सितम्बर २००९
अपेक्षा में जीने वाला मन दुःख को निमन्त्रण देता ही रहता है. लाओत्से ने कहा
है कि कोई मुझे हरा ही नहीं सका, कोई मेरा शत्रु भी न बना, कोई मुझे दुःख भी न दे
सका क्योंकि मैंने न जीत की, न मित्रता की न सुख की अपेक्षा ही संसार से की. जो भी
चाहा वह भीतर से ही और भीतर अनंत प्रेम छिपा है.
अपेक्षा न रखना क्या इंसान के बस में होगा ...
ReplyDeleteलाओत्से भी इन्सान ही थे ...यदि दुःख से बचना नहीं तो अपेक्षा रखना ठीक है वरना...स्वागत व आभार दिगम्बर जी
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सही कहा - अपेक्षा दुख को निमंत्रण तो देती ही है साथ ही प्रगति में बाधा भी पहुँचाती है ।
ReplyDeleteस्वागत व आभार शकुंतला जी
ReplyDeleteअपेक्षा से मुक्ति संभव है । जब मन को संसार से ज्यादा खुशी भीतर से मिलने लगे तब अपेक्षा तिरोहित हो जायेगी॥
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