मार्च २००४
परमेश्वर को जान लिया, यह कहना ही
गलत है क्योंकि परमेश्वर ज्ञेय वस्तु नहीं है, वह स्वयं ज्ञान है, वही वह शक्ति है
जिससे जाना जाता है. वह स्थिति अनिर्वचनीय है. यदि हम कहें जिसे जानना था जान गए
तो जड़ता का भय रहता है, जो अनजाना है उसे जानने की उत्सुकता ही हमें चेतन बनाये
रखती है. ध्यान में हम जड़ शरीर से व मन, बुद्धि से भी स्वयं को परे देखने लगते
हैं, द्रष्टा भाव में जब हम आ जाते हैं तो अपने मन के विचारों को भी देखना सीख
लेते हैं, तब अपने चेतन स्वरूप का ज्ञान होता है. तब जीवन अहिंसामय होता है,
सात्विक होता है. ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार आदि दोषों को भीतर
देखना जब आ जाता है तभी तो उन्हें दूर कर सकते हैं, तभी जीवन सजगता पूर्वक जीने की
कला आती है, भीतर की शक्तियाँ प्रकट होने लगती हैं, भीतर जो जड़ता थी वह समाप्त
होने लगती है, तब प्रकृति में भी सजीवता का दर्शन होता है. कण-कण में उसी प्रभु की
सत्ता का दीदार तब होता है.
बहुत सार्थक कथन ....!!
ReplyDeleteआभार एवं शुभकामनायें अनीता जी ...!!
बसन्त पंचमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ!बेहतरीन अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteईश्वर को जान लेना या पा लेना आसान नही है,,,,सार्थक प्रस्तुति,,,
ReplyDeleterecent post: बसंती रंग छा गया
द्रष्टा भाव में जब हम आ जाते हैं तो अपने मन के विचारों को भी देखना सीख लेते हैं, तब अपने चेतन स्वरूप का ज्ञान होता है. तब जीवन अहिंसामय होता है, सात्विक होता है. ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार आदि दोषों को भीतर देखना जब आ जाता है
ReplyDeleteसार्थक कथन .
अनुपमा जी, राजेन्द्र जी, धीरेन्द्र जी व रमाकांत जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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