Friday, June 26, 2015

नमस्कार

नमस्कार
आज हम दस दिनों की लेह यात्रा पर जा रहे हैं वापस आकर पुनः मिलेंगे. आप सभी को शुभकामनायें !

Thursday, June 25, 2015

योग लगाना है उससे

मई २०१० 
आत्मज्ञान हुए बिना मुक्ति सम्भव नहीं है. आत्मा के सात गुण हैं शांति, आनंद, सुख, प्रेम, ज्ञान, पवित्रता और शक्ति ! जिनकी कमी से जीवन अधूरा ही नहीं रहता बल्कि उसमें पीड़ा भर जाती है. शांति यदि न हो तो नर्वस सिस्टम रोगी हो जाता है, आनंद न हो तो अंतर्स्रावी ग्रन्थियां अपना काम ठीक से नहीं करतीं. सुख न हो तो भोजन नहीं पचता, प्रेम न हो तो ह्रदय रोग होने का खतरा है, पवित्रता न हो तो कर्मेन्द्रियाँ रोगी हो जाती हैं तथा शक्ति न हो तो संकल्प दृढ नहीं हो पाते. हमारी शारीरिक व मानसिक बीमारियों का इलाज योग के पास है. योग होते ही आत्मा के द्वार खुल जाते हैं और जीवन में विस्मय हो तो योग घटित होता है.  

Wednesday, June 24, 2015

मन हो अपना सहज सुराजी

अप्रैल २०१० 
जहाँ राजा विवेकवान है, सचिव सत्यवान है, रानी श्रद्धा से भरी नारी है, सेनापति वैराग्ययुक्त है , वहीं सुराज होता है. हमारे मन का राज्य भी तभी सुराज होगा जब इस पर विवेक का शासन होगा, श्रद्धा हमारी प्रिया होगी, सत्य सलाहकार होगा और वैराग्य रक्षक होगा.   

Tuesday, June 23, 2015

प्रेम समाया हर जर्रे में

मार्च २०१० 
यह ब्रह्मांड कितना विशाल है, हमारी आकाशगंगा में डेढ़ सौ अरब तारे हैं और न जाने कितने ग्रह, उपग्रह उन तारों के होंगे, ऐसी अनंत आकाशगंगाएं होंगी. बुद्धि चकरा जाती है पर जब ध्यान में खाली होकर बैठो तो वह अनंत जैसे अपना लगने लगता है, उसमें कहीं भी विचरो ! कैसा अद्भुत है यह ज्ञान. आत्मा जब अपने घर में होती है तो पूर्ण आनंद में होती है और परमात्मा जब अपने घर में होता है तो पूर्ण प्रेम में होता है. प्रेम से ही तो ये सारा साम्राज्य बना है, असंख्य निहारिकायें, असंख्य नक्षत्र, असंख्य पृथ्वियां और असंख्य जीव...कितना अनोखा है प्रेम का यह प्रपंच ! आत्मा बलशाली हो जाये तो मन नन्हे शिशु की तरह निरीह तकता है, बुद्द्धि अपनी मनमानी नहीं कर पाती. जीवन वरदान बन जाता है और सांसे जैसे अमृत हों जिन्हें घूँट-घूँट करर पीया जा सकता है.  

भीतर जगे आस्था जब

फरवरी २०१० 
हमारे और परमात्मा के मध्य मल, विक्षेप और आवरण तीन बाधाएं हैं. संचित पाप तथा शरीर के विकार ही मल हैं. मन की चंचलता व दुर्गुण ही विक्षेप हैं  तथा मोह व अज्ञान आवरण हैं. ये सभी दूर हो जाएँ तो परमात्मा हमारे सम्मुख ही है. हमारी प्राण शक्ति जितनी अधिक होगी भीतर उत्साह रहेगा, समाधान रहेगा. प्राण शक्ति घटते ही रोग भी घेर लेता है तथा मन भी संदेहों से भर जाता है. प्राणायाम तथा ध्यान मल व विक्षेप को दूर करते हैं और समाधि आवरण को भी हटा देती है. समाधि का अनुभव होते ही आस्था दृढ़ हो जाती है और तब परमात्मा पराया नहीं रहता. भीतर कोई हलचल नहीं, कोई उद्वेग नहीं एक सुखदायी मौन छा जाता है जिसकी छाया में विश्राम पाकर मन तृप्त हो जाता है. 

Sunday, June 21, 2015

हरी हरी वसुंधरा

फरवरी २०१० 
वसुधा, वसुंधरा, धरा, धरित्री, पृथ्वी, मही, भू, भूमि, मेदिनी, श्री, विष्णु पत्नी इतने सारे नाम हैं धरती माँ के, हर एक का अलग अर्थ है. भू का अर्थ है होना. पृथ्वी जड़ नहीं, स्थिर नहीं किसी आकर्षण में बंधी घूम रही है. भूमि का अर्थ होने की प्रक्रिया को आधार देने वाली अर्थात जिन्हें वह आधार देती है उन्हें भी एक दूसरे के लिए क्रियाशील देखना चाहती है. धरा, धरित्री का अर्थ धारण करने वाली अर्थात सहनशीलता, क्षमा, शक्ति, क्षमता. धरित्री माँ को भी कहते हैं. वह माँ की तरह उदार है. वसुधा कहते हैं क्योंकि कितनी सम्पदा इसके पास है. वसु धन भी है और वसु रहने का साधन भी है, वह देवता भी है, वसुधा का अर्थ इसलिए घर मात्र नहीं है, घर की आत्मीयता भी है. पृथ्वी का अर्थ विस्तारवाली है. विष्णु ने मधु-कैटभ का वध किया उसके मेद से बना स्थूल पिंड, तभी वह मेदिनी कहलायी. श्री भूदेवी है, आश्रय देने वाली. इन सब अर्थों को लेकर पृथ्वी की आराधना करें तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का अर्थ समझ में आता है, शेष इस पर रहने वाले लोगों की आत्मीयता से बनता है.

Friday, June 19, 2015

यह जगत इक आईना है

फरवरी २०१०
यह जगत एक दर्पण है, इसमें वही झलकता है जो हमारे भीतर होता है, भीतर प्रेम हो, आनंद हो, विश्वास हो तथा शांति हो तो चारों और वही बिखरी मालूम होती है, अन्यथा जगत सूना-सूना लगता है. यहाँ किस पर भरोसा किया जाये ऐसे भाव भीतर उठते हैं, भीतर की नदी सूखी हो तो बाहर भी शुष्कता ही दिखती है, लेकिन भीतर का यह मौसम कब और कैसे बदल जाता है पता ही नहीं चलता. कर्मों का जोर होता है अथवा तो हम सजग नहीं रह पाते. कोई न कोई विकार हमें घेरे रहता है तो हम भीतर के रब से दूर हो जाते हैं, हो नहीं सकते पर ऐसा लगता है, यह लगना भी ठीक है क्योंकि भीतर छिपे संस्कार ऐसे ही वक्त अपना सिर उठाते हैं, पता चलता है कि अहंकार अभी गया नहीं था, कामना अभी भीतर सोयी थी, ईर्ष्या, द्वेष के बिच्छू डंक मारने को तैयार ही बैठे थे. अपना-आप साफ दिखने लगता है.  

Thursday, June 18, 2015

मोह मिटे से हो जागरण

फरवरी २०१० 
मृत्यु के साथ यदि हमारी मित्रता हो तभी हम धर्म के पथ से विमुख रहकर भी प्रसन्न रहने की आशा रख सकते हैं. ऐसा हो नहीं सकता तो हमें मोह तथा आसक्ति को छोड़कर अनासक्ति का मार्ग चुनना ही पड़ेगा. मोह ही दुःख का सबसे बड़ा कारण है. मोह का अर्थ है विपरीत ज्ञान, विवेकहीनता तथा असजगता. विपरीत ज्ञान अर्थात स्वयं को केवल देह और मन तक ही सीमित मानना. मन उदास होता है तो शरीर अस्वस्थ होने ही वाला है. हमारी नकारात्मक भावनाएं शरीर पर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकतीं. बुद्धि यदि निर्मल न रही तो सही-गलत का भी बोध नहीं रहता. मन के पार जाकर ही उस आनंद का अनुभव होता है जो दिव्य है.   

Wednesday, June 17, 2015

मस्त हुआ जो वही पा गया

जनवरी २०१० 
अभ्यास और वैराग्य ये दो पंख हैं, जिनके सहारे साधक अध्यात्म के आकाश में उड़ता है. अभ्यास समय सापेक्ष है पर वैराग्य समय सापेक्ष नहीं है. परम को प्रेम करें तो संसार से वैराग्य हो जाता है. मन ही तो संसार है, जब मन स्थिर हो जाता है तो वह ज्योति स्तम्भ बन जाता है, तब शरीर हल्का हो जाता है. मस्ती में परम वैराग्य है. वैराग्य से समाधि का अनुभव होता है, समाधि से प्रज्ञा पुष्ट होती है. पूर्णता का अनुभव होता है.    

Tuesday, June 16, 2015

जो तित भावे सो भली

जनवरी २०१० 
जब कोई अपने भीतर ईश्वरीय प्रेम का अनुभव कर लेता है तब जगत से भी प्रेम करने लगता है. उसके पूर्व जगत से किया प्रेम बंधन प्रतीत होता है. एक बार जब भीतर प्रेम का अनुभव हो जाता है, बाहर सहज ही मुक्त भाव से बिखरने लगता है. जैसे कोई फूल अपनी खुशबू बिखेर रहा हो या तो कोई भंवरा अपना संगीत अथवा तो कोई झरना अपनी शीतलता भरी फुहार ! जो स्वयं मुक्त है वह किसी को बांधना क्यों चाहेगा, तब जगत प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह जाता बल्कि अपना अंश हो जाता है. कितने उच्च हैं ये भाव पर कितने सूक्ष्म भी, हाथ से फिसल-फिसल जाते हैं, इतने वायवीय हैं ये कभी-कभी चूर-चूर हो जाते हैं. मन की इच्छा का, आत्मा के ज्ञान का और शरीर के कर्मों का जब मेल नहीं बैठता तो ये भाव भीतर एक पीड़ा उत्पन्न कर देते हैं. भावना के स्तर पर जो सत्य प्रतीत होता था वह क्रिया के स्तर पर दूर जा छिटकता है. कबीर की सहज समाधि तब याद हो आती है, जो कहती है ‘जब जैसा तब वैसा रे’ अर्थात जिस क्षण मन जिस भाव अवस्था में हो उसे प्रभु प्रसाद मानना चाहिए, तब यह कामना भी नहीं रहती कि जो हमने सोचा है वैसा ही घटे, जो तित भावे सो भली ! बस अपना दिल पाक रहे इसकी फिकर करनी है.  

Monday, June 15, 2015

हृदय कोष में ही वह रहता

जनवरी २०१० 
बुद्धि की सीमा जहाँ समाप्त होती है, हृदय का आरम्भ होता है ! लेकिन हम अपनी बुद्धि पर हद से ज्यादा भरोसा करते हैं, हर कोई दूसरे को कम तथा स्वयं को अधिक बुद्धिमान समझता है. छोटी से छोटी बात में भी हम चाहते हैं कि लोग जानें. अहंकार कि जड़ इसी बुद्धि में ही है जो हमें पश्चाताप के सिवा कुछ देकर नहीं जाती. जो यह मान लेता है कि कुछ पा लिया है, जान लिया है उसका ज्ञान चक्षु बंद हो जाता है ! हृदय में प्रवेश होते ही बुद्धि का चश्मा उतर जाता है, तब कोई छोटा-बड़ा नहीं रहता.  

भीतर भी है इक आकाश

जनवरी २०१० 
संत जन कहते हैं भीतर ही परमात्मा है. यदि ऐसा है तो क्यों नहीं हर कोई अपने भीतर जाकर सुख राशि को खोज लेता ? हर कोई भीतर जाना नहीं सीखता, बाहर ही उसे इस तरह बांधे रहता है कि कोई भीतर है भी इसका भी उसे भरोसा नहीं होता. दिन-रात जो बाहर ही रहता है उसे पता ही नहीं चलता कि उसके भीतर भी एक आकाश है जहाँ सूरज उगता है वह अपने भीतर के हिरण्यमय कोष से अनजान ही रह जाता है. भीतर की दुनिया उसे दूर की, रहस्यमयी सी प्रतीत होती है जबकि बाहर से उसका दिनरात का नाता होता है.

Friday, June 12, 2015

उठ जाग मुसाफिर भोर भई

दिसम्बर २००९ 
इस जगत में सभी तो दुखी दिखाई पड़ते हैं, कोई एक दूसरे को नहीं समझता, लेकिन यही तो होना ही चाहिए. जब सभी की बुद्धि पर मोह का पर्दा पड़ा हो तो कोई खुश रह भी कैसे सकता है. मन ही दुःख का जनक है और मन नाम है अहंकार का. अहंकार पुष्ट होता है अपनी छवि को पुष्ट करने से, छवि पुष्ट होती है अपने बारे में सत्य-असत्य धारणाएं पालने से. इच्छाओं की पूर्ति होती रहे तो भी अहंकार पुष्ट होता है. अपने में कोई सद्गुण हो या न हो पर होने का वहम हो तो भी अहंकार पुष्ट होता है और यह अहंकार दुःख का भोजन करता है. जब हम अपने ही बनाये भ्रम को टूटते देखते हैं तो भीतर छटपटाहट होती है, यह सब सूक्ष्म स्तर पर होता है इसलिए कोई इसे समझ नहीं पाता, वही समझता है जो अपने भीतर गया हो जिसने मन का असली चेहरा भली-भांति देखा हो. जो मन को ही स्वयं मानता हो, वह कैसे इसे पहचानेगा. इसीलिए जगत में कोई दोषी नहीं है अथवा तो सभी दोषी हैं. संतजन यही तो कहते आये हैं, जो जगा नहीं है वह दुःख पाने ही वाला है.  

Thursday, June 11, 2015

जरा जाग कर जो देखेगा

नवम्बर २००९ 
हमारी मूर्छा इतनी सघन है कि हमें पता ही नहीं चलता हमारे भीतर आनंद का एक ऐसा स्रोत है जो अनंत है. हमारी अंतरात्मा पर कर्म का पर्दा पड़ा है, हमारे दुखों का कारण कर्म ही हैं, मनसा, वाचा और कर्मणा जो भी हमने किया है वही सामने आता है. दिन भर में न जाने कितने विचार हमरे मनों में आते हैं, भीतर कर्म का एक व्यक्तित्व है, हमारे स्वभाव को बनाने वाली सत्ता भीतर ही तो है, जब तक उसकी निर्जरा नहीं होगी तब तक स्वभाव नहीं बदलेगा और हम वही-वही दोहराते चले जायेंगे. 

एक वही तो दे सकता है

सितम्बर २००९ 
ऐसा संत जिसे न कुछ पाने को शेष रह गया हो न कुछ करना ही, वही अहैतुकी कृपा या सेवा कर सकता है. हम जो कुछ करते हैं वह आनंद के लिए, जिसे वह मिल गया हो अब उसके लिए कुछ पाना बाकी नहीं रहता ! प्रतिपल हमारा मन आनंद की खोज में लगा रहता है, ऐसा आनंद जो अनंत राशि का हो तथा जो कभी छिने न, जिन्हें वह मिल गया, उन्हें कुछ करने को शेष रहता नहीं, लेकिन फिर भी वे करते हैं, क्योंकि वे अन्यों को आनंद देना चाहते हैं. वे केवल कृपा करते हैं, अकारण हितैषी होते हैं, सुहृद होते हैं ! 

Tuesday, June 9, 2015

कर्म, अकर्म का भेद जो जाने

सितम्बर २००९ 
कर्म जब सहज होता है तो बांधता नहीं है, प्रतिकर्म ही बांधता है. अकर्म मुक्त करता है. अकर्मण्य होना अकर्म नहीं है, वह तो जड़ता है. चैतन्य जिसके भीतर जग गया है, वह जड़ नहीं रह सकता लेकिन उसके कर्म सहज हैं. जो हो जाये या जो आवश्यक हो उतना वह करता है. उससे सहज ही बड़े कार्य भी हो सकते हैं. क्योंकि कर्ताभाव से वह मुक्त है, उन कर्मों का कोई बोझ उसके ऊपर नहीं होता. यही अकर्म है.

Monday, June 8, 2015

मुक्त सदा ही रहता है वह

सितम्बर २००९ 
परमात्मा सृजन तो करता है, सृष्टा तो है पर कर्ता नहीं. शास्त्र कहते हैं परमात्मा नर्त्तक है, वह है और नृत्य भी हो रहा है, नृत्य उसके बिना नहीं हो सकता पर वह नृत्य के बिना भी हो सकता है. परमात्मा प्रकृति के साथ एक भी है और भिन्न भी. सारी प्रकृति वर्तती है उसकी उपस्थिति में ही, पर परमात्मा स्वयं नहीं वर्तता ! उसकी मौजूदगी ही काफी है. जो इस मौलिक तत्व को समझ लेता है वह कर्तापन के भाव से मुक्त होकर जीता है. प्रकृति बड़ी शांति से अपना काम करती है यह जानकर हमारी पकड़ छूट जाती है.

है अपेक्षा कारण दुःख का

सितम्बर २००९
अपेक्षा में जीने वाला मन दुःख को निमन्त्रण देता ही रहता है. लाओत्से ने कहा है कि कोई मुझे हरा ही नहीं सका, कोई मेरा शत्रु भी न बना, कोई मुझे दुःख भी न दे सका क्योंकि मैंने न जीत की, न मित्रता की न सुख की अपेक्षा ही संसार से की. जो भी चाहा वह भीतर से ही और भीतर अनंत प्रेम छिपा है.

Saturday, June 6, 2015

बनें साक्षी हम पल पल के

अगस्त २००९ 
हमारे जीवन में हजारों, लाखों, करोड़ों, अरबों या कहें कि अनंत पल खुशियों के आते हैं, बल्कि कहें कि हमारा जीवन सुख व आनंद की एक अनवरत श्रंखला है, अनगिनत जन्मों को जोड़कर देखें तो न जाने किस अतीत के काल से हम बने हुए हैं. परमात्मा की भांति हम भी अनादि हैं, उसकी भांति हम साक्षी हैं, कुछ न करते हुए भी सबका आनंद लेने वाले, हर श्वास एक आनंद की लहर का खबर देती है. जो स्वयं ही आनंद है उसे भी अपने आनंद का स्वाद लेने के लिए देह में आना पड़ता है. परमात्मा को मायाविशिष्ट चेतना में आकर लीला का आनंद लेना पड़ता है तो जीव को स्वप्न विशिष्ट चेतना में ! हम स्वप्न ही तो देख रहे हैं, एक लम्बा स्वप्न, जिसमें हमने एक नया पात्र धरा है, शरीर मन व बुद्धि का एक नया संयोग खड़ा किया है, स्वप्न से जागकर ही पता चलता है कि इसमें प्रतीत होने वाले सुख-दुःख मिथ्या थे, वैसे ही मृत्यु के वक्त पता चलता है, सब कुछ छूट रहा है, यह एक स्वप्न का अंत हो रहा है. हमारा ध्यान यदि मृत्यु से पूर्व इस ओर चला आये तो जीवन एक उत्सव ही प्रतीत होता है. 

Friday, June 5, 2015

जिस क्षण एक हुआ यह मन

जुलाई २००९ 
धर्म की साधना है मन रूपी दाल को फिर बीज बनाना, बीज में ही अंकुर फूटता है. एक क्षण में तब अंकुर वृक्ष बनने लगता है. बीज के लिए धरती है शब्द, सत्संग, गुरू के वचन, मनन. जिस वक्त संध्या काल हो अर्थात मन एक अवस्था से दूसरी में जा रहा हो तब यह बीज बोना चाहिये, जैसे निद्रा और जागरण के मध्य या जागरण और निद्रा के मध्य ! जुड़ा हुआ मन ही गहराई में जा सकता है. 

Wednesday, June 3, 2015

शक्ति की आराधना हो

जून २००९ 
उद्यमो भैरवः’ पुरुषार्थ करना ही मानव का कर्त्तव्य है. सत्य की खोज के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है और जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए भी. मानव रोज-रोज अपनी शारीरिक व मानसिक शक्ति को खो रहा है पर आत्मिक शक्ति सदा एक सी है और जो अपने निकट है, भीतर गया है, वही इस शक्ति का अनुभव कर सकता है. जीवन में कोई सचेतन लक्ष्य न हो तो जीवन एक सूखे पत्ते की तरह इधर-उधर डोलता रहता है. साधक वही है जो चिंतन के द्वारा स्वयं को सजग करता है. 

Tuesday, June 2, 2015

गुरू के द्वारे जो पहुँचा है

मई २००९ 
मंजिल पर पहुंच सकें इसलिए वाहन मिला है, जीवन की लालसा हमें इस वाहन में बैठे रहने पर विवश करती है. जिसे मंजिल का पता चल गया है उसे मृत्यु से भय नहीं लगता, असली जीवन इसके बाद ही आरम्भ होता है. मानव इस सत्य से अनभिज्ञ रहकर ही सारा जीवन गुजार देता है. मृत्यु उसे डराती है और वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है. अविद्या, अज्ञान और अशिक्षा सबसे बड़े रोग हैं, स्कूली शिक्षा नहीं बल्कि जीवन की शिक्षा जो अध्यात्म देता है. लेकिन हम गुरू द्वार तक पहुंच ही नहीं पाते परमात्मा जिस शांति का घर है गुरू उसका द्वार है, लेकिन उस शांति का अनुभव विरले ही कर पाते हैं. 

Monday, June 1, 2015

उसका सुमिरन जब होगा

अप्रैल २००९ 
दुनिया का कोई ऐसा सुख नहीं है जो अपने पीछे दुःख को न छिपाए हो. परमात्मा का सुख ही ऐसा है जो विपरीत से जुड़ा नहीं है. ज्ञान है तो परमात्मा है. ज्ञान के कारण कोई परमात्मा के मार्ग पर नहीं चलता, दुःख के कारण चलता है. दुखों में सबसे बड़ा दुःख तो मरण का है. मरण को याद रखके ही कोई परमात्मा को याद करता है. बेअंत की याद उसी को आएगी जो अपने अंत को याद करता है. अकाल को वही पा सकता है जो काल को याद करता है. तन का घट मिट्टी का है, प्रकृति एक दिन उसे अपने तत्वों से जोड़ देती है. मन का घट परमात्मा का है. मन ज्योति स्वरूप है. तन को प्रकृति अपने घर पहुंचा देती है, मन को अपने घर खुद जाना है. संसार हर समय याद आता है पर हजार प्रयत्न करने पर भी परमात्मा याद नहीं आता. जिसे याद आता है, वह महा आनंद को पाता है, उसे भूल जाना ही दुःख है.