जनवरी २०१५
‘ब्रह्म सत्यम
जगत मिथ्या’ शंकराचार्य ने कहा है मिथ्या का अर्थ है जो दीखता तो है पर है नहीं,
माया है, स्वप्न है, लेकिन जिस समय हम स्वप्न देखते हैं सत्य प्रतीत होता है.
मिथ्या का एक अर्थ अनुपयोगी है. अनुपयोगी का अर्थ है विवेक से उपयोग करके उससे
मुक्त हो जाना. यह जगत विवेक से जीने जैसा है, उपयोग करके उससे पृथक हो जाने जैसा
है, इसी अर्थ में यह जगत मिथ्या है, हमारे भीतर जो चैतन्य है, वही ब्रह्म है, वही
अनंत है, निरंतर उसका विस्तार हो रहा है. जगत में दूर से दूर की वस्तुएं तथा निकट
से निकट का शरीर, मन बुद्धि, चित्त तथा अहंकार भी आ जाते हैं. श्वास यानि प्राण भी
हमारे उपयोग में लाने जैसा है, जिसे देखते–देखते हम मन तक पहुंचते हैं, बुद्धि,
चित्त तथा अहंकार को जानते-जानते स्वयं तक पहुंचते हैं. चैतन्य की अनुभूति होते ही
हमें अपनी शाश्वतता का प्रमाण भी मिल जाता है, मृत्यु का भय नहीं रहता, सारे
द्वन्द्वों से पार उस निर्भय, निर्वैर अवस्था का अनुभव होता है, जहाँ एक अखंड
शांति का सोता बह रहा है, जहाँ कोई चाह नहीं, पूर्णता है, जहाँ कोई अभाव नहीं, उस
अखंड आनंद की अवस्था में भी एक विस्तार है, रहस्य है. विस्मय की वह अनोखी अवस्था
ही समाधि तक पहुंचती है. जिससे प्रज्ञा का जन्म होता है, वही जानने योग्य है !
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