हमारी आत्मा के उद्घाटन के लिए ही साधना के पथ पर संत हमें ले जाते हैं. उनके
निर्देशन में हम पग-पग कदम बढ़ाते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचते हैं. लक्ष्य यदि
स्पष्ट हो और मार्गदर्शक साथ हो तो हर कोई उसे पा सकता है. हमारे अस्तित्त्व की
सात परतें हैं-शरीर, श्वास, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व आत्मा. मानव जन्म को हम तब सफल मान सकते हैं जब शरीर से आत्मा तक
पहुंचें. आत्मा के नैसर्गिक गुण हैं- प्रेम, आनंद, सुख, शांति, शक्ति, ज्ञान और
पवित्रता. तब वीतरागता, दया, करुणा आदि सहज ही भीतर होते हैं और हम अन्याय कर ही
नहीं सकते., हम समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं. आगे बढ़ सकते हैं जहाँ भावधाराएँ
उत्पन्न होती हैं. हाइपोथैलेमस यदि सक्रिय है तभी हृदय का होना सार्थक है, ध्यान
से यह सहज ही होता है. यह अंतरिक्ष शब्दों से भरा है पर ज्यादातर शब्द व्यर्थ ही
हैं. ऐसे शब्द जो हमारे भावों को उच्चता के लिए प्रेरित करें वही सार्थक हैं, और तभी
हमारे मुख से निकले शब्द भी सार्थक होंगे जब वे बिना राग-द्वेष के बोले गए हों.
यदि मानसिक, वाचिक तथा कार्मिक कृत्यों के प्रति हम सजग हों तभी ऐसा हो सकता है.
हमारा ऐसा मन जो किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं है, तथा ऐसी बुद्धि जो निष्काम कर्म
करने का संदेश दे, आत्मा में ले जाते हैं, तब मन अमन में ठहर जाता है और बुद्धि
प्रज्ञा में बदल जाती है. तब मन दाता हो जाता है, सुख चाहिए का उसका राग स्वतः
शांत हो जाता है, ऐसे मन में कैसा भय और कैसा संकोच, वह मन सिर्फ प्रेम ही कर सकता
है. आनंद ही बाँट सकता है.
हमारे मुख से निकले शब्द भी सार्थक होंगे जब वे बिना राग-द्वेष के बोले गए हों. यदि मानसिक, वाचिक तथा कार्मिक कृत्यों के प्रति हम सजग हों तभी ऐसा हो सकता है.
ReplyDeleteसार्थक और शाश्वत कथन
रमाकांत जी, आपका स्वागत है, आभार !
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