हमारा व्यक्तित्व समग्र हो अर्थात हम सुसम्पन्न तथा शील सम्पन्न दोनों हों इसके लिए
आवश्यक है की हम ज्ञान, क्रिया, प्रेम, कामना, इच्छा में समन्वय करें, संतुलन
रखें. हम शरीर, मन और आत्मा हैं, तीनों का उत्तम स्वास्थ्य हमारा लक्ष्य है. हमारे मस्तिष्क में भाव केन्द्र पृथक है तथा विचार केन्द्र
पृथक, दोनों का विकास आवश्यक है, ध्यान के द्वारा हम भावना को पुष्ट करते हैं.
ध्यान में भीतर कुछ घटता है जो उस वक्त तो स्पष्ट नहीं होता परन्तु बाद में उसका
प्रभाव अवश्य देखा जा सकता है. हमारी निरीक्षण क्षमता बढ़ जाती है, हम वस्तुओं को
उनके सही रूप में देखने लगते हैं, मन शांत रहता है, विचार आते तो हैं पर शीघ्र ही
हम उनकी उपयोगिता या व्यर्थता पहचान कर उन्हें स्वीकार या अस्वीकार करते हैं.
हमारा मन तब सजग रहता है, ध्यान भीतर छुपी जन्मों की वासनाओं का शमन करता है. एक
मुख्य विचार रह जाता है, जो वास्तव में हमारे ही भीतर है, जो हमारा आधार है, मल,
विक्षेप तथा आवरण की वजह से हम उसे देख नहीं पाते, हमारे मन का पानी चंचल है तथा उस
पर काई जमी है, ध्यान एक-एक कर इन्हें दूर करता है, और तब आत्मा का प्रतिबिम्ब
उसमें दीख पड़ता है.
बहुत सुंदर ज्ञान देती प्रस्तुति,,,
ReplyDeleterecent post: मातृभूमि,
सच कहा है आपने ध्यान परम पूजा है ।
ReplyDeleteबहुत सार्थक चिंतन...
ReplyDeleteधीरेन्द्र जी, इमरान व् कैलाश जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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