जनवरी २००४
हमें भोक्ता नहीं ज्ञाता बनना है, दृश्य नहीं द्रष्टा बनना है. भोक्ता सुख-दुःख का
भागी है, ज्ञाता उन्हें जानता अवश्य है पर
उनसे अपने को लिप्त नहीं करता. वृत्तियाँ तब भी रहती हैं, पर द्रष्टा बन कर हम उन्हें अपने से पृथक जानते हैं. वे आती हैं,
जाती हैं, हम सदा अपने स्वरूप में बने रहते हैं, संसार चक्र से जीतेजी छूट जाते
हैं. हम शक्ति, ऊर्जा, प्रेम, सामर्थ्य, ज्ञान तथा आनंद के रस से सराबोर हो जाते
हैं. यह कोई काल्पनिक अवस्था नहीं है, यह अनुभूत अवस्था है, हजारों लोगों ने इसे
सत्य कहा है, स्वयं अनुभव किया है. अज्ञान ही हमें इससे दूर रखता है, अज्ञान अपने
होने का, जो देह या मन को ही स्वयं मानता है वह कभी इसे प्राप्त नहीं कर सकता, ये
तो साधन मात्र हैं. इनसे एक होने पर हम अपने पद से नीचे गिर जाते हैं, हम मंगते हो
जाते हैं, भिखारी कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता, जो अभाव का अनुभव करे वह भिखारी ही
तो हुआ, हम बादशाहों के बादशाह होकर क्यों न जियें !
जय श्री कृष्णा.... अनिता जी,
ReplyDeleteनूतन-वर्ष की आपको भी बहुत-बहुत शुभकामनायें।
प्रभु आप में स्थित रहकर हम अज्ञानी जीवों का इसी प्रकार मार्ग दर्शन करते रहें।
सच कहा आपने हम सभी भिखारी ही हैं, एक भिखारी दुसरे भिखारी से लेकर तीसरे भिखारी को देकर स्वयं को दाता समझ लेते हैं, जबकि हम सभी जानते हैं "दाता एक राम भिखारी सारी दुनियाँ है।....साक्षी भाव में स्थित होने पर ही हमारा कर्म-बधंन से मुक्त होना संभव है।
जय श्री कृष्णा..रविकांत जी, आपको भी नए वर्ष की ढेरों शुभकामनायें...साक्षी भाव ही साधना है.
Deleteजो अभाव का अनुभव करे वह भिखारी ही तो हुआ,
ReplyDeleteबहुत खूब
सत्य कहा है।
ReplyDeleteद्रष्टा आत्मा से .........
ReplyDeleteसदा जी की टिप्पणी से सहमत
ReplyDeleteसदा, इमरान जी, रश्मि जी तथा रमाकांत जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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