मार्च २००४
हृदय में वात्सल्य भाव जितना
शीघ्र उत्पन्न होगा, उतनी ही निकटता प्रभु से शीघ्र होगी, राह चलते नन्हे बच्चे को
देखकर मन में जो प्रेम उमड़ता है, वह उसी परम की ओर से आता है. वह पवित्र प्रेम या
तो नन्हे बच्चों को दिया जा सकता है या बालवत संतों को. कभी-कभी भीतर जो कसक सी
उठती है, भीतर जैसे कोई पीड़ा का पेड़ लगा हो, यह मन की आत्मा से न मिल पाने की पीड़ा
तो नहीं, संभवतः यह वियोग की पीड़ा ही है. इसमें अपना सब कुछ सौंप कर पूरा खाली हो
जाने का भाव मन में उठता है. जहां से विचार उठते हैं उस मन को यदि समर्पित कर दें,
जो बुद्धि संकल्प-विकल्प उठाती है, वह
बुद्धि तथा इच्छाएं जो हर पल उठती रहती हैं, उन्हें भी समर्पित कर दें, तभी
आभास होता है कि समर्पण में कितनी शांति है और कितना अपनापन है. वह जो सारे जगत का
नियंता है, वह हरेक के कितने निकट है. उससे की प्रार्थना कभी भी अनसुनी नहीं जाती.
पवित्र प्रेम या तो नन्हे बच्चों को दिया जा सकता है या बालवत संतों को.
ReplyDeleteएक सार्थक कथन एक सत्य
रमाकांत जी, स्वागत व आभार !
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