जनवरी २०१०
जब कोई
अपने भीतर ईश्वरीय प्रेम का अनुभव कर लेता है तब जगत से भी प्रेम करने लगता है.
उसके पूर्व जगत से किया प्रेम बंधन प्रतीत होता है. एक बार जब भीतर प्रेम का अनुभव
हो जाता है, बाहर सहज ही मुक्त भाव से बिखरने लगता है. जैसे कोई फूल अपनी खुशबू
बिखेर रहा हो या तो कोई भंवरा अपना संगीत अथवा तो कोई झरना अपनी शीतलता भरी फुहार
! जो स्वयं मुक्त है वह किसी को बांधना क्यों चाहेगा, तब जगत प्रतिद्वन्द्वी नहीं
रह जाता बल्कि अपना अंश हो जाता है. कितने उच्च हैं ये भाव पर कितने सूक्ष्म भी,
हाथ से फिसल-फिसल जाते हैं, इतने वायवीय हैं ये कभी-कभी चूर-चूर हो जाते हैं. मन
की इच्छा का, आत्मा के ज्ञान का और शरीर के कर्मों का जब मेल नहीं बैठता तो ये भाव
भीतर एक पीड़ा उत्पन्न कर देते हैं. भावना के स्तर पर जो सत्य प्रतीत होता था वह
क्रिया के स्तर पर दूर जा छिटकता है. कबीर की सहज समाधि तब याद हो आती है, जो कहती
है ‘जब जैसा तब वैसा रे’ अर्थात जिस क्षण मन जिस भाव अवस्था में हो उसे प्रभु
प्रसाद मानना चाहिए, तब यह कामना भी नहीं रहती कि जो हमने सोचा है वैसा ही घटे, जो
तित भावे सो भली ! बस अपना दिल पाक रहे इसकी फिकर करनी है.
तभी तो नानक भी कहते हैं-
ReplyDeleteजो तित भावे नानका
सोई गल्ल चंगी॥
स्वागत व आभार सतपाल जी !
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