जनवरी २००४
योग क्या है ? प्रकृति के गुणों के वशीभूत हुए, जीवन में प्रतिपल हमसे कर्म होते
हैं, कर्म करते हुए हम स्वयं को अथवा दूसरों को दुःख न दें तो कर्म बंधन में नही
पड़ते, जैसे कुशा खींचते वक्त यदि सावधान रहें तो मूल सहित कुशा को प्राप्त कर सकते
हैं, अन्यथा हाथ में चोट लगती है, “योगः कर्मसु कौशलम” अर्थात “योग कर्मों में
कुशलता है” में कुशलता शब्द इसी कुशा से आया प्रतीत होता है. मकड़ी जैसे यदि
असावधान रही तो अपने ही जाल में फँस जाती है, वैसे ही सुख के लिए किये हमारे कर्म कहीं
दुःख न ले आयें, यही योग है. कर्म हमारे विकास की सीढ़ी बने और हम स्वयं निर्भार
रहें,मधु पर बैठी मक्खी की तरह नहीं बल्कि शकर पर बैठी हुई मक्खी की तरह हम उनसे
अलिप्त रहें. सृष्टि के आरम्भ से ही जिस यज्ञ की बात कृष्ण ने कही है, जिससे देवता
पुष्ट होते हैं, वह सत्कर्मों की ही है,
जिससे हमारे भीतर दैवीय गुण पुष्ट होते हैं. ‘विधि, निषेध मय कलिमल हरणी’जब यमुना
की ऐसी धारा भीतर बहेगी तो एक दिन एक दिन भक्ति की गंगा भी प्रवाहित होगी.
परन्तु आप सबको खुश नहीं रख सकते......न चाहते हुए भी कहन हमारे किसी कर्म को कोई अपने दुःख का कारन बना लेगा........
ReplyDeleteवक़्त मिले तो जज़्बात पर भी आयें ।
बहुत सही ...
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