जनवरी २००४
जैसे माँ बच्चे के रूप में अपना विस्तार करती है, फिर उसे प्रेम देती है व प्राप्त
करती है, वैसे ही परमात्मा ने हमें सिरजा है, भक्त और भगवान के बीच प्रेम का आदान-प्रदान
ही भगवत्ता को सार्थक करता है. जैसे बच्चे माँ को भुला देते हैं, वैसे ही हम परम
को भूल जाते हैं, पर तब भी वह हमें चाहते हैं वह सदा प्रतीक्षा रत हैं कि हम उनके
निकट जाएँ जैसे माँ को बच्चों की सदा एक आस बनी रहती है. हमारे भीतर के सद्गुण
रूपी देवता उसी परमात्मा की आराधना करते हैं और दुर्गुण रूपी असुर उससे उत्पीड़ित होते
हैं. शुभ-अशुभ दोनों को वह ही रचता है और दोनों से परे वह अव्यक्त है. वह हमारे
भीतर तीन रूपों में विद्यमान है, क्रिया, ज्ञान और भावना. वही कर्म के लिए प्रेरित
करता है, वही हमें हमारे होने का ज्ञान देता है ज्ञान जब भीतर रच-बस जाता है वही
भक्ति में बदल जाता है. मुक्त हुए बिना भक्ति सम्भव नहीं. यह त्रिवेणी जब जीवन में
उतरती है तो जीवन का हर क्षण सुंदर बन जाता है.
अनुपम भाव संयोजित किये हैं आपने ...
ReplyDeleteआभार
सदा जी, आपका स्वागत है, आभार !
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