जनवरी २००४
भक्त को लगता है, परमात्मा हर पल उसके साथ है. ऑंखें मूंदते ही उसकी छवि प्रकट
होती है, कानों में उसका स्वर गुंजित प्रतीत होता है. तन में प्राणों के रूप में वही
विचरण करते प्रतीत होते हैं. वही सद्गुरु के रूप में आकर चेताते हैं. उसे लगता है,
भीतर शील, सदाचार, प्रेम, क्षमा, दया, शांति का विकास हो रहा है तथा प्रमाद, क्रोध, मोह,
लोभ, इर्ष्या आदि का नाश हो रहा है. ऐसा वह चाहते हैं वह जानता है, तभी वह ईश्वर के
निकटतर हो जायेगा. ऐसा भक्त क्या हममें से हर कोई न बनना चाहेगा. न चाहते हुए भी जाने
कितने अशोभनीय विचार हमारे भीतर उठते हैं, जाने कितने जन्मों के संस्कार दबे हैं
भीतर, पर कृष्ण हमें तब भी प्रेम करते हैं, उनका प्रेम अहैतुक है, क्योंकि वह और कुछ कर ही
नहीं सकते.
भक्त हमेशा परमात्मा को पाने की धुन में लींन रहता है,,,
ReplyDeleterecent post: वह सुनयना थी,
बहुत सच...आभार
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी व कैलाश जी, आपका स्वागत व आभार!
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा....
ReplyDeleteभक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी, बिनु सत्संग न पावहिं प्रानी।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता, सतसंगति संसृति कर अंता॥
भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग संतों के संग के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य एकत्रित हुए बिना संत नहीं मिलते, संतों की संगति से ही जन्म-मरण के चक्र का अंत होता है।