१३ सितम्बर २०१७
भगवद् गीता
में कृष्ण कहते हैं, जैसे कछुआ संकट आने पर अपने अंगों को भीतर सिकोड़ लेता है और
उसके कठोर तन पर किसी चोट का असर नहीं होता, वह अपने को बचा लेता है. इसी तरह मन
भी यदि किसी संकट के आने पर स्वयं को सिकोड़ना सीख ले, अपने भीतर एक ऐसा स्थान बना
ले जहाँ जाकर बाहरी घटनाओं के असर से बचा जा सकता है तो मन भी स्वयं की रक्षा
आसानी से कर लेता है. मन पर संकट आने का अर्थ है, उसका विकार ग्रस्त हो जाना, उसका
चिंताग्रस्त हो जाना अथवा दुर्बल हो जाना. मन की रक्षा का अर्थ है समता में रहने
की उसकी कला का विकास. यदि छोटी-छोटी बातों से मन कुम्हला जाता है तो देह भी
स्वस्थ नहीं रह सकती. मन के आकुल-व्याकुल होते ही अंतस्रावी ग्रन्थियों से ऐसे
स्राव निकलते हैं जो देह को रोगग्रस्त कर सकते हैं. मन की गहराई में स्थित एक स्थान
जहाँ जाकर पूर्ण विश्राम मिलता है, वही उसका आश्रय स्थल है. नियमित ध्यान करने से इस
स्थल पर जाने का मार्ग सहज हो जाता है.
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