फरवरी २००४
हम कितने विवश हैं अपने ही मन के द्वारा, हमारी जीवन
शैली कितनी दुखद है, हिंसात्मक है, हम अपने को ही चोट पहुंचाते हैं, स्वयं को ही
छलते हैं, और स्वयं ही पीड़ित होते हैं. हमारा झूठा अहंकार जिसे हम बड़े प्यार से
पालते हैं, हमें ही डंसता है, और हम उसके दंश को सहने के सिवा कुछ नहीं कर पाते.
क्यों ओढ़ी है हमने पाखंड की यह चादर, क्यों नहीं हम इसे उतार कर मुक्त नहीं हो
जाते, क्यों नहीं फूलों की तरह हँसते और झरनों की तरह खिलखिलाते, क्यों हमारा होना
भर ही हमारे लिए पर्याप्त नहीं होता, क्यों हम कुछ न कुछ होना चाहते हैं, क्यों
नहीं हम शून्य हो जाते ताकि किसी के पीछे लगकर उसे मान दे सकें, क्यों अपने को कुछ
न कुछ होने के भ्रम में फंसाए ही रखते हैं और जब कुछ नहीं हो पाते तो स्वयं तथा
दूसरों को दुःख देते हैं क्यों हम अपनी बुद्धि (तथाकथित) तथा ज्ञान(अधूरा ज्ञान)
से मुक्ति पा जाते और निर्दोष भाव से उस परम की शरण में चले जाते, जो हमें पुकार
ही रहा है. हम उन न दिखाई देने वाली रस्सियों से बंधे हैं, जो हमें हर तरफ खींच
रही हैं, हमारा दम घुटता है, हम छटपटाते हैं, इसी पीड़ा में से संभवतः कोई हल छिपा
हुआ निकले. यह घुटन अब हमें अपने आप से दूर नहीं ले जा सकती. हमें शरण में आकर
अपने अहं की बलि देनी होगी. कबीर ने ठीक ही कहा है, जो शीश कटाने को तैयार हो वही
इस मार्ग पर आगे बढ़ सकता है.
अहंकार ही ज्ञान प्राप्त करने में बाधक है,,,
ReplyDeleteRECENT POST बदनसीबी,
आपके हर शब्द मुक्ति का मार्ग हैं
ReplyDeleteजो घर बारै आपना........बहुत सुन्दर।
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