Thursday, September 28, 2017

एक चेतना सबको जोड़े

२८ सितम्बर २०१७ 
जब हम कहते हैं ‘घट घट में राम’, तब हम सभी के मध्य अनुस्यूत एक समान धारा को देखने का  प्रयास कर रहे होते हैं. मानवों के स्वभाव पृथक-पृथक हैं, ज्ञान का स्तर भी एक नहीं है, रूप-रंग में एक देश के लोग दूसरे देश के लोगों के समान नहीं होते, किंतु उन्हें एक करती है भीतर की चेतना, वही उन्हें निकट लाती है और वही उन्हें सशक्त करती है. व्यक्ति चेतना से जितना दूर निकल जाते हैं, समाज में विघटन उतना ज्यादा होता है. जहाँ वर्गभेद भारी हो, लोगों को आपस में जुड़ने के लिए कोई तो समानता चाहिए. समान रूचि वाले व्यक्ति जुड़ जाते हैं, क्योंकि उनकी चेतना किसी एक दिशा में प्रवाहित होती है. जितना-जितना व्यक्ति चेतना को मुखर होने का अवसर देगा, उसे भेद गिरते नजर आयेंगे. समाज में एकता बढ़ेगी और एकता में ही शक्ति है. शक्ति की पूजा के पर्व पर इसे याद रखना होगा. 

Tuesday, September 26, 2017

शक्ति जगे जब भीतर पावन

२७ सितम्बर २०१७ 
जीवन कितना अनमोल है इसका ज्ञान उसी को होता है जो या तो अपनी अंतिम श्वासें गिन रहा हो अथवा जिसने मीरा की तरह अपने भीतर उस अनमोल रतन को पा लिया हो. नवरात्रि के ये नौ दिन इसी का स्मरण कराने आते हैं. शक्ति की पूजा का अर्थ है स्वयं के भीतर सुप्त शक्तियों को जगाना, हर मानव के भीतर देव और दानव दोनों का वास है. हममें से अधिकतर तो दोनों से ही अपरिचित रह जाते हैं. कुछ क्रोधी और अहंकारी स्वभाव वाले दानवों की भाषा बोलने लगते हैं, उनके भीतर देवी का जागरण नहीं होता. साधना के द्वारा जब शक्ति जगती है तो ही इन दानवों का विनाश होता है और एक नई चेतना से हमारा परिचय होता है. जीवन का सही अर्थ तभी दृष्टिगत होता है और तब लगता है इतना अनमोल जीवन व्यर्थ ही जा रहा था. उत्सवों का निहितार्थ कितना उद्देश्यपूर्ण है. उन्हें मात्र दिखावे या मौज-मस्ती के लिए ही न मानकर, भक्ति और ज्ञान की गहराई में जाना होगा. यही  पूजा के मर्म को सही अर्थों में ग्रहण करना होगा.  

Monday, September 25, 2017

घट रहा है सहज सब कुछ

२५ सितम्बर २०१७ 
कर्ताभाव से मुक्त होना ही साधना का लक्ष्य है. जैसे सृष्टि में परमात्मा सब कुछ करता हुआ भी कुछ नहीं करता, उसकी उपस्थिति मात्र से प्रकृति में सब कार्य हो रहे हैं. प्रातःकाल सूर्योदय के होने से ही वातावरण में हलचल होने लगती है, पंछी जाग जाते हैं, वृक्षों पर फूल खिलने लगते हैं. उसी तरह देह में आत्मा की उपस्थिति मात्र से अनेक क्रियाएं हो रही हैं. जिस समय जो भी कर्म साधक के सम्मुख आता है, उसको सहजता से कर देने से न तो उसे कर्म का बंधन होता है न ही विशेष श्रम का आभास होता है. यदि उसी कर्म को करते समय कोई अपने में विशेष भाव मानकर अहंकार जगाये अथवा ठीक से न कर पाने पर दुःख का अनुभव करे, तो कर्म उसे बाँध लेता है. भविष्य में फिर उसी कर्म को करते समय उसे इन्हीं भावों का अनुभव होगा. 

Friday, September 22, 2017

मन, वाणी के पार हुआ जो

२३ सितम्बर २०१७ 
जीवन कितना अबूझ है और कितना सरल भी. हरियाली का आंचल ओढ़े माँ के समान पोषण करती यह धरती, जिसका अन्न और जल पाकर हमारा तन बनता है. पिता के समान प्राण भरता आकाश जिससे यह काया गतिशील होती है. अन्न और प्राण के संतुलन का नाम ही तो जीवन का आरम्भ है. इसके बाद वह पुष्पित और पल्लवित होता है शब्दों और विचारों में, वाणी का अद्भुत वरदान मानव जीवन को विशिष्ट बनाता है. वाणी के भी पार है वह परम तत्व जिसे जानकर जीव पूर्णता का अनुभव करता है. साधक पहले तन को साधता है, फिर मन को, पश्चात वाणी को, जिसके बाद चेतना स्वयं में ठहर जाती है. स्वयं के पार जाकर ही परम चैतन्य का अनुभव होता है.  


Thursday, September 21, 2017

शक्ति का संधान करें जब

२२ सितम्बर २०१७ 
देह प्रकृति का भाग है, चेतना पुरुष का. मानव इन दोनों का सम्मिलित रूप है. प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, एक दूसरे के पूरक हैं. देह के बिना आत्मा कुछ नहीं कर सकती और आत्मा के बिना देह शव है. इन दोनों के भिन्न-भिन्न स्वरूप को जानना ही प्रत्येक साधना का लक्ष्य है. इसीलिए भारतीय संस्कृति में दोनों की उपासना की जाती है. प्रकृति का उपयोग करके आत्मा का अपने चैतन्य स्वरूप का अनुभव कर लेना ही मानव जीवन की सर्वोत्तम उपलब्ध मानी गयी है. प्रकृति को माँ कहकर उसकी विभिन्न शक्तियों के अनुसार अनेक रूपों की कल्पना की गयी है. दुर्गा की स्तुति करके जब साधक अपने भीतर सात्विक शक्तियों को जगाता है, उसे स्वयं के पार उस चैतन्य का अनुभव होता है. जिसका अनुभव करने के बाद उसे परम संतोष का अनुभव होता है.  

आत्मशक्ति की करें साधना

२१ सितम्बर २०१७ 
शरद ऋतु के आगमन के साथ ही सारा भारत जैसे भक्ति के रस में डूब जाता है. पहले नवरात्रि के नौ दिन जिनमें देवी के नौ रूपों की आराधना की जाती है, पश्चात दशहरा और उसके बीस दिनों बाद दीपों का पर्व दीवाली. वैदिक काल से ये उत्सव हमारे मन-प्राणों को झंकृत करते आ रहे हैं तथा  भारत को एक सूत्र में बाँध रहे हैं. पुराणों के अनुसार देवासुर-संग्राम में जब देवताओं द्वारा असुरों का नाश सम्भव नहीं हुआ तब उन्होंने शक्ति की देवी की आराधना की, सब देवताओं ने उसे अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये. सद्गुणों व दुर्गुणों के रूप में देव तथा असुर हमारे भीतर ही वास करते हैं. इसका अर्थ है हमारे भीतर की दैवीय शक्तियाँ जब संयुक्त हो जाती हैं तब ही वे विकार रूपी असुरों का नाश कर सकती हैं. सात्विक दिनचर्या अपनाकर इस आत्मशक्ति को बढ़ाने का उत्सव है नवरात्रि. नौ दिनों की शक्ति की उपासना के बाद जब साधक का मन शुद्ध हो जाता है. वह आत्मबल से युक्त हो जीवन के प्रति नवीन उत्साह से भर जाता है. 

Tuesday, September 19, 2017

मन के जो भी पार हुआ है

२० सितम्बर २०१७ 
भगवद गीता में कहा गया है, मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र है और मन ही सबसे बड़ा शत्रु ! मन यदि धन, यश और पद की कामनाओं से युक्त है तो दुःख से उसे कोई नहीं बचा सकता. मन यदि अहंकार की तृप्ति करना चाहता है तो उसे कदम-कदम पर भय और दुःख का सामना करना पड़ेगा. जो मन स्वयं में ही तृप्त है, उसे न कोई भय है न ही पीड़ा. सात्विक भाव से युक्त मन सहज प्राप्त कर्मों को इसी भांति करता जाता है जैसे समय आने पर वृक्षों में फूल व फल लगते हैं. उसे न फल की इच्छा होती है न ही नाम की, वे तो उसी प्रकार प्राप्त होते हैं जैसे सुबह होने पर वातावरण में ताजगी और आह्लाद. जीवन के मर्म को जानना हो तो मन के पार जाना ही पड़ेगा, मन को हर दिन कुछ पलों के लिए विश्राम देने से वह मित्र बन जाता है. 

Saturday, September 16, 2017

आदिशिल्पी को करें नमन

१७ सितम्बर २०१७ 
आज विश्वकर्मा पूजा है. पुराणों में विश्वकर्मा देव का उल्लेख कई स्थानों पर अत्यंत श्रद्धा के साथ किया गया है. इन्हें आदिशिल्पी कहा जाता है. रावण की स्वर्णलंका और कृष्ण की द्वारिका का निर्माण इन्होंने ही किया था. इनके वशंजों ने ही विश्व की विभिन्न हस्तकलाओं जैसे सुनार, लोहार, बढ़ई, मूर्तिकार आदि की कलाओं को जन्म दिया. वास्तु शास्त्र के ज्ञाता इन देव की युगों-युगों से अर्चना की जाती रही है. भारत के पूर्वी प्रदेशों में, बंगाल तथा उत्तर-पूर्व भारत में विशेष तौर से हर वर्ष १७ सितम्बर को सभी अभियांत्रिकी संस्थानों में विश्वकर्मा देव की पूजा होती है. सभी औजारों तथा मशीनों की भी साफ-सफाई करके पूजा की जाती है. यहाँ तक कि साइकिलों, कारों, ट्रकों के मालिक अपने वाहनों को अच्छी तरह से स्वच्छ करके उनकी पूजा करते हैं. बदलते हुए समय के साथ उत्सवों का रूप बदल जाता है, वे अपने शुद्ध रूप में नहीं रह जाते, फिर भी उत्सव रोजमर्रा के जीवन में एक नया उत्साह भर देते हैं.

Thursday, September 14, 2017

सादा जीवन उच्च विचार यही सुखी जीवन का सार

१५ सितम्बर २०१७ 
यह काल संक्रमण का काल है. मूल्य बदल रहे हैं, संस्कृतियाँ और सभ्यताएं बदल रही हैं. देशों की सीमाएं बदल रही हैं. विश्व की उन्नति का आधार आर्थिक विकास माना जाने लगा है. व्यापारिक संबंध बढ़ रहे हैं, देश निकट आ रहे हैं. किन्तु इस सबके साथ मानव को विकास की बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ रही है. एक पीढ़ी पहले तक भी एक व्यक्ति को परिवार का सहयोग और प्रेम सहज ही मिल जाता था, जिसके कारण उसके भीतर मानवीय मूल्यों की स्थापना घर से ही आरम्भ हो जाती थी और विद्यालय उसमें विस्तार करता था. आज एकल परिवार होने के कारण बच्चे उस स्नेह और विश्वास से वंचित हैं, स्कूल भी इस कमी को पूरा नहीं कर पा रहा है. आये दिन स्कूलों में होने वाले हादसे अभिभावकों और बच्चों में एक भय की भावना भर रहे हैं. यदि मानव अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर ले, लोभ और दिखावे पर नियन्त्रण रखे. ध्यान और योग को अपना कर सुख के अविनाशी स्रोत को अपने भीतर ही खोज ले तो स्वतः ही उसकी यह अंधी दौड़ समाप्त हो जाएगी.  

जन-जन की भाषा है हिंदी

१४ सितम्बर २०१७ 
आज हिंदी दिवस है. ‘हिंदी’ एक ऐसी भाषा जिसने पूरे भारत को एक सूत्र में पिरोया हुआ है. जो अनेकता में एकता का जीता-जागता उदाहरण है. बारहवीं शतब्दी से हिंदी की धारा भारत में जन-जन के हृदयों को आप्लावित कर रही है. मध्य काल में सूर, तुलसी हों या कबीर और रहीम, हिंदी की ध्वजा सदा ही लहराती रही है. आधुनिक काल में भी हिंदी के विद्वानों की एक लम्बी श्रंखला चलती आ रही है, जिसने जन मानस के हृदयों को हिंदी-सुधा से पोषित किया है. आज सामान्य जन की बोलचाल भाषा हो या साहित्य की भाषा दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी फल-फूल रही है, कमी है तो बस इसकी कि आजादी के सत्तर वर्षों के बाद भी इसे राजकाज की भाषा नहीं बनाया जा सका. अनुवादित व क्लिष्ट भाषा के सहारे इस कार्य को नहीं किया जा सकता. मौलिक रूप से हिंदी में ही सरल भाषा में किया गया कार्य ही सरकारी कार्यालयों में अपनाना होगा वरना वहाँ यह केवल हिंदी दिवस तक ही सिमट कर रह जाएगी.


Wednesday, September 13, 2017

विस्मय से जब मन भर जाये

१३ सितम्बर २०१७ 
जीवन में कदम-कदम पर हमें कितनी ही आश्चर्यजनक स्थितियों का अनुभव होता है पर ज्यादातर हम उनका कोई न कोई उत्तर खोज कर मन को शांत कर देते हैं. विज्ञान के द्वारा जगत के कार्यकलापों का कारण खोजने लगते हैं. एक ऐसा आश्चर्य जिसका कोई निराकरण न हो सके विस्मय कहलाता है, और गहराई से देखें तो इस जगत का एक नन्हा सा रेत का कण भी मन को विस्मय से भर देने के लिए पर्याप्त है. हमारी देह की एक कोशिका भी अपने भीतर कितने रहस्य छिपाए है. विज्ञान के जवाब हमें भ्रमित करते हैं, ऐसा लगता है हम इसके बारे में सब जान सकते हैं. नींद भी एक रहस्य है और स्वप्न भी. चारों तरफ जैसे एक तिलिस्म छाया है. विस्मय से भरा मन ही फिर उस अज्ञात के सामने झुक जाता है. वह भी जैसे उस रहस्य का ही एक भाग बन जाता है.

Tuesday, September 12, 2017

स्वयं से जब परिचय हो जाये

१२ अगस्त २०१७ 
मन व इन्द्रियों की सहायता से हम बाहरी जगत को जानते हैं पर ‘स्वयं’ से अनजान बने रहते हैं. इस जगत को कोई कितना ही जान ले, सब कुछ कभी नहीं जान सकता. किन्तु ‘स्वयं’ को जिसने भी जाना है उसे यह अनुभव अवश्य हुआ है कि अब कुछ और जानना शेष नहीं है. आँख से हम देखते हैं, आँख दृश्य से पृथक है, देखने वाले हम भी दृश्य तथा आँख से पृथक हैं, अर्थात दृष्टा, दृश्य  तथा दर्शन सदा ही पृथक हैं. ‘स्वयं’ को जानना हो तो, जाननेवाले भी हम हैं, जानने का साधन भी हम हैं. ज्ञाता, ज्ञान तथा ज्ञेय जहाँ एक हो जाते हैं, वहीं ‘स्वयं’ का अनुभव होता है.  

Monday, September 11, 2017

लौट सकेगा जब मन भीतर

१३ सितम्बर २०१७ 
भगवद् गीता में कृष्ण कहते हैं, जैसे कछुआ संकट आने पर अपने अंगों को भीतर सिकोड़ लेता है और उसके कठोर तन पर किसी चोट का असर नहीं होता, वह अपने को बचा लेता है. इसी तरह मन भी यदि किसी संकट के आने पर स्वयं को सिकोड़ना सीख ले, अपने भीतर एक ऐसा स्थान बना ले जहाँ जाकर बाहरी घटनाओं के असर से बचा जा सकता है तो मन भी स्वयं की रक्षा आसानी से कर लेता है. मन पर संकट आने का अर्थ है, उसका विकार ग्रस्त हो जाना, उसका चिंताग्रस्त हो जाना अथवा दुर्बल हो जाना. मन की रक्षा का अर्थ है समता में रहने की उसकी कला का विकास. यदि छोटी-छोटी बातों से मन कुम्हला जाता है तो देह भी स्वस्थ नहीं रह सकती. मन के आकुल-व्याकुल होते ही अंतस्रावी ग्रन्थियों से ऐसे स्राव निकलते हैं जो देह को रोगग्रस्त कर सकते हैं. मन की गहराई में स्थित एक स्थान जहाँ जाकर पूर्ण विश्राम मिलता है, वही उसका आश्रय स्थल है. नियमित ध्यान करने से इस स्थल पर जाने का मार्ग सहज हो जाता है.  

Saturday, September 9, 2017

मिटना जिसने सीख लिया है

९ सितम्बर २०१७ 
मन का स्वभाव है अभाव में जीना, आत्मा तृप्ति और संतोष चाहती है. मन की दृष्टि सदा कमियों की तरफ ही जाती है, आत्मा अपने आप में इतनी आनंदित होती है कि कमियां उसे नजर ही नहीं आतीं. मन को सदा नयेपन की तलाश है, आत्मा चिरंतन है. मन सदा भय में जीता है, आत्मा में होना ही अभय का दूसरा नाम है. मन मिटने से डरता है, आत्मा कुछ न होने में ही अपना होना जानती है. मन दुःख बनाता है, न हो तो आशंकित होता है, आत्मा किसी भी परिस्थिति में अडोल बनी रह सकती है. मन सदा अतीत अथवा भविष्य में जीता है, कभी अतीत की भूलों पर पछताता है और कभी भविष्य में होने वाले दुखों से घबराता है. आत्मा के लिए हर क्षण अपार सम्भावना लिए आता है. वर्तमान में रहना ही आत्मा में होना है. 

Thursday, September 7, 2017

जीवन का जो मर्म जान ले

८ सितम्बर २०१७ 
जीवन कितना पुराना है कोई नहीं बता सकता, वैज्ञानिकों को मानव के लाखों वर्ष पुराने जीवाष्म भी  मिले हैं. हम न जाने कितनी बार इस धरती पर आये हैं और भिन्न देहें धारण करके सुख-दुःख का भोग कर चुके हैं. शास्त्र कहते हैं यह देह हमें दो कारणों के लिए मिली है भोग और मोक्ष, पहला अनुभव तो हो चुका, जब तक दूसरा नहीं होगा, बार-बार देह लेकर आना होगा और मृत्यु को प्राप्त होना होगा. यदि त्याग पूर्वक भोग किया जाये तो मुक्ति का अनुभव इसी जन्म में हो सकता है. मानव जीवन के चार पुरुषार्थ भी यही कहते हैं. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का कर्म कहता है कि धर्म पूर्वक प्राप्त किया गया अर्थ ही कामनाओं के त्याग का हेतु बनता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है. यदि धन अनीति से प्राप्त किया गया है वह कामनाओं को बढ़ाने वाला ही होगा. उस स्थिति में दुखों से मुक्ति सम्भव ही नहीं है. 

प्रेम गली अति सांकरी


साधना का पथ अत्यंत दुष्कर है और उतना ही सरल भी. जिनका हृदय सरल है, जहाँ प्रेम है, ऐसे हृदय के लिए साधना का पथ फूलों से भरा है, पर राग-द्वेष जहाँ हों, अभाव खटकता हो, उसके लिए साधना का पथ कठोर हो जाता है. कृपा का अनुभव भी उसे नहीं हो पाता, क्योंकि कृपा का बीज तो श्रद्धा की भूमि में ही पनपता है, अनुर्वरक भूमि में नहीं. जहाँ हृदय में ईश्वर प्राप्ति की प्यास ही नहीं जगी वहाँ उसके प्रेम रूपी जल की बरसात हो या नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता, जब मन में एक मात्र चाह उसी की हो तभी भीतर प्रकाश जगता है. उस चाह की पूर्ति के लिए बाहरी साधनों की आवश्यकता गौण है, वहाँ मन ही प्रमुख है, मन को ही प्रेम जल में नहला कर, भावनाओं के पुष्प अर्पित कर, श्रद्धा का दीपक जला, आस्था का तिलक लगा कर शांति का मौन जप करना होता है. यह आंतरिक पूजा हमें उसकी निकटता का अनुभव कराती है, साधक तब धीरे-धीरे आगे बढता हुआ एक दिन पूर्ण समर्पण कर पाता है.

Sunday, September 3, 2017

मृत्यु को जो मीत बना ले

३ सितम्बर २०१७ 
प्रकृति पल-पल बदल रही है, चाहे पेड़-पौधों की हो, पशुओं की हो या मानवों की. समय के साथ-साथ उनमें परिवर्तन आ रहा है. मानव को छोड़कर सब उसे सहज ही स्वीकारते हैं, वृक्ष बूढ़े होते हैं और देह त्याग देते हैं. मानव अजर-अमर रहना चाहता है, जरा को जितना हो सके दूर रखना चाहता है और मृत्यु से सदा ही भयभीत रहता है. यहाँ तक कि वृद्ध हो जाने पर भी उसे ऐसा नहीं लगता कि कोई भी क्षण जीवन का अंतिम क्षण हो सकता है. यदि बचपन से ही जीवन और मृत्यु दोनों की बात घर-परिवार, विद्यालय में की जाये तो कितने तरह के दुखों से बचा जा सकता है. तब न तो अधिक संग्रह करने की प्रवृत्ति का जन्म होगा और न ही मन में भय होगा. जीवन को सम्मान मिलेगा यदि यह सदा स्मरण रहे कि यह कभी भी हाथ से जा सकता है. मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं रहेगा जब यह स्मरण रहेगा कि एक दिन सब कुछ छूटने ही वाला है. 

Friday, September 1, 2017

भाव युक्त हो अंतर अपना

१ सितम्बर २०१७ 
जीवन में होने वाले अनुभवों में अधिकतर भीतर का भाव ही लौट-लौट कर आता है. जब किसी हृदय में परम के प्रति प्रेम का जागरण होता है तो वह प्रेम अपनी सुवास स्वयं ही बहा देता है,  इसके लिए शब्द जुटाने नहीं पड़ते. पका फल जैसे अपनी मिठास से भर कर खुदबखुद टपक जाता है,  भाव भरा अंतर भी इसी तरह व्यक्त हो जाता है. जिसने उसे अनुभव किया है उसने ही गीत गाए हैं. वह खुद भी नहीं जानता कितना बड़ा रहस्य अपने भीतर छुपाये है. जीवन स्वयं में एक रहस्य है, इसका रचियता भी और उसके प्रति समर्पित अंतर भी. जीवन धारा अविरल गति से बही जा रही है, किन्तु इसका आधार भी तो है. समयचक्र घूम रहा है, इसका केंद्र भी तो है. जगत गतिशील है, किन्तु गति का अनुभव कराने वाला अचल तत्व भी तो है. जिसने उसे अपने मन का मीत बना लिया वही दिव्य प्रेम को अनुभव सकता है.