जनवरी २००९
संतजन कहते
हैं, पत्थर, वनस्पति, पशुओं की दुनिया को पार कर हम मानव बने हैं. मानव के पास मन
है, वाणी है ! वाणी से ही मनुष्य की पहचान होती है. परमात्मा भी शब्द के माध्यम से
प्रकट हुआ है. इस शब्द को जब हम भीतर सुनते हैं तो मानो परमात्मा के द्वार पर
पहुंच गये हैं. संगीतमयी वह परमात्मा की धुन अनवरत हमारे भीतर गूँज रही है. बाहर
का संगीत भीतर से ही उपजा है. भीतर अमृत के झरने बह रहे हैं. मनुष्य का जन्म इसी
को सुनने के लिए हुआ है. मनुष्य परमात्मा में ही जन्मा है, जीता है व विलीन होता
है, लेकिन वह जानता नहीं. उसका मन विकसित हुआ है पर अचेतन मन अभी भी पाशविक
वृत्तियों का शिकार बना है. भक्त अपने मन के भीतर परमात्मा को प्रकट करता है.
अनगढ़ा मन भगवान को नहीं जान पाता, जैसे जैसे मन जगता जायेगा परमात्मा प्रकट होता
जायेगा. जैसे एक संगतराश पत्थर से मूर्ति को तराशता है वैसे ही साधक अपने मन में
से एक ज्योतिस्वरूप परमात्मा को गढ़ता है. मन को मथ कर वह अमृत कुम्भ प्रकट करता
है.
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