Tuesday, February 26, 2013

मन जब चुप होना सीखेगा


मौन में शांति है. जब अति आवश्यक हो तभी बोला जाये, तो हम वाणी के कई अपराधों से बच सकते हैं. अधिक बोलने से हम असत्य भी बोल सकते हैं, पर मन का मौन भी इतना ही आवश्यक है, जितना वाणी का. मन आखिर सुनाता ही किसको है ? स्वयं को ही सुनाता रहता है. सुने हुए को, कहे हुए को बार-बार दोहराता है. आत्मा तो उसको सुनना नहीं चाहता, अहंकार को ही सुनाता होगा, तो यदि भीतर शांति चाहिए तो अहंकार रूपी श्रोता को भगा देना होगा. ध्यान में जैसे-जैसे हम गहरे जाते हैं, अहंकार से मुक्त होते जाते हैं, तभी शांति का अनुभव होता है. 

Monday, February 25, 2013

मन का सरवर हिलता जाता


अप्रैल २००४ 
जो दुःख हर ले, वही अध्यात्म है, परिस्थितियां कैसी भी हों, हम उनके द्वारा प्रभावित न हों, प्रभावित तभी होते हैं, जब स्वयं को अस्तित्व से पृथक मानते हैं. अस्तित्व को कोई सुख-दुःख नहीं व्यापता, वह पूर्ण मुक्त है और साक्षी है. जब हम भी मन को साक्षी भाव से देखने लगते हैं, तो वह भी अपना स्वभाव छोड़ने लगता है, शांत होने लगता है. मन को देखना आ जाये तो उसका निग्रह करना आसान है. इन्द्रियां प्रत्यक्ष रूप से विषयों के सम्पर्क में आती जरूर हैं, पर उन्हें कहता तो मन ही है. आँख यदि कुछ असुंदर देखती है तो उसका दुख मन ही अनुभव करता है, और यदि मन भी सो जाये तो हमें उसका पता ही नहीं चलता. हमें इसी अमनी भाव में आना है. अहंकार की जड़ भी यह मन है, और दुःख तथा अहंकार का कारण भी यह मन है, जो अस्थिर होकर ज्ञान को टिकने से रोकता है. यदि दूध में जामन डाल दें और निरंतर उसे हिलाते रहें तो दही नहीं जमेगा. मन स्थिर होगा तभी अस्तित्व उसके दर्पण में झलकेगा.

Sunday, February 24, 2013

खो जाते हैं दुःख तब सारे



ईश्वर के बारे में जितना भी सुनें, मन तृप्त नहीं होता, वह नित नवीन है, रसमय है, उसका नाम भी उसी का रूप है. अंतर में जब उसका सुमिरन चलता रहता है, उसकी याद बनी रहती है तो हम दुःख  से बच जाते हैं, अन्यथा संसार का साथ हमें मिले तो दिन भर में कितनी बार मन कुम्हला जाता है. पर रहना तो हमें संसार में ही है, सो मन को इस तरह ढालना होगा कि जगत में रहकर भी वह प्रभु से जुड़ा रहे, अर्थात अपनी याद बनी रहे. हमारी एक-एक श्वास उसी की दी गयी है, उसकी अध्यक्षता में यह प्रकृति काम करती है, जो इस चराचर का नियम है. वही प्रभु प्रेम करने वाले अपने भक्त की निकटता में आनंद का अनुभव करता है. हम जब संसार में रहते हैं तो खुद को देह मानते हैं पर परमात्मा के साथ तो हम आत्मा रूप में ही मिल सकते हैं. हम न सिर्फ देह नहीं हैं बल्कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार नहीं हैं. हम वास्तव में उसके अंश हैं, उसमें हमारा स्नेह होना स्वाभाविक है. केवल प्रेम अथवा केवल भक्ति अथवा केवल कर्म अधूरे हैं, तीनों का समन्वय होना चाहिए. ज्ञान यही है कि हम देह नहीं है, भक्ति यही है कि हम उसका अंश हैं, वह विभु है हम अणु हैं. कर्म यही है कि हमारे सभी कर्म शुद्ध हों, करणीय कर्म ही करें, मनसा, वाचा, कर्मणा हमसे कोई ऐसा कर्म न हो जो बंधन में डालने वाला हो. सद्गुरु रूपी तीर्थ में हमें अपने मन के मालिन्य को धो डालना है.

Saturday, February 23, 2013

बिन फेरे हम तेरे



हम ईश्वर के हैं जब इस भाव में हम स्थिर हो जाते हैं तो अभिमान से दूर हो जाते हैं, सभी का आदर करते हैं. जब हम स्वयं को संसार का समझते हैं तो अभिमान से भर जाते हैं. ईश्वर की दुनिया में दिखावे का कोई स्थान नहीं, अत कपट भी वहाँ नहीं होता. वहाँ कोई दूसरा नहीं सो अभिमान किसे दिखायेंगे, वहाँ केवल प्रेम का ही जोर चलता है, क्योंकि प्रेम अपने आप में ही पूर्ण है, उसे कोई पात्र भी न मिले तो स्वयं को ही तृप्त करता है और स्वयं ही आनन्दित होता है. संसार में हम जितने के अधिकारी हैं उतना ही हमें मिलता है पर कृपा असीम है, हम उसे समेट ही नहीं पाते, संसार में हम सागर के किनारे बैठकर भी प्यासे रह जाते हैं, जीवन का एक-एक क्षण कितना कीमती है, इसकी प्रवाह किये बिना हम व्यर्थ ही संसार के पीछे दौड़ते रहते हैं. परम हर ओर से हमें घेरे है, उसकी तरफ आँख उठाकर देखते ही भीतर कैसी शांति का अनुभव होता है.

Thursday, February 21, 2013

जरा मीठा मीठा बोलो


अप्रैल २००४ 
साधक को वाणी के दोष एक-एक करके दूर करने हैं, पहला दोष है कठोर वाणी, दूसरा है अप्रसंग बात करना, बिना जानकारी के बात करना, अधिक बात करना, असत्य वचन बोलना. हमारे जीवन में जो भी कठिनाईयाँ आती हैं उनमें वाणी का बहुत बड़ा योगदान है. वाणी ऐसे भी न हो जिसमें परनिंदा हो, चुगली हो अथवा तो स्वयं को दुखी करने या होने की बात हो. हमारी वाणी कौशल्या रूपी बुद्धि से उपजी हो, तभी राम रूपी आनंद का प्राकट्य होगा. रावण रूपी अहंकार से उपजी वाणी अपने विनाश का ही कारण बनती है. 

Wednesday, February 20, 2013

याद दिला दे कोई अपनी


अप्रैल २००४ 
होशपूर्वक जीने की कला ही साधना है, सदियों की बेहोशी को तोड़ने के लिए हमें सदियाँ भी लगें तो कोई बात नहीं, जितनी देर तक हम भूले रहे उसे न याद करके जितनी देर होश में रहे उतना मंजिल के पास आ गए. होश में जीने का अर्थ है स्वयं को प्रकृति से ऊपर चैतन्य से जोड़कर निज सहज स्वरूप में रहना. कृपा जब तक न हो इस ज्ञान की तरफ रूचि नहीं होती, ज्ञान भीतर टिकता नहीं यदि मन समाहित न हो, मन तभी समाहित होता है जब ‘मैं’ मन से परे जा चुका होता है, अर्थात उसमें ईश्वरीय प्रेम की ललक लग जाती है, और ऐसा प्रेम तभी जगता है जब उसकी कृपा होती है, पर उसकी कृपा का अधिकारी बनने के लिए तो हमें प्रयास करना ही पड़ेगा., भीतर प्यास जगानी होगी, प्यास जितनी तीव्र होगी पूर्ति भी उसी के अनुपात में होगी. 

Tuesday, February 19, 2013

शरीरं दृश्यः- शिव सूत्र



“शरीरं दृश्यः” यह जगत दृश्य है, हम द्रष्टा हैं, हमारा शरीर भी दृश्य है, मन भी दृश्य है, विचार, भाव सभी दृश्य हैं, जिन्हें देखने वाला “मैं” हूँ, प्रथम तो हमें यह जानना है कई आँख द्रष्टा नहीं है, आंख से देखते हुए भी यदि मन कहीं और है तो हम देख नहीं पाते, इसी तरह मन जुड़ा होने पर भी, नींद में तो आंख खुली होने पर भी हम देख नहीं पाते. मन के माध्यम से देखता कोई और है, जो मन से परे है, विचार, भाव, बुद्धि इन सबसे परे है, जो स्वयंभू है, जिसे किसी का आश्रय नहीं चाहिए, जो अपना आश्रय आप है, जो सभी का आश्रय है. गहराई से देखें तो यह सारा जगत ही हमारा शरीर है, हवा यदि जहरीली हो जाये, या सूर्य न रहे तो देह भी न रहेगी, धरा उसे टिकने के लिए चाहिए, शरीर प्रकृति का अंश है, पर आत्मा परम चैतन्य का अंश है. ध्यान में इसी की अनुभूति हम कर  सकते हैं, उसकी झलक भी मन, प्राण, हृदय को ज्योतिर्मय कर देती है. सभी को अनजाने सुख से भर देता है.

Monday, February 18, 2013

मुक्त गगन आवाज दे रहा


अप्रैल २००४ 
हमारे भीतर चेतना के विभिन्न स्तर हैं, जब हम चेतना के उच्चतम स्तर पर होते हैं तभी हम मुक्त हो सकते हैं. धीरे-धीरे हम सोपान चढ़ते हैं. जब हमारा शिवत्व दब जाता है तो हम पुनः नीचे आ जाते हैं, और शिवत्व तब दबता है जब हम कपट आरम्भ करते हैं, साधारण लाभ के लिए जब हम असत्य आचरण करते हैं. भक्ति में जब दंभ न रहे, ज्ञान का अभिमान न रहे श्रद्धा अटूट हो तभी मन एकाग्र होगा और एकाग्र मन ही इतर लाभ की चिंता नहीं करता. उसके भीतर कोई द्वार खुल जाता है, जहां से कोई उसे आवाज देता है. तब निपट निरालों की तरह उसकी अपनी एक दुनिया होती है. जहां प्रेम, शांति, आनंद का साम्राज्य है. संसार उसे बार-बार नीचे बुलाता है पर जिसने उसका हाथ पकड़ लिय वह कब तक बंधा रहेगा, वह तो मुक्त गगन का वासी बन ही जाता है.

यह जग सुंदर हो जाये


अप्रैल २००४ 
अस्तित्त्व ने हमें जीवन का अमूल्य उपहार दिया है, यह सुंदर प्रकृति उसी की अध्यक्षता में काम करती है, बदले में हम प्रभु को क्या दे सकते हैं? इतना ही की उसके इस सुंदर विश्व को कुरूप न बनाएँ, बल्कि और सुंदर बनाएँ, अपने आसपास सौंदर्य बिखराएँ, मन का सौंदर्य भी और भौतिक सौंदर्य भी, सभी अन्ततः भीतर से ही उपजता है, इस जगत में सभी कुछ उस परम के प्रकाश से ही उपजा है. वह हर पल हमारी खबर रखता है, हमें उसकी खबर नहीं रहती जब मन संसार में उलझा होता है. चित्त जब खाली होता है, तभी उसको जानने की प्यास भीतर जगती है. चित्त की शुद्धि के लिए साधना की तत्परता भी चाहिए और समर्पण भी. सृजन की क्षमता का विकास होता है जब मन एकाग्र हो, बिखरा हुआ मन स्वयं भी अतृप्त रहता है और दूसरों को भी अतृप्त बनाता है. मन जब उस विराट के चरणों में झुका होता है तो उसके कुछ गुण तो इसके भीतर आएंगे ही और वह प्रभु तो मानो इसी की प्रतीक्षा कर रहा है, वह हमारी और प्रेम भरी नजरों से निहार रहा है, उसको जानने का छोटा सा प्रयास भी विफल नहीं जाता.

Friday, February 15, 2013

चेतन ही है सारी सृष्टि


मार्च २००४ 
परमेश्वर को जान लिया, यह कहना ही गलत है क्योंकि परमेश्वर ज्ञेय वस्तु नहीं है, वह स्वयं ज्ञान है, वही वह शक्ति है जिससे जाना जाता है. वह स्थिति अनिर्वचनीय है. यदि हम कहें जिसे जानना था जान गए तो जड़ता का भय रहता है, जो अनजाना है उसे जानने की उत्सुकता ही हमें चेतन बनाये रखती है. ध्यान में हम जड़ शरीर से व मन, बुद्धि से भी स्वयं को परे देखने लगते हैं, द्रष्टा भाव में जब हम आ जाते हैं तो अपने मन के विचारों को भी देखना सीख लेते हैं, तब अपने चेतन स्वरूप का ज्ञान होता है. तब जीवन अहिंसामय होता है, सात्विक होता है. ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार आदि दोषों को भीतर देखना जब आ जाता है तभी तो उन्हें दूर कर सकते हैं, तभी जीवन सजगता पूर्वक जीने की कला आती है, भीतर की शक्तियाँ प्रकट होने लगती हैं, भीतर जो जड़ता थी वह समाप्त होने लगती है, तब प्रकृति में भी सजीवता का दर्शन होता है. कण-कण में उसी प्रभु की सत्ता का दीदार तब होता है. 

Wednesday, February 13, 2013

ज्ञाता और द्रष्टा वही है


मार्च २००४ 
आत्मा चैतन्य है, चैतन्य ही स्वयं को जान सकता है, शेष सभी को भी वही जानता है. जो जगा हुआ है वह जानता है कि वह चैतन्य है. जागने के लिए उद्यम करना होगा. लक्ष्य को भूलना नहीं होगा, ज्ञान ही हमारी सजगता टिकाने में सहायक है. ज्ञान जब टिकेगा तो पुराने संस्कार भी मिटने लगेंगे, तब प्रारब्ध भी आयेगा तो छूकर निकल जायेगा. सजगता के लिए ही साधना है, ध्यान है. जागृत, स्वप्न और निद्रावस्था के मध्य भी कुछ ऐसे क्षण मिलते हैं जो चेतना का अनुभव कराते हैं. है, ऐसे क्षणों में हमें टिकना है, फिर हम उस चैतन्य को पा लेते हैं, जहां मन शांत हो जाता है. 

Tuesday, February 12, 2013

सिमरन भला भला लगता जब


मार्च २००४ 
मन जब अपने आप सिमरन करना चाहने लगे, उसे कुछ और करना भाए ही नहीं, जगत के आकर्षण फीके लगने लगें, संभवतः यही प्रेम है, या भक्ति. भक्ति स्वयं फलरूपा है, अर्थात प्रेम का साध्य प्रेम ही है, भक्ति साध्य भी है और साधन भी, उसका साध्य और भक्ति है. जब और कुछ पाना शेष न रहे तभी यह प्रेम अंतर में जगता है, मन हल्का हो जाता है, प्राणों में विश्वास भर जाता है, हृदय में उल्लास और नेत्रों में मधुर प्यास भर जाती है. तब प्रकृति का रूप धर कर वह हर ओर नजर आने लगता है, वह जो पहले अगोचर था अब गोचर हो जाता है, तब साधक का हर क्षण उसकी निकटता में ही गुजरता है, वह कल्पना की नहीं अनुभव की निधि बन जाता है.

Monday, February 11, 2013

तू भी मेरे जैसा है


मार्च २००४ 
हम जब भी किसी को उसकी किसी आदत के लिए टोकते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि कई बार वही गलती हम भी कर चुके हैं. जीसस के अनुसार क्या हमें पहले अपनी आँख का लट्ठा नहीं निकालना होगा, तभी हम दूसरे की आँख का तिनका निकाल सकेंगे. ईश्वर ने हमारी अनेकों भूलों को क्षमा किया है, क्योंकि वह हमसे प्रेम करता है, हमें भी खुद सा बनने की प्रेरणा देकर वह हमारे मन को स्वच्छ करता है, वह हमें अपना मित्र बनाना चाहता है, हर क्षण ऊपर उठाना चाहता है, न जाने कितने उपायों से वह हमारी उन्नति चाहता है, करुणा, प्रेम, सत्य आदि हमारे भीतर बीज रूप सुप्त शक्तियाँ हैं, उन्हें श्रद्धा द्वारा जगा कर हम उससे एक हो सकते हैं.  

Sunday, February 10, 2013

वियोग में छुपा है योग


मार्च २००४ 
हृदय में वात्सल्य भाव जितना शीघ्र उत्पन्न होगा, उतनी ही निकटता प्रभु से शीघ्र होगी, राह चलते नन्हे बच्चे को देखकर मन में जो प्रेम उमड़ता है, वह उसी परम की ओर से आता है. वह पवित्र प्रेम या तो नन्हे बच्चों को दिया जा सकता है या बालवत संतों को. कभी-कभी भीतर जो कसक सी उठती है, भीतर जैसे कोई पीड़ा का पेड़ लगा हो, यह मन की आत्मा से न मिल पाने की पीड़ा तो नहीं, संभवतः यह वियोग की पीड़ा ही है. इसमें अपना सब कुछ सौंप कर पूरा खाली हो जाने का भाव मन में उठता है. जहां से विचार उठते हैं उस मन को यदि समर्पित कर दें, जो बुद्धि संकल्प-विकल्प उठाती है, वह  बुद्धि तथा इच्छाएं जो हर पल उठती रहती हैं, उन्हें भी समर्पित कर दें, तभी आभास होता है कि समर्पण में कितनी शांति है और कितना अपनापन है. वह जो सारे जगत का नियंता है, वह हरेक के कितने निकट है. उससे की प्रार्थना कभी भी अनसुनी नहीं जाती.

Friday, February 8, 2013

दो में रुकना ही दुःख है


मार्च २००४
ईश्वर निर्विरोध सत् है, इस जगत में दिखाई पड़ने वाली वस्तुएं किसी न किसी का विरोध करती हैं. जो ‘यह’ है वह ‘वह’ नहीं है, कपड़ा, लकड़ी नहीं है, किताब, कलम नहीं है, पर ईश्वर का किसी से विरोध नहीं, वह ‘यह’ भी है और ‘वह’ भी. प्रेम, घृणा नहीं है, लोभ, उदारता नहीं है, पर ईश्वर एक साथ दयालु और न्यायकारी है. कोमल और कठोर है. वह सारे द्वन्द्वों से अतीत है, पर उसमें कुछ भी होने का अभिमान नहीं है, चैतन्य निरहंकार है, इसीलिए ऐसा भी कह सकते हैं कि वह न ‘यह’ है न ‘वह’ है. वह जहाँ है वहाँ भले-बुरे में भी कोई भेद नहीं रह जाता, वहाँ बस चीजें होती हैं, जो जैसा है बस वैसा ही. साधक का लक्ष्य उसी दृष्टि को पाना है, जहाँ अद्वैत है, केवल उसी पल में मन निर्विचार हो जाता है, निर्द्वन्द्व हो पाता है. एक आह्लादपूर्ण ज्योति से भर जाता है, संशय गिर जाते हैं. तब कल्याण करना नहीं पड़ता, जो होता है, वह कल्याणकारी होता है. जीवन सहज उत्सव बन जाता है.

अगम प्रेम का पथ है यह


‘स्व’ से ‘पर’ की ओर जाने का नाम ही संसार है और ‘पर’ से ‘स्व’ की ओर जाने का नाम ही अध्यात्म है. यह संसार पाया नहीं जा सकता और परमात्मा को खोया नहीं जा सकता. जिसको पाने का कोई उपाय नहीं उसे हम पाया हुआ समझते हैं और जिसे खोने का कोई उपाय नहीं उसे जीवन भर पाने का प्रयास करते है. संसारी कुछ बनना चाहता है, पर संत, भक्त मिटना चाहता है. प्रेम का पथ अगम है, इसमें प्रियतम तो याद रहता है पर खुद की याद नहीं रहती.

Thursday, February 7, 2013

मन वैरागी हो जाये तो


वैराग्य का अर्थ जगत से भागना नहीं है, बल्कि वस्तुओं, व्यक्तियों और परिस्थितियों में स्वयं को न उलझाना, जैसे हम गुलाब की झाड़ी के पास अथवा जंगल में स्वयं को बचाकर चलते हैं, वैसे ही जगत में न किसी के अहंकार को ठेस पहुंचा कर न स्वयं को दूसरों के द्वारा पीड़ित होकर चलने का अभ्यास ही वैराग्य है. ऐसा व्यक्ति ही सच्चा प्रेम कर सकता है, क्योंकि उसकी ऊर्जा उसके भीतर ही है, वह किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता. सहज भाव से वह अपने कर्मों को किये चले जाता है. सुख पाने की लालसा, प्रेम पाने की आकांक्षा उसे कहीं बाँधती नहीं है. वह उस मधुमक्खी की तरह है जो अपने पंखों को बचा कर मधुपान करती है न कि उस मक्खी की तरह जो अपने पंखों सहित शहद में जा फंसती है. जिसे न मान की इच्छा है न अपमान का भय वही सही मायनों में मुक्त है. मोह हमें बांधता है, वह सदा नीचे की ओर ले जाता है, प्रेम सदा ऊपर की और ले जाता है, वह हल्का है. हमें साधना के पथ पर स्वयं को खाली और हल्का करते जाना है. तभी ईश्वर बाँसुरी की फूंक हमारे भीतर भर सकता है, हमारी आत्मा का संगीत तभी हमें सुनाई देता है.

Tuesday, February 5, 2013

प्राणशक्ति सबल करनी है


फरवरी २००४ 
हमें यदि आत्मानुशासन का विकास करना है तो सर्वप्रथम प्राणशक्ति का विकास करना होगा. इन्द्रियों का स्वामी मन है, मन का स्वामी प्राण है, प्राणशक्ति यदि सबल नहीं है तो मन बिखरा-बिखरा सा रहेगा. संतुलित भोजन, प्राणायाम, व्यायाम, समुचित नींद तथा स्वाध्याय भी प्राणशक्ति को बढ़ाने के लिए आवश्यक हैं. प्राण से आगे भाव जगत है, जिससे आगे हमारा सूक्ष्म शरीर है, उससे भी आगे सूक्ष्मतर शरीर, जहाँ हम सूक्ष्म स्पन्दनों का अनुभव करते हैं, तब मन ठहर जाता है. इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति तथा क्रिया शक्ति हमारे भीतर तभी समर्थ होती है. एक तृप्ति तथा सहजता तब जीवन का अंग बन जाती है.

Monday, February 4, 2013

खाला का घर नाहीं


फरवरी २००४ 
हम कितने विवश हैं अपने ही मन के द्वारा, हमारी जीवन शैली कितनी दुखद है, हिंसात्मक है, हम अपने को ही चोट पहुंचाते हैं, स्वयं को ही छलते हैं, और स्वयं ही पीड़ित होते हैं. हमारा झूठा अहंकार जिसे हम बड़े प्यार से पालते हैं, हमें ही डंसता है, और हम उसके दंश को सहने के सिवा कुछ नहीं कर पाते. क्यों ओढ़ी है हमने पाखंड की यह चादर, क्यों नहीं हम इसे उतार कर मुक्त नहीं हो जाते, क्यों नहीं फूलों की तरह हँसते और झरनों की तरह खिलखिलाते, क्यों हमारा होना भर ही हमारे लिए पर्याप्त नहीं होता, क्यों हम कुछ न कुछ होना चाहते हैं, क्यों नहीं हम शून्य हो जाते ताकि किसी के पीछे लगकर उसे मान दे सकें, क्यों अपने को कुछ न कुछ होने के भ्रम में फंसाए ही रखते हैं और जब कुछ नहीं हो पाते तो स्वयं तथा दूसरों को दुःख देते हैं क्यों हम अपनी बुद्धि (तथाकथित) तथा ज्ञान(अधूरा ज्ञान) से मुक्ति पा जाते और निर्दोष भाव से उस परम की शरण में चले जाते, जो हमें पुकार ही रहा है. हम उन न दिखाई देने वाली रस्सियों से बंधे हैं, जो हमें हर तरफ खींच रही हैं, हमारा दम घुटता है, हम छटपटाते हैं, इसी पीड़ा में से संभवतः कोई हल छिपा हुआ निकले. यह घुटन अब हमें अपने आप से दूर नहीं ले जा सकती. हमें शरण में आकर अपने अहं की बलि देनी होगी. कबीर ने ठीक ही कहा है, जो शीश कटाने को तैयार हो वही इस मार्ग पर आगे बढ़ सकता है.  

Sunday, February 3, 2013

सभी समाया है शून्य में


हमारे दुःख का कारण अज्ञान है. इस जगत की कोई वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति हमें सुखी-दुखी नहीं कर सकती यदि हम ज्ञान में स्थित हैं. तब हम मन की गुलामी से मुक्त हो जाते हैं, मन ही हमें भटकाता है, क्षुब्ध करता है. अपनी इच्छा पूरी न होने पर दुःख व्यक्त करता है, अन्यों को भी दुखी करता है. ऐसा वह सोचता है, जबकि अन्य भी सुखी या दुखी अज्ञान के कारण ही होते हैं, लेकिन जानते नहीं हैं. अभी बुद्धि मन की गुलाम है ज्ञान होने पर मन बुद्धि के शासन में रहेगा. आत्मा की निकटतम पड़ोसी बुद्धि है, धीरे-धीरे जब बुद्धि प्रखर होगी तो आत्मा की झलक उसमें मिलेगी. और उस क्षण सारे संशय नष्ट हो जाते हैं, हमारी निज की कल्पनाएँ भी चूर-चूर हो जाती हैं, तब पहली बार सही अर्थों में मुक्ति का अहसास होता है. मुक्ति अर्थात मन में शासन से मुक्त होना, वास्तव में मन कुछ है ही नहीं, परत दर परत हटाते जाएँ तो नीचे कुछ भी दिखाई नहीं देता. जो शून्य है वही अस्तित्त्व है, वही परम शांति है, वही प्रेम है ऐसा प्रेम जो बांधता नहीं है. तब जगत की निस्सारता का अनुभव होता है. वह जगत जो हम अपने मन में ही रचते हैं. हमारे मन में स्वयं का रचा हुआ संसार है जो बाहर के जगत का हमारा स्वयं का संस्करण है. अपने जीवन की पुस्तक हम स्वयं लिखते हैं और उसे सुखद या दुखद बनाने का दायित्व नितांत हमारा ही है.

Friday, February 1, 2013

देह से विदेह तक


हमारी आत्मा के उद्घाटन के लिए ही साधना के पथ पर संत हमें ले जाते हैं. उनके निर्देशन में हम पग-पग कदम बढ़ाते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचते हैं. लक्ष्य यदि स्पष्ट हो और मार्गदर्शक साथ हो तो हर कोई उसे पा सकता है. हमारे अस्तित्त्व की सात परतें हैं-शरीर,   श्वास,      मन,     बुद्धि,      चित्त,     अहंकार व     आत्मा. मानव जन्म को हम तब सफल मान सकते हैं जब शरीर से आत्मा तक पहुंचें. आत्मा के नैसर्गिक गुण हैं- प्रेम, आनंद, सुख, शांति, शक्ति, ज्ञान और पवित्रता. तब वीतरागता, दया, करुणा आदि सहज ही भीतर होते हैं और हम अन्याय कर ही नहीं सकते., हम समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं. आगे बढ़ सकते हैं जहाँ भावधाराएँ उत्पन्न होती हैं. हाइपोथैलेमस यदि सक्रिय है तभी हृदय का होना सार्थक है, ध्यान से यह सहज ही होता है. यह अंतरिक्ष शब्दों से भरा है पर ज्यादातर शब्द व्यर्थ ही हैं. ऐसे शब्द जो हमारे भावों को उच्चता के लिए प्रेरित करें वही सार्थक हैं, और तभी हमारे मुख से निकले शब्द भी सार्थक होंगे जब वे बिना राग-द्वेष के बोले गए हों. यदि मानसिक, वाचिक तथा कार्मिक कृत्यों के प्रति हम सजग हों तभी ऐसा हो सकता है. हमारा ऐसा मन जो किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं है, तथा ऐसी बुद्धि जो निष्काम कर्म करने का संदेश दे, आत्मा में ले जाते हैं, तब मन अमन में ठहर जाता है और बुद्धि प्रज्ञा में बदल जाती है. तब मन दाता हो जाता है, सुख चाहिए का उसका राग स्वतः शांत हो जाता है, ऐसे मन में कैसा भय और कैसा संकोच, वह मन सिर्फ प्रेम ही कर सकता है. आनंद ही बाँट सकता है.