Thursday, April 30, 2015

भक्ति का जब फूल खिले

जनवरी २००९ 
संत बालवत होते हैं, वे जैसे कभी बड़े हुए ही नहीं, और हम हैं कि छोटा होना ही नहीं जानते ! अध्यात्म मार्ग पर अहंकार को मिटाना ही परम लक्ष्य है. परम के प्रति प्रेम हो तो यह सहज ही हो जाता है. शरणागति में गये बिना यह कठिन है. कर्म तथा ज्ञान इसे पुष्ट करते हैं, भक्ति इसे पिघला देती है. भक्ति स्वयं में साधन है और साध्य भी वही है. इस अमृत स्वरूपा भक्ति को अपने भीतर पाना ही है, परम सत्य के प्रति प्रेम ही भक्ति है, तत्व के प्रति श्रद्धा ही भक्ति है. वह अस्तित्त्व अकारण करुणामय है, वह सुहृद है, वह हमें हर क्षण प्रेम से निहारता है. वह प्रेम का ऐसा स्रोत है जो कभी नहीं चुकता !

Tuesday, April 28, 2015

दर्पण सा जब मन हो जाये

जनवरी २००९ 
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं’ अदृश्य के प्रति विश्वास ही श्रद्धा है, जो हम जानते हैं वह बहुत थोड़ा है उससे जो हम नहीं जानते. उस अव्यक्त का हमारे जीवन पर असीम प्रभाव पड़ता है. श्रद्धा का अर्थ है पूर्ण समर्पण, जो कुछ भी हमारे साथ हो चुका है, हो रहा है, अथवा भविष्य में घटने वाला है, सभी को पूर्ण स्वीकार करते हुए साक्षी भाव में, समता में टिके रहने का नाम ही पूर्ण समर्पण है. असंतुष्ट व्यक्ति श्रद्धा नहीं रख सकता. वह परम विश्रांति को भी उपलब्ध नहीं हो सकता. जीवन में अच्छे-बुरे सभी तरह के अनुभव होते हैं, साक्षी को प्राप्त हुए चित्त पर उनकी कोई छाप नहीं पडती ! वह दर्पण की भांति सभी कुछ अपने ऊपर से गुजर जाने देता है. वह कोई भी प्रतिबिम्ब नहीं ठहरने देता, सदा वर्तमान में ही रहता है. वास्तव में वह होता ही नहीं, जैसे एक वृक्ष है, वह होकर भी नहीं है. वैसे ही हम भी प्रकृति के साथ एक होकर जी सकते हैं. निर्भार, निर्द्वंद्व और पूर्ण आनंद में. श्रद्धा हृदय की वस्तु है, तर्क मस्तिष्क की उपज है. तर्क तनाव से  भर देता है, श्रद्धा प्रेम से भर देती है, जीवन को ऊंचा उठाती है ! 

Monday, April 27, 2015

एक स्रोत शांति का भीतर

जनवरी २०१५ 
‘ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या’ शंकराचार्य ने कहा है मिथ्या का अर्थ है जो दीखता तो है पर है नहीं, माया है, स्वप्न है, लेकिन जिस समय हम स्वप्न देखते हैं सत्य प्रतीत होता है. मिथ्या का एक अर्थ अनुपयोगी है. अनुपयोगी का अर्थ है विवेक से उपयोग करके उससे मुक्त हो जाना. यह जगत विवेक से जीने जैसा है, उपयोग करके उससे पृथक हो जाने जैसा है, इसी अर्थ में यह जगत मिथ्या है, हमारे भीतर जो चैतन्य है, वही ब्रह्म है, वही अनंत है, निरंतर उसका विस्तार हो रहा है. जगत में दूर से दूर की वस्तुएं तथा निकट से निकट का शरीर, मन बुद्धि, चित्त तथा अहंकार भी आ जाते हैं. श्वास यानि प्राण भी हमारे उपयोग में लाने जैसा है, जिसे देखते–देखते हम मन तक पहुंचते हैं, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार को जानते-जानते स्वयं तक पहुंचते हैं. चैतन्य की अनुभूति होते ही हमें अपनी शाश्वतता का प्रमाण भी मिल जाता है, मृत्यु का भय नहीं रहता, सारे द्वन्द्वों से पार उस निर्भय, निर्वैर अवस्था का अनुभव होता है, जहाँ एक अखंड शांति का सोता बह रहा है, जहाँ कोई चाह नहीं, पूर्णता है, जहाँ कोई अभाव नहीं, उस अखंड आनंद की अवस्था में भी एक विस्तार है, रहस्य है. विस्मय की वह अनोखी अवस्था ही समाधि तक पहुंचती है. जिससे प्रज्ञा का जन्म होता है, वही जानने योग्य है !   

Friday, April 24, 2015

जागो जागो माँ

जनवरी २००९ 
हम असत्य में ही जन्मते हैं, असत्य में ही जीते हैं और असत्य में ही मर जाते हैं. कामना हमारे जन्म का कारण है, वासना हमारे जीते चले जाने का कारण है और वासना ही हमारी मृत्यु का कारण है. असत्य हमारे स्वभाव में इस तरह घुलमिल गया है कि उसका भास तक हमें नहीं होता. इस मामले में हम बड़े वीर बन गये हैं. समय बीतता जा रहा है और हम व्यर्थ के कामों में लगे रहते हैं. श्वासें घट रही हैं, मृत्यु सिर पर नाच रही है और हम अब भी नहीं चेते. यह देह जो एक दिन आग की भेंट चढ़ जाने वाली है उसे तो रोज हम नहलाते-धुलाते हैं, और हम जो स्वयं बच जाने वाले हैं उसकी कोई फ़िक्र नहीं. पाँचों इन्द्रियों के घाट पर हम रहते आये हैं और वहीं रहने का इरादा कर लिया है. जिव्हा अपनी ओर खींचती है, कान मधुर सुनने को आतुर हैं. इन पर तो चलो नियन्त्रण कर भी लें, मन जो मनमानी करता है उसका क्या, बुद्धि जो मन के पीछे दौड़-दौड़ कर अपना अपमान करने से भी बाज नहीं आती. हजार बार ठोकर खाने के बाद भी हम सचेत नहीं होते. आखिर एक दिन तो जगना ही होगा. 

Thursday, April 23, 2015

जिस पल घटे समाधि भीतर

जनवरी २००९ 
निर्वाण, वैकुण्ठ, सत्य, प्रेम, मोक्ष, मुक्ति, ईश्वर, आत्मा तथा परमात्मा सारे शब्द एक की ओर इशारा करते हैं ! उस एक को जो पाले वह जीवन का परम सौभाग्य प्राप्त कर लेता है. उसके सारे बंधन जल जाते हैं, चाह मिट जाती है. पूर्ण तृप्त हुआ वह जगत में आनंद बांटता फिरता है ! जो मिल जाये उसी में संतुष्ट हुआ वह सहज प्राप्त कर्मों को करता हुआ नित आत्मानंद में डूबा रहता है ! यह आत्मानंद सभी को सहज प्राप्त हो सकता है, बस आवश्यकता है अपने भीतर देखने की, जागकर अपने बाहर देखने की, अपने कर्मों पर नजर डालने की ! हमारे कर्म ही हमारी सोच को गढ़ते हैं, सद्कर्म सद्विचारों की ओर ले जायेंगे. सद्विचार पुनः हमें अच्छे कर्मों में लगायेंगे. हमारा आचरण यदि हमारे मन की गवाही देगा तो जीवन में सौम्यता व रस बरसेगा. किन्तु जब हमारे सोचने व करने में अंतर होगा तब भीतर का द्वंद्व किसी न किसी रूप में बाहर प्रकट होकर ही रहेगा. कोई भी भाव या विचार अपना असर छोड़े बिना नहीं जाता. जब भाव, विचार तथा कर्म तीनों शुद्ध हों तभी उसकी झलक मिलती है. वह तो चारों ओर बिखरा हुआ है, भीतर भी वही है. उसी का विस्तार है यह सृष्टि, जब भीतर मौन छा जाता है, तब उसका आभास होता है. मौन में ही पूर्ण सत्य का अनुभव किया जा सकता है. वह समाधि का क्षण है. शांति का उद्गम स्रोत भी वही है. वही निर्वाण है. जब मात्र शून्य शेष रहता है. शांति को अनुभव करने वाला भी नहीं रहता. एकाध क्षण को ऐसा अनुभव सभी को होता है, पर हम इसे पहचान नहीं पाते ! 

Wednesday, April 22, 2015

सोचे सोच न होइए जो सोचे लख वार

 जनवरी २००९ 
परमात्मा से मिलन हृदय से ही होता है बुद्धि से नहीं. बुद्धि शब्दों में उलझी रहती है, शास्त्रों में उलझी रहती है, हृदय तो आतुर होता है. बुद्धि आत्मरक्षा का उपाय खोजती है, हृदय समर्पण है. बुद्धि संसार में कहीं पहुंचा सकती है पर परमात्मा के राज्य में ले जाने में वह समर्थ नहीं है. बुद्धि और हृदय में फासला अधिक नहीं है पर अपनी बुद्धि पर हम जरूरत से ज्यादा भरोसा करते हैं, उसे त्यागना नहीं चाहते, नहीं तो कब का परमात्मा को अपना बना चुके होते. संसार में हम तृप्ति का अनुभव नहीं करते फिर भी डरते हैं उस डगर पर जाने से. जिस क्षण बुद्धि चुप हो जाती है भीतर शांति छा जाती है. परमात्मा तब आमने–सामने होता है. एकांत में भक्त या साधक के पास परमात्मा के सिवा कोई दूसरा नहीं होता. भीड़ में वह कभी इधर-उधर हो जाता है और जिस क्षण मन किसी कामना से भर जाता है या बुद्द्धि वाद-विवाद में उलझ जाती है तो वह कहीं छिप जाता है. परमात्मा एकक्षत्र राज्य करता है, उसके सामने कोई ठहर नहीं सकता. वह रसपूर्ण परमात्मा नित नूतन रस बरसाता है, वह अनंत है, अपार है !

Tuesday, April 21, 2015

भीतर अमृत घट झरता है

जनवरी २००९ 
संतजन कहते हैं, पत्थर, वनस्पति, पशुओं की दुनिया को पार कर हम मानव बने हैं. मानव के पास मन है, वाणी है ! वाणी से ही मनुष्य की पहचान होती है. परमात्मा भी शब्द के माध्यम से प्रकट हुआ है. इस शब्द को जब हम भीतर सुनते हैं तो मानो परमात्मा के द्वार पर पहुंच गये हैं. संगीतमयी वह परमात्मा की धुन अनवरत हमारे भीतर गूँज रही है. बाहर का संगीत भीतर से ही उपजा है. भीतर अमृत के झरने बह रहे हैं. मनुष्य का जन्म इसी को सुनने के लिए हुआ है. मनुष्य परमात्मा में ही जन्मा है, जीता है व विलीन होता है, लेकिन वह जानता नहीं. उसका मन विकसित हुआ है पर अचेतन मन अभी भी पाशविक वृत्तियों का शिकार बना है. भक्त अपने मन के भीतर परमात्मा को प्रकट करता है. अनगढ़ा मन भगवान को नहीं जान पाता, जैसे जैसे मन जगता जायेगा परमात्मा प्रकट होता जायेगा. जैसे एक संगतराश पत्थर से मूर्ति को तराशता है वैसे ही साधक अपने मन में से एक ज्योतिस्वरूप परमात्मा को गढ़ता है. मन को मथ कर वह अमृत कुम्भ प्रकट करता है. 

Monday, April 20, 2015

जीवन पल में ही मिलता है

दिसम्बर २००८ 
यदि ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि किसी क्षण में हम जहाँ होते हैं वहाँ नहीं होते, बल्कि हमारा कोई पता-ठिकाना ही नहीं ! हम जीवन को खोज रहे हैं और जीवन हमें खोज रहा है. जीवन हर तरफ से हमें घेरे हुए है. हम कहते हैं कि भविष्य सुंदर होगा, पर वह भविष्य कभी  आता ही नहीं. जो आता है, वह अभी है, वह आज है ! हम कभी वर्तमान में नहीं होते, इस क्षण में जो जागृत है, वही जागृत है. कृत्य का गुण भीतर से आता है, जो कृत्य मूर्छा में किया गया है वह बांधता है. जागृत कृत्य ही पुण्य है.

Friday, April 10, 2015

वह कौन चित्रकार है..

दिसम्बर २००८ 
अनादि काल से मानव इस सृष्टि के रहस्यों को जानने का प्रयत्न करता आया है, लेकिन कोई भी आज तक इसे जानने का दावा नहीं कर पाया है. यह रहस्य उतना गहरा होता जाता है जितना हम इसके निकट जाते हैं. हम कुछ भी नहीं जानते यह भाव दृढ़ होता जाता है. यह सृष्टि क्यों बनी, कैसे बनी आज तक कोई इनके उत्तर नहीं दे पाया. परमात्मा को जिसने भी पाया है अपने भीतर ही पाया है, वह मन की गहराई में छिपा है. जब शरीर स्थिर हो, मन अडोल हो, शांत हो, भीतर कोई द्वंद्व न हो तो जिस शांति व आनंद का अनुभव भीतर होता है वह परमात्मा से ही आयी है. 

Thursday, April 9, 2015

हर दुःख मिटता ज्ञान से

दिसम्बर २००८ 
साधक वही है जो विवेक का उपयोग करके अपने भीतर व बाहर को हर दुःख से सुरक्षित करना चाहता है. दुःख के दो ही कारण हैं पहला अज्ञान दूसरा इच्छा. मन से पार जो परम तत्व है उसमें स्थित हो जाना ही ज्ञान है, परम विवेक है. विवेक नित्य-अनित्य में भेद करना सिखाता है. अनित्य के पीछे भागना मानो परछाई के पीछे भागना है, जिसमें दुःख ही मिलता है. नित्य की तलाश में जाना भी नहीं पड़ता, अनित्य को छोड़कर जो शेष रहता है वही ‘वह’ है. जिस क्षण हमें लगे कि इस जग में कुछ भी पाने योग्य नहीं रह गया है तो जो भाव भीतर बचे वही परमात्मा है. जिस क्षण लगे कि इस जग में सभी कुछ अनित्य है, परिवर्तनशील है, अनित्य पर विश्वास करना स्वयं को धोखा देना ही है. विश्वास केवल उस एक तत्व पर किया जा सकता है जो नित्य है, शाश्वत है, जिसकी झलक ध्यान में मिलती है, जो हर वक्त हमारे साथ है, तो उससे मुलाकात हो गयी.

Wednesday, April 8, 2015

एक यात्रा ऐसी भी है

दिसम्बर २००८ 
मानव के भीतर जो अधूरापन है, तलाश है वह उसे जड़ नहीं बैठने देती. वही उसे आगे बढने को प्रेरित करती है. प्रभु अनंत है, उसका ज्ञान अनंत है, उसकी शक्ति अनंत है उसका प्रेम भी अनंत है. मानव के भीतर भी वह अनंत रूप में बसा हुआ है. उसकी शक्ति, प्रेम और ज्ञान की झलक तो उसे कई बार मिलती है, इसलिए वह बार-बार उड़ान भरता है और अनंत आकाश की एक झलक पाकर उसे लगता है कि कुछ मिला है, फिर कुछ दिन बाद भीतर फिर कुलबुलाहट होने लगती है कि कुछ और है जो अनजाना है.. और उसकी यात्रा जारी रहती है.  

Friday, April 3, 2015

एक ही मौसम रहता है तब

दिसम्बर २००८ 
एक साधक के जीवन में दो ही ऋतुएं होती हैं, एक जब वह ईश्वर या गुरू से निकटता का अनुभव करता है और दूसरी वह जब उनसे दूरी का अनुभव करता है. लेकिन ईश्वर की कृपा इतनी असीम है कि वह साधक को दूसरी ऋतु में देखना नहीं चाहती. वह पुनः उसी निकटता का अनुभव कराना चाहती है जिसे पाकर भीतर प्रेम की लहर दौड़ जाती है, परम शांति का अनुभव होता है. भीतर कृपा का सागर लहरा रहा है. खुदा का अर्थ ही है वह जो खुद आये, हमें केवल उसका इंतजार करना है पूरे मन के साथ. जब मन पूरी तरह ठहर जाता है, तब ही कालातीत से परिचय होता है. 

Thursday, April 2, 2015

सहज हुआ सो मीठा होए

अक्तूबर २००८ 
जीवन कितना अद्भुत है यह बात वही अनुभव कर सकता है जिसने एक बार भी आत्मिक सुख का अनुभव किया हो. अन्यथा हम सभी एक मोह की नींद में असत्य को ही सत्य मानकर सुख-दुखी होते रहते हैं. आत्मदर्शी के लिए जगत में रहना कितना सहज हो जाता है, जैसे कोई पक्षी अप्रयास गगन में तिरता हो. जैसे कोई मीन अनायास ही जल में तैरती हो. जैसे कोई नवजात शिशु सहज ही अपना मुँह खोल अंगड़ाई लेता हो. जैसे सुबह अपने आप हो जाती है और रात भी तारों व चाँद सहित आकाश में अपना साम्राज्य सजाती हो !

Wednesday, April 1, 2015

निज स्वभाव में टिकना आये

अक्तूबर २००८ 
तन स्वस्थ रहे तो मन स्वस्थ रहता है और मन स्वस्थ रहे तो तन स्वस्थ रहता है पर आत्मा स्वस्थ रहे तो दोनों स्वस्थ रहते हैं. इसलिए आत्मा को ही स्वस्थ रखना परम लक्ष्य होना चाहिए. सरवर में जैसे कमल रहता है वैसे ही आत्मा तन में रह सकती है. कर्ता का भाव छूटना ही वह समझ है जो भीतर क्रांति ला सकती है. वही अहंकार है. हमारी जीवन धारा इसी के कारण मटमैली हो जाती है. जैसे जगत में सब कुछ हो रहा है, तन व मन अपने स्वभाव के अनुसार बरत रहे हैं, आत्मा साक्षी मात्र है यह अनुभव ही आत्मा को स्वस्थ रखता है.