दिसम्बर २००८
साधक वही है
जो विवेक का उपयोग करके अपने भीतर व बाहर को हर दुःख से सुरक्षित करना चाहता है.
दुःख के दो ही कारण हैं पहला अज्ञान दूसरा इच्छा. मन से पार जो परम तत्व है उसमें
स्थित हो जाना ही ज्ञान है, परम विवेक है. विवेक नित्य-अनित्य में भेद करना सिखाता
है. अनित्य के पीछे भागना मानो परछाई के पीछे भागना है, जिसमें दुःख ही मिलता है.
नित्य की तलाश में जाना भी नहीं पड़ता, अनित्य को छोड़कर जो शेष रहता है वही ‘वह’
है. जिस क्षण हमें लगे कि इस जग में कुछ भी पाने योग्य नहीं रह गया है तो जो भाव
भीतर बचे वही परमात्मा है. जिस क्षण लगे कि इस जग में सभी कुछ अनित्य है,
परिवर्तनशील है, अनित्य पर विश्वास करना स्वयं को धोखा देना ही है. विश्वास केवल
उस एक तत्व पर किया जा सकता है जो नित्य है, शाश्वत है, जिसकी झलक ध्यान में मिलती
है, जो हर वक्त हमारे साथ है, तो उससे मुलाकात हो गयी.
वह नित्य अपरिवर्तनीय ही तो मैं हूँ रीअल आई अहम आत्मा ब्रह्म।
ReplyDeleteस्वागत व आभार वीरू भाई !
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