जो कर्म में अकर्म को
देखता है और अकर्म में कर्म को देखता है, वही कर्मयोगी है. जो सबमें आत्मा को
देखता है और आत्मा में सबको देखता है. वास्तव में वही देखता है. भगवद गीता के ये
दो श्लोक कितने अद्भुत हैं. हम जगत में जितने भी कर्म करें उनका कर्ता स्वयं को न
मानें, सभी कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार हमसे हो रहे हैं और जब हम ध्यान में
हों अर्थात कुछ भी न कर रहे हों तो भी हमसे बहुत कुछ हो रहा होता है. जो चेतना एक
के भीतर है वही सबके भीतर है तथा सब कुछ उसी के भीतर है.
गहन सत्य ।
ReplyDeleteकाश एक बनें सब
ReplyDeleteरश्मि जी, सब एक हैं मान कर चलना होगा..गुरूजी कहते हैं कुछ जान के चलो, कुछ मान के चलो, प्रेम से सबको गले लगाते चलो..आभार !
Deleteutkrist vichar,
ReplyDeleteजो चेतना एक के भीतर है वही सबके भीतर है तथा सब कुछ उसी के भीतर है.
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने
करन करावन वह मैं तो निमित्त मात्र .आत्मा आत्मा भाई भाई .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .
ReplyDeleteवीरू भाई, अनुभव के स्तर पर इसे जानना ही अध्यात्म है..आभार!
Deleteसारा ज्ञान गीता के श्लोक के भीतर है,बस उसे ग्रहण कर ले,,
ReplyDeleteRECENT POST शहीदों की याद में,
इमरान, सदा जी, धीरेन्द्र जी, मधु जी अप सभी का स्वागत व आभार !
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