जनवरी २००४
क्रिया के कारण भीतर के आनंद का हमें पता चलता है. क्रिया और ज्ञान दोनों का समन्वय
हो तभी हम अध्यात्म के पथ पर चल सकते हैं. धर्म व्यवहारिक हो तभी चेतना का विकास
हो सकता है, चेतना का रूपान्तरण ध्यान के द्वारा किया जा सकता है. ध्यान हमारी
सुप्त चेतना को जागृत करता है. सत्य हमारे भीतर है उसे खोजकर यदि हम जगत में
व्यवहार करें तो ही हम सही रूप से उसका उपयोग कर सकते हैं. हम प्रतिक्षण अपने आप
से प्रश्न करें कि क्या मेरा यह क्षण बंधन का कारण बनने वाला है या मुक्त करने
वाला है. सर्वप्रथम शत्रु अहंकार है जिससे हमें सजग रहना है, बहुत सूक्ष्म होता है
यह अहंकार और यह भी हिंसा का कारण बन जाता है, हम स्वयं में इतने न खो जाएँ की अन्य
हमें बाधा स्वरूप लगें, हम इतने न बंध जाएँ कि छूटने में भी दर्द हो. हम अपनी
कोहनी भर जगह तो अपने चारों और रखें ही ताकि सरलता से चल सकें और किसी को चोट भी न
लगे. हमारा कोई व्यवहार किसी को चोट पहुंचाता हो तो उसकी भनक स्वयं को पहले लग
जाती है. वह परमेश्वर परब्रह्म सच्चिदानंद
स्वरूप हमारे साथ जो है, वह सदा सचेत करता रहता है. उससे प्रीति होना इतना सरल व
सहज भी नहीं है, तलवार की धार पर चलने जैसा है पर एक बार यदि चलना आ जाये तो भीतर
की सच्चाईयाँ प्रकट होकर स्वयं राह बताती हैं तब वह सुह्रद स्वयं हमारा हाथ पकड़ कर
सही पथ पर ले जाता है, तब गिरने का भी नहीं रहता. शरण में जाने के बाद
उत्तरदायित्व उसका हो जाता है, कितनी भी बाधाएं आयें कोई भय नहीं क्योंकि उस
निर्भय का साथ जो है.
सटीक व सार्थक आलेख।
ReplyDeleteइमरान, स्वागत व आभार !
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