उसके गुरु होते हैं. जीविका अर्जन करने के लिए यह शिक्षा आवश्यक है लेकिन जगत में किस प्रकार दुखों से मुक्त हुआ जा सकता है, जीवन को उन्नत कैसे बनाया जा सकता है, इन प्रश्नों का हल कोई सद्गुरू ही दे सकता है. इस निरंतर बदलते हुए संसार में किसका आश्रय लेकर मनुष्य अपने भीतर स्थिरता का अनुभव कर सकता है, इसका ज्ञान भी गुरू ही देता है. जगत का आधार क्या है ? इस जगत में मानव की भूमिका क्या है ? उसे शोक और मोह से कैसे बचना है ? इन सब सवालों का जवाब भी यदि कहीं मिल सकता है तो वह गुरू का सत्संग ही है. जिनके जीवन में गुरू का ज्ञान फलीभूत हुआ है वे जिस संतोष और सुख का अनुभव सहज ही करते हैं वैसा संतोष जगत की किसी परिस्थिति या वस्तु से प्राप्त नहीं किया जा सकता. गुरू के प्रति श्रद्धा ही हमें वह पात्रता प्रदान करती है कि हम उसके ज्ञान के अधिकारी बनें.

Monday, July 15, 2019

अंतर्मन के द्वार खोल दें



इस वक्त जो कुछ भी हमारे पास है, वह जरूरत से ज्यादा है, यदि यह ख्याल मन में आता है तो भीतर संतोष जगता है. क्या यह सही नहीं है कि कभी जिन बातों की हमने कामना की थी, उनमें से ज्यादातर पूरी हो गयी हैं. मन में कृतज्ञता की भावना लाते ही जैसे कुछ पिघलने लगता है और सारा भारीपन यदि कोई रहा हो तो गल जाता है. जब हम अपने चारों ओर नजर दौड़ाते हैं तो जल धाराओं को बहाता हुआ विशाल आसमान जैसे यह संदेश देता नजर आता है कि भीतर कुछ भी बचाकर न रखें, सब यहीं से मिला है और सब यहीं छोड़कर जाना है, तो क्यों न सहज ही अंतर का वह द्वार खोल दें जिसके पीछे परम का अथाह खजाना छिपा है. हरीतिमा युक्त धरती भी अपने भीतर से जैसे सब कुछ उलीच देना चाहती है. जीवन प्रतिपल दे रहा है और हमें उसे अपने द्वारा बहने का मार्ग देना है.

Saturday, July 13, 2019

अंतर्मन जब कहीं न उलझे



प्रशांत चित्त ही ब्रह्म का अनुभव कर सकता है. जैसे लालटेन का शीशा प्रकाश को बढ़ा देता है, वैसे ही चित्त आत्मा को शक्ति को बढ़ाकर बाहर भेजता है. शीशा जितना स्वच्छ होगा, प्रकाश उतना ही बाहर आएगा. चित्त यदि पूर्ण रूप से संतुष्ट हो, उसे कोई कामना ही न हो चित सुलझा हुआ हो, उसमें कोई द्वंद्व न हो, तो वह शांत रह सकता है. मन यदि कहीं भी उलझा हुआ है तो वह साधना में आगे नहीं बढ़ सकता. शांत मन में चिति शक्ति आत्म शक्ति को विस्तृत करके बाहर प्रकाशित कर देती है. छोटी-छोटी बातों पर जब मन प्रतिक्रिया करना छोड़ देता है तो वह शांत हो जाता है. ठहरा हुआ मन एक शांत झील की तरह होता है, जिसमें आत्मा झलकती है. साधना की गहराई में जाना हो तो मन शांत होना चाहिए.

Thursday, July 11, 2019

इस पल में जो जाग गया


जीवन की परिभाषाएं कितनी ही देते चलो, जीवन है कि चूकता ही नहीं, हाथ में आता ही नहीं. नित नये रंग बिखेरे चला जाता है. जीवन के रंग अनंत हैं और इसके ढंग भी अनंत हैं. इसे किसी खांचे में फिट नहीं किया जा सकता. यदि कोई सोचे कि विकासशील देश के किसी सुदूर गाँव में ही असली जीवन है तो वह भी आधा सच होगा और यदि कोई कहे विकसित देशों में ही सच्चा जीवन है तो वह भी अर्धसत्य होगा. जीवन के मर्म को जाने बिना हम कुछ भी करें, कहीं भी रहें एक तलाश भीतर चलती ही रहती है. यही माया है. सर्व सुविधा सम्पन्न होकर भी कुछ यहाँ अभाव का अनुभव करते हैं और कुछ न होते हुए भी अलमस्त देखे जाते हैं. इसका अर्थ हुआ जो भी जहाँ है वहाँ यदि थोड़ा गहराई से देखे कि जिस जीवन को ढूँढने में हम सारा श्रम लगा रहे हैं, वह तो एक दिन हाथ से फिसल जाने वाला है, और जो हमारे पास इस समय है वह अमूल्य है. वर्तमान के क्षण में जिसने जीवन से मुलाकात नहीं की वह भविष्य में कभी करेगा, ऐसी कल्पना दिवास्वप्न के सिवा कुछ भी नहीं.

Wednesday, July 10, 2019

पल पल सजग रहे जो मन



मन सदा ही परिचित मार्गों पर जाना चाहता है. नयापन उसे डराता है अथवा तो उसकी उस जड़ता को तोड़ता है, जिसकी मन को आदत हो गयी है. किसी दार्शनिक ने कहा है, मनुष्य आदतों का पुतला है. हम बहुत कुछ केवल स्वभाव वश ही करते हैं, जो आदतें हमारे लिए हानिकारक भी हैं, जिनका हमें ज्ञान भी है, फिर भी हम उन्हें त्यागना नहीं चाहते. जो आदतें अच्छी हैं उनको भी हम यदि असजग होकर दोहराते रहते हैं तो जितना लाभ मिलना चाहिए उतना नहीं ले पाते. जैसे किसी को यदि सुबह उठकर गीता पाठ करने का नियम है और वह बिना भाव के या अर्थ समझे ही उसका नित्य पाठ करता रहे, तो यह अच्छी आदत होते हुए भी उसके जीवन में विशेष परिवर्तन नहीं ला सकती. हम जो भी करते हैं उसकी पूरी जिम्मेदारी हमारी है, उसका जो भी फल मिलेगा उसका भागीदार हमें ही होना है. असजगता हमें अपने शुद्ध स्वरूप से दूर ले जाती है, अथवा तो जब भी हम अपने मूल स्वभाव से दूर होते हैं, असजग होते हैं. योग का अर्थ है, स्वयं के शुद्ध स्वरूप से जुड़े रहना, इसी योग की साधना हमें करनी है.

Monday, July 8, 2019

आशीषें ही जो देते हैं



'मातृ देवो भव', 'पितृ देवो भव', 'गुरू देवो भव' और 'अतिथि देवो भव' का अतुलित संदेश वेदों में दिया गया है. गुरू में दिव्यता का अनुभव हम कर सकते हैं, क्योंकि वह ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है, अतिथि में भी हम दिव्यता की धारणा कर सकते हैं, किंतु जिसने माँ और पिता में दिव्यता के दर्शन कर लिए उसके जीवन में सहजता अपने आप आ जाती है. शिशु जब छोटा होता है वह पूरी तरह से माँ-पिता पर व परिवार पर निर्भर होता है, जैसा वातावरण और शिक्षा उसे मिलती है, उसके मन पर वैसी ही छाप पड़ने लगती है, पूर्व के संस्कार भी समुचित वातावरण पाकर ही विकसित होते हैं. इसमें माता-पिता की बड़ी भूमिका है. जो पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान करना भूल जाती है, वह अपने भविष्य के लिए अंधकार का निर्माण ही कर रही है. आयु में अथवा पद में चाहे कोई कितना भी बड़ा हो जाये, जब तक सिर पर कोई स्नेह भरा हाथ हो, तब तक एक रसधार भीतर बहती है. निस्वार्थ प्रेम का जो वरदान माँ-पिता से मिलता है, उसका कोई विकल्प नहीं है.   


Sunday, July 7, 2019

शक्ति जगे भीतर जब पावन



हमें सत्य को पाना नहीं है, उसे अपने माध्यम से प्रकट होने का अवसर देना है. परमात्मा को देखना नहीं है उसके गुणों को स्वयं के भीतर पनपने का अवसर देना है. आदिम युग में मानव ने जब परमात्मा की ओर पहली-पहली बार निहारा होगा तो उस अदृश्य शक्ति से सहायता की गुहार लगाई होगी, किंतु अब इतने बुद्धों के अवतरण के बाद परमात्मा के प्रति उसका दृष्टिकोण परिपक्व हो गया है. वह परमात्मा को आदर्श मानकर स्वयं को उसके लिए उपलब्ध पात्र बनाना चाहता है, वह जान गया है परमात्मा मानवीय सम्भावनाओं की अंतिम परिणति है. कभी कोई कृष्ण कोई राम, मानव होकर भी उस ऊँचाई को प्राप्त कर सकता है तो इसका अर्थ है हर मानव में यह शक्ति निहित है. उस शक्ति को अपने भीतर जगाना और उसे देह, मन, बुद्धि के माध्यम से व्यक्त होने का अवसर देना यही आध्यात्मिकता है.

Thursday, July 4, 2019

बीती ताहि बिसार दे



अतीत की बातों को हमारा लेकर दुखी होना वैसा ही है जैसे कोई वर्षों पूर्व आयी आँधी के द्वारा फैलायी गंदगी को आज बाल्टियाँ भर-भर कर धोये. पानी व्यर्थ जायेगा, श्रम भी व्यर्थ जायेगा और वह गंदगी जो अब है ही नहीं भला साफ कैसे हो सकती है. मन हर दिन नया हो रहा है, रोज जो भोजन हम ग्रहण करते हैं उसके सूक्ष्म संश से ही मन बनता है, जो श्वास हम आज ग्रहण कर रहे हैं वही हमें ऊर्जा से भर रही है, जो आज मिला है वह आज के लिए है, इस ऊर्जा को हम व्यर्थ ही पुरानी बातों को याद करने में लगते हैं फिर दुखी भी होते हैं. स्मृतियाँ सुखद हों तब भी उन्हें ज्यादा तूल देना ठीक नहीं, बल्कि आज को एक सुखद स्मृति बनाने के लिए ऊर्जा का सदुपयोग करना उचित है. सबसे प्रमुख बात है कि सारे अनुभव वर्तमान के क्षण में ही होते हैं, अतीत में जो भी सुखद हुआ, वह उस समय के लिए वर्तमान में ही घटा था, आज एक नये अनुभव के लिए स्वयं को खाली रखना है, वरना कोल्हू के बैल की तरह अतीत लौट-लौट कर हमारे सम्मुख वर्तमान की शक्ल में आता रहेगा, क्योंकि हम उसे भूलना ही नहीं चाह रहे हैं.

Tuesday, July 2, 2019

एक यात्रा है अनंत की



भगवद् गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को अभ्यास और वैराग्य का उपदेश देते हैं. अभ्यास समर्पण का और वैराग्य सांसारिक सुखों से. हमारा समर्पण बार-बार खंडित हो जाता है, और जगत से वैराग्य भी नहीं सधता. जरा सी प्रतिकूलता आते ही भीतर संदेह भर जाता है, अल्प सुख के लिए हम जगत के पीछे निकल पड़ते हैं. गुरु कहते हैं, हजार बार भी टूटे फिर भी समर्पण किये बिना अंतर की शांति को अनुभव नहीं किया जा सकता. इसी तरह एक दिन साधक सुख के पीछे जाना छोड़ देता है क्योंकि उसका सुख बार-बार दुःख में बदल गया है. वह असत्य की राह भी त्यागता है क्योंकि उस पथ पर कांटे ही कांटे मिले. अनुभवों से सीखकर ही हम आगे बढ़ते हैं. साधना का पथ एक अंतहीन यात्रा पर हमें ले जाता है. परमात्मा अनंत है, हमारे सारे प्रयास अल्प हैं, किंतु संतों का जीवन देखकर भीतर भरोसा जगता है, वे भी इसी तरह पग-पग चल कर ही इस अनंत शांति और आनंद  के भागी हुए हैं.

शुभता का जब कुसुम खिलेगा



यदि कोई सत्य की राह में चलता है तो उसे अस्तित्त्व से अपने आप मार्ग मिलने लगता है. यदि कोई सिर बन्दगी में झुकता है तो आशीर्वाद उसी तरह अपने आप बरसने लगते हैं, जैसे खाली जगह देखकर हवा कहीं से चली ही आती है. इस सृष्टि में हरेक के लिए अवसर है. इस जीवन से हम क्या चाहते हैं, यह भर हमें तय करना है. हृदय की गहराई से निकली हर चाह अपनी पूर्ति के लिए ऊर्जा साथ लेकर ही उत्पन्न होती है. जैसे एक बीज में फूल बनकर खिलने का पूरा सामर्थ्य है वैसे ही हर शुभ इच्छा एक बीज ही है जो एक न एक दिन खिलने वाली है. हमारा आज वही तो है जो कल हमने चाहा था, आने वाला कल भी हमें एक खाली कैनवास की तरह मिला है, जिसमें रंग भरने की हमें पूरी आजादी है.